प्रकाश झा से अजय ब्रह्मात्मज की बातचीत
शुरू से बताएं। फिल्मों में आने की बात आपने कब और क्यों सोची?
मैं तो दिल्ली यूनिवर्सिटी में फिजिक्स ऑनर्स की पढ़ाई कर रहा था। उस समय अचानक लगने लगा कि क्या यही मेरा जीवन है? ग्रेजुएशन हो जाएगा, फिर आईएएस ऑफिसर बनकर सर्विसेज में चले जाएंगे। पता नहीं क्यो वह विचार मुझे पसंद नहीं आ रहा था। काफी संघर्ष dरना पड़ा उन दिनों परिवार की आशंकाएं थीं। उन सभी को छोड़-लतार कर... बीच में पढ़ाई छोड़ कर मुंबई आ गया। पैसे भी नहीं लिए पिताजी से... पिताजी से मैंने कहा कि जो काम आप नहीं चाहते मैं करूं, उस काम के लिए मैं आप से पैसे नहीं लूंगा। चलने लगा तो घर के सारे लोग उदास थे... नाराज थे। मेरे पास तीन सौ रूपये थे। मैं मुंबई आ गया... फिल्मो के लिए नहीं, पेंटिंग में रुचि थी मेरी। जे जे स्कूल ऑफ आर्ट्स का नाम सुना था। मैंने कहा कि वहीं जाऊंगा। वहां जाकर जीवन बनाऊंगा घर छोड़कर चला आया था। मंबई आने के बाद जीविका के लिए कुछ.कुछ करना पड़ा। ट्रेन में एक सज्जन मिल गए थे.राजाराम। आज भी याद है। दहिसर - मुंबई का बाहरी इलाका-में बिल्डिंग वगैरह बनाते थे। उनके पास यूपी जौनपुर के बच्चे रहते थे। वहीं हमको भी सोने की जगह मिल गई। दिन भर निकलते थे काम-वाम की खोज में।
आप तो जे जे स्कूल ऑफ आर्ट्स के लिए मुंबई आए थे न? फिर काम-वाम की खोज...?
जे जे गया तो पता चला कि वहां सेमेस्टर शरू होने में थोड़ा वक्त लगेगा। मेरे पास एक कैमरा होता था। मेरी थाती वही थी। कभी तस्वीरें वगैरह खीच लेते थे। काम के लिहाज से पहला रेगुलर काम एक इंग्लिश स्पीकिंग इंस्टीट्यूट था। बिजनेशसमैन वहां सीखने आते थे। एक्सपोर्टर से बात करने के लिए उन्हें अंग्रेजी की जरूरत पड़ती थी।मेरी अंग्रेजी थोड़ी अच्छी हुआ करती थी। मेरी उम्र तब 19-20 साल थी। वहां एप्लाई किया तो काम मिल गया। बड़े-बूढ़े लोगों को अंग्रेजी सिखाता था। तीन-चार घंटे दिन में काम करना होता था। बाकी समय में जहांगीर आर्ट गैलरी, जे जे और दूसरी आर्ट गैलरीयों में घूमा करते थे। उसी बीच मेरी मुलाकात दहिसर की बिल्डिंग में रह रहे एक आर्ट डायरेक्टर से हुई। उनका नाम आगा जानी था। शीशे का काम करते थे। 'धरमा' का सेट लगाया था उन्होंने जिसमें नवीन निश्चल, प्राण और रेखा वगैरह थे। फिल्म के डायरेक्टर चांद थे। उन्होंने एक दिन मुझे फोटोग्राफी करते देख लिया। उन्होंने मुझे बुलाया। मेरी तस्वीरें देखीं और चाय पिलाई। मुझ में इंटरेस्ट दिखाया। मैंने ऐसा समझा कि उन्हें मैं काम का आदमी लगा, जो आर्ट डायरेक्शन में एसिस्ट कर सकता है। अगले दिन वे शूटिंग पर जा रहे थे, संडे का दिन था... मैंने पूछ दिया कि कहां जा रहे हैं आगा साहब, तो तपाक से बोले, 'सन एंड सैंड में सेट लगा है। वहीं जा रहा हूं' मैंने यों ही पूछ दिया कि चलूं मैं भी, तो उन्होंने साथ कर लिया। फिल्मी दुनिया से मेरा वह पहला जुड़ाव रहा। मुंबई आने के बाद भी मेरी कभी इच्छा नहीं हुई थी कि किसी स्टार से मिलूं या शूटिंग देखने चला जाऊं। पूरी तरह से पेंटिंग में डूबा था मै... बहरहाल उस दिन फिल्म की शूटिंग देखने चला गया 'सन एंड सैंड' के आस-पास तब कोई दूसरा होटल नहीं था। एकदम खाली जगह थी। वहीं 'धरमा' का सेट लगा था। 'राज को राज रहने दो' गाने की शूटिंग थी। वहां का माहौल मुझे बहुत अच्छा लगा। लाइटिंग चल रही थी। मैं एक कोने में खड़े होकर रात के नौ बजे तक शूटिंग देखता रहा। बीच में दो बार आगा जानी पूछने आए। फिर उन्होंने कहा कि वे लौट रहे हैं। मैंने उनसे कहा कि आप जाइए, मैं आ जाऊंगा। मैं वहां से हिला ही नहीं। मेरे मन-मस्तिष्क में बात आई कि यही करना है। रात में लौटा तो आगा जी के पास गया। वे अभी सोए नहीं थे। उनसे मैंने मन की बात कही और दबाव डाला कि 'आपको मेरी मदद करनी होगी।' अगले दिन सुबह फिर मिला और मैंने कहा चलिए, जिंदगी में मुझे मेरा लक्ष्य मिल गया है।
पहली बार शूटिंग देखने का ऐसा असर हुआ? उसके पहले कितनी फिल्में देखी थीं आपने या फिल्मों का कितना और किस तरह का शौक था?
मैं तो तिलैया के आर्मी स्कूल में था। दिल्ली आने पर भी ऐसा नहीं था कि फिल्म देखने के लिए परेशान रहते हों। कॉलेज के दिनों में 'पाकीजा' रिलीज हुई थी। मैंने 'पाकीजा' दो-तीन बार जरूर देखी थी। स्कूल के दिनों में पेंटिंग, मूर्तिकारी आदि का शौक था। दिल्ली गया तो बड़े-बड़े आर्टिस्ट के काम का एक्सपोजर मिला। उन्हें देखकर लगता था। कि मैं कुछ कर सकता हूं... लेकिन सन एंड सैंड का वह दिन तो कमाल का था। लगा कि कुछ पा लिया है मैंने। आगा जी ने अगले दिन चांद साहब से मिलवा दिया। चांद साहब ने तेरहवां एसिस्टैंट बना लिया। चीफ एसिस्टैंट देवा था। मैं रोजाना सुबह आ जाता था और चाय-वाय, कुर्सी-उर्सी का इंतजाम करता था या देवा जो बोलता था, उसे कर देता था। मैं देखता-समझता रहा। कुछ एसिस्टैंट चार-पांच साल से लगे हुए थे। देवा बारह-तेरह साल से असिस्टैंट था। फिल्म माध्यम के प्रति मेरी रुचि बढ़ती गई। कुल पांच दिन रहा मैं एसिस्टैंट। पांच रुपये मिलते थे तब रोज के...
सिर्फ पांच दिन ही एसिस्टैंट रहे और वह भी पांच रुपए प्रति दिन पर..?
