अभिनेत्रियों का अभिनय
-अजय ब्रह्मात्मज
हिंदी फिल्मों की अभिनेत्रियों को आप एक तरफ से देखें और उन पर जरा गौर करें और फिर बताएं कि उनमें से कितनी अभिनेत्रियां गंभीर और गहरी भूमिकाओं के लिए उपयुक्त हैं! इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारी ज्यादातर अभिनेत्रियां ग्लैमरस रोल के लिए फिट हैं और वे उनमें आकर्षक भी लगती हैं, लेकिन जैसे ही उनकी भूमिकाओं को निर्देशक गहरा आयाम देते हैं, वैसे ही उनकी उम्र और सीमाएं झलकने लगती हैं। एक सीनियर निर्देशक ने जोर देकर कहा कि हमारी इंडस्ट्री में ऐसी अभिनेत्रियां नहीं हैं कि हम बंदिनी, मदर इंडिया, साहब बीवी और गुलाम जैसी फिल्मों के बारे में अब सोच भी सकें। उन्होंने ताजा उदाहरण खोया खोया चांद का दिया। इस फिल्म में मीना कुमारी की क्षमता वाली अभिनेत्री चाहिए थी। सोहा अली खान इस भूमिका में चारों खाने चित्त होती नजर आई। सोहा का उदाहरण इसलिए कि उन्होंने खोया खोया चांद जैसी फिल्म की। अगर अन्य अभिनेत्रियों को भी ऐसे मौके मिले होते, तो शायद उनकी भी कलई खुलती! अभी की ऐक्टिव अभिनेत्रियों में केवल ऐश्वर्या राय ही गंभीर और गहरी भूमिकाओं के साथ न्याय कर सकती हैं। उनकी देवदास और चोखेर बाली के सबूत दिए जा सकते हैं। हां, देवदास में माधुरी दीक्षित ने भी साबित किया था कि अगर उन्हें ऐसी चुनौतीपूर्ण भूमिकाएं दी जाएं, तो वे उन्हें बखूबी निभा सकती हैं। उन्होंने प्रकाश झा की फिल्म मृत्युदंड में दमदार रोल किया था और उसके लिए वाजिब पुरस्कार भी जीता। मनीषा कोइराला में वह लुक और क्षमता है, लेकिन उन्होंने अपने करियर के प्रति गंभीरता नहीं दिखाई। तब्बू भी हैं, लेकिन वे इन दिनों मुंबई से नदारद हैं। थोड़ी पहले की पीढ़ी में काजोल हैं। फना में तो वे ठीक लगी थीं। देखना है कि फिल्म यू मी और हम में उनकी यह क्षमता सामने आती है कि नहीं? इस फिल्म में उम्रदराज पिया के रोल में दर्शक उन्हें भी जांच लेंगे।
अब आज की लोकप्रिय अभिनेत्रियों को परखें। करीना कपूर चमेली और ओमकारा में झलक मात्र दे पाई। दोनों ही फिल्मों के निर्देशकों ने उनकी अभिनय क्षमता की सीमाओं का खयाल रखते हुए किरदार को अधिक गहराई नहीं दी। जब वी मेट में करीना की बहुत तारीफ हो रही है, लेकिन यह किरदार अपने चुलबुलेपन के कारण ज्यादा पसंद किया गया। इंटरवल के बाद बगैर मेकअप की करीना को देख कर दर्शक हंस रहे थे। उनकी बड़ी बहन करिश्मा कपूर को फिजा और जुबैदा में लगभग इसी तरह की चुनौती मिली थी। हालांकि उन्होंने मेहनत भी की, किंतु अनुभव और अभिनय की अपनी सीमाओं के कारण वे दर्शकों को प्रभावित करने में असफल रहीं। डोर फिल्म के रोल के लिए आयशा टाकिया को काफी तारीफ मिली, लेकिन घाघरा पहनी औरत उस गति और मुद्रा में भाग ही नहीं सकती। आयशा का दौड़ना वास्तव में जींस पहनने वाली लड़की का दौड़ना है। उनके बैठने-उठने में भी गंवई टच नहीं था। आज की अभिनेत्रियां बॉडी लैंग्वेज की बातें तो करती हैं, लेकिन उनके अभिनय में किरदार के हिसाब से बॉडी लैंग्वेज में बदलाव नहीं दिखता। यही कारण है कि वे गंभीर और गहरी भूमिकाओं के लिए उपयुक्त नहीं लगतीं।
किरदार के हिसाब से बॉडी लैंग्वेज का बदलाव देखना हो, तो हाल ही में आई संजय गुप्ता की फिल्म दस कहानियां में रोहित राय निर्देशित राइस प्लेट कहानी देखें। दक्षिण भारतीय बुजुर्ग महिला के किरदार को शबाना आजमी ने बड़ी खूबसूरती से आत्मसात किया है। शबाना को उस चरित्र में देखकर लगा था जैसे वे उस किरदार में ढल गई। आज की अभिनेत्रियों की एक बड़ी समस्या भाषा भी है। फिर यह सब यों ही नहीं आते! इसके लिए अभिनय की तालीम जरूरी है।
हिंदी फिