सरकारी सेंसर के आगे..

-अजय ब्रह्मात्मज

पिछले दिनों फिक्की फ्रेम्स में अभिव्यक्ति की आजादी और सामाजिक दायित्व पर परिसंवाद आयोजित किया गया था। इस परिसंवाद में शर्मिला टैगोर, प्रीतिश नंदी, श्याम बेनेगल, जोहरा चटर्जी और महेश भट्ट जैसी फिल्मों से संबंधित दिग्गज हस्तियां भाग ले रही थीं। गौरतलब है कि शर्मिला टैगोर इन दिनों केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की चेयरमैन हैं, जिसे हम सेंसर बोर्ड के नाम से जानते रहे हैं। ताज्जुब की बात यह है कि सेंसर शब्द हट जाने के बाद भी फिल्म ट्रेड में प्रचलित है। बहरहाल, उस दोपहर शर्मिला टैगोर अभिभावक की भूमिका में थीं और सभी को नैतिकता का पाठ पढ़ा रही थीं। उन्होंने फिल्मकारों को उनके दायित्व का अहसास कराया। इसी प्रकार सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से संबंधित जोहरा चटर्जी यही बताती रहीं कि सरकार ने कब क्या किया?
श्याम बेनेगल बोलने आए, तो उन्होंने अपने अनुभवों के हवाले से अपनी चिंताएं जाहिर कीं। उन्होंने बताया कि मुझे अपनी फिल्मों को लेकर कभी परेशानी नहीं हुईं। मैं जैसी फिल्में बनाता हूं, उनमें मुझे केवल सेंसर बोर्ड के दिशानिर्देश का खयाल रखना पड़ता था। मेरी या किसी और की फिल्म को सार्वजनिक प्रदर्शन का अनुमति-पत्र इसी संस्था से मिलता है। फिल्म को प्रदर्शन से रोकने या काट-छांट की सलाह भी बोर्ड ही देता। आज भी कागजी तौर पर यही स्थिति है। अपनी बात जारी रखते हुए उन्होंने आगे कहा कि मैं अपनी ताजा फिल्म को लेकर अतिरिक्त सावधानी बरत रहा हूं। मेरी सावधानी की वजह बोर्ड की हिदायतें नहीं हैं। मैं उन सभी को लेकर सचेत हूं, जो देश के कोने-कोने में मौजूद हैं और किसी छोटी एवं अनर्गल मुद्दे के बहाने से शोर कर सकते हैं। उनके शोर से घबराकर प्रशासन कानून और व्यवस्था की आड़ में फिल्म पर रोक लगा देता है। मैं नहीं चाहता कि मेरी फिल्म किसी एक संवाद या गाने की किसी एक पंक्ति के कारण किसी के निशाने पर आ जाए। उन्होंने आजा नचले का उदाहरण दिया और जोर देकर कहा कि इस फिल्म के एक गाने की जिस पंक्ति पर आपत्ति की गई, वह तो सदियों से हमारे मुहावरे में प्रचलित है! फिर भी हंगामा बरपा और फिल्म के बिजनेस का नुकसान हुआ!
श्याम बेनेगल के कहने का आशय यही था कि उन्हें अभी केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से ज्यादा चिंता, बोर्ड के बाहर मौजूद समाज की करनी पड़ रही है। उन्होंने अभिव्यक्ति की आजादी पर लगाई जा रही ऐसी अतिरिक्त पाबंदी के ट्रेंड को खतरनाक माना और कहा कि समय रहते इसे रोक देना चाहिए। महेश भट्ट का पक्ष आक्रामक था। उन्होंने अपनी फिल्म जख्म और हाल की फिल्म परजानिया काउदाहरण देते हुए प्रश्न उठाया कि कैसे केन्द्र में बैठी सरकार अपनी पसंद-नापसंद हम पर लादती है! उन्होंने बताया कि जख्म को तत्कालीन सरकार ने तब प्रदर्शन की अनुमति दी, जब मैंने फिल्म के दंगों के दृश्यों में शामिल दंगाइयों की भगवा पट्टी का रंग बदला। आज की सरकार के एजेंडा में परजानिया फिट बैठती है, तो उसने उस पर किसी प्रकार की पाबंदी नहीं लगाई! उन्होंने बताया कि हमारी अभिव्यक्ति की आजादी वास्तव में पिंजड़े की आजादी है। हम अपने फड़फड़ाते पंख की आवाज सुनकर ही उड़ने काअहसास पाल लेते हैं। प्रचलित भाषा में सेंसर बोर्ड यानी केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की अनुमति के बाद विभिन्न समुदायों, संस्थाओं, व्यक्तियों और धर्मो की आपत्तियों के बाद कानून और व्यवस्था की समस्या बता कर फिल्म का प्रदर्शन रोक देना गलत है। दरअसल, यह प्रशासन की ही जिम्मेदारी है कि वह फिल्मों के सुरक्षित प्रदर्शन की व्यवस्था करे। ऐसा लग रहा है कि प्रशासन ऐसे मामलों में सख्ती नहीं बरत रहा है। जोधा अकबर का प्रदर्शन जिस तरह से रोका गया, वह वास्तव में खतरे की घंटी है। वक्त आ गया है कि आजादी की अभिव्यक्ति के पैरोकार और समर्थक सामने आएं और कोई रास्ता सुझाएं। और उसके लिए सरकार को ही इस संबंध में पहल करनी होगी। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय और गृह मंत्रालय के मंत्रियों और अधिकारियों को मिलकर कड़े फैसले लेने होंगे। लोकतंत्र में विरोध और असहमति की गुंजाइश रहनी चाहिए, लेकिन वह पारदर्शी और समुचित हो।

Comments

Arun Aditya said…
वास्तव में हमारी अभिव्यक्ति की आजादी पिंजड़े की ही आजादी है। yahi sach hai.
sawan said…
अच्छा ब्लॉग है दोस्त।

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