हां, पांच रुपए ही लंच के तौर पर मिलते थे। लंच ब्रेक के समय हम लोग बाहर जाकर खा लेते थे। तब जुहू बस स्टॉप पर चिलिया की दुकान थी। वहां डेढ़ रुपए में खाना हो जाता था। उडीपी होटल में दो रुपए पैंतीस पैसे में इतनी बड़ी थाली मिलती थी कि हम खा नहीं सकते थे। पांच दिनों में ही मुझे अंदाजा लगा कि अगर एसिस्टैंट बने रहे तो बारह-पंद्रह सालो तक कोई उम्मीद नहीं रहेगी। छठे दिन वहां का शेड्यूल खत्म होते ही मैं पूना चला गया। पूना फिल्म इंस्टीट्यूट में जाकर मैंने सब कुछ पता किया। वहां सिर्फ एक ही कोर्स के लिए मैं क्वालीफाई कर रहा था, सिर्फ एक्टिंग के लिए। बाकी पढ़ाई के लिए ग्रेजुएशन जरूरी था। मैंने ग्रेजुएशन किया नहीं था। मुंबई लौटने के बाद मैंने दहिसर छोछ़ दिया। नौकरी की खोज शुरू की। सोचा कि ऐसी नौकरी कर लूं, जिसमें पढ़ाई का वक्त भी मिले। ताड़देव के एक रेस्तरां में एप्लाई किया। उनका नया ब्रांच कुलाबा में खुल रहा था। होटल के मालिक तीन भाई थे। उसमें से एक सैनिक स्कूल में पढ़ा था। उसने मुझे रख लिया। तीन सौ रुपए महीने के की नौकरी लगी। नौकरी के साथ मैंने केसी कॉलेज में मैंने एडमिशन भी ले लिया। वहां रोज क्लास नहीं करता था। टीचरों से दोस्ती कर ली थी और अपनी मजबूरी बता दी। वे अटैंडेंस लगा देते थे। होटल में सुबह नौ बजे से रात नौ बजे तक काम करना होता था। बीच में दो-तीन घंटे का खाली समय मिल जाता था। उसी में पढ़ाई होती थी। मेरे सारे पैसे बच जाते थे। बाद में वे पैसे पूना के फीस के काम आए।
पूना कब गए आप?
उसी साल मैंने पूना में एडमिशन लिया। एडीटिंग का कोर्स मिला। मेरे साथा डेविड धवन और रेणु सलूजा थे। उस साल डायरेक्शन में केतन मेहता, कुंदन शाह, विधु विनोद चोपड़ा और सईद मिर्जा थे। उन दिनों नसीरुद्दीन शाह और ओम पुरी भी वहां थे। वैसा बैच फिर नहीं निकला। केतन डायरेक्शन कोर्स में थे। उन्होंने एक डाक्यूमेंट्री बनाई थी, जिसे मैंने सबसे पहले एडिट किया। साल बीतते-बीतते इंस्टीट्यूट में गड़बड़ियां होने लगीं। मैं वहां 1973 में गया था। 1974 की बात कर रहा हूं। गिरीश कर्नाड डायरेक्टर थे तब और इंस्टीट्यूट में स्ट्राइक हो गया। स्टूडेंट औ गिरीश कर्नाड के बीच टकराव हो गया था। इंस्टीट्यूट बंद कर दिया गया।
फिर ...
हम लोग लौटकर मुंबई आ गए। मुंबई में शिवेंद्र सिन्हा के यहां ठिकाना बना। उनके भतीजे मंजुल सिन्हा मेंरे दोस्त थे। मंजुल एफटीआईआई में डायरेक्शन में थे। हम लो दिन भर इधर-उधर घूमते और रात में शिवेंद्र जी के यहां जाकर फर्श पर सो जाते थे। वहीं अजीत सिन्हा भी थे। बाद में उन्होंने मेरे साथ काम किया। आजीविका के लिए हम लोग स्किप्ट वगैरह लिखते थे। चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी, फिल्म्स डिवीजन और इधर-उधर हाथ मारकर कुछ जुगाड़ कर लेते थे। पता चला कि गोवा की सरकार वहां की संस्कृति पर डॉक्यूमेंट्री बनवाना चाहती है। वहां की मुख्यमंत्री शशिकला जी को एक मित्र जानता था। उनसे मिलने गोवा गया पहुंच गए। वह फिल्म मिल गई। छावड़ा साहब - इन दिनों प्रकाश झा प्रोडक्शन में कार्यरत - की विज्ञापन एजेंसी थी। वहां भी जाकर कुछ काम कर देते थे। फिल्म मेकिंग का जुनून सवार था। आखिरकार 1975 में गोवा सरकार की डॉक्यूमंट्री 'अंडर द ब्लू' पूरी हो गई। 1975 में मेरा पहला काम सामने आया।
बाकी है अभी....
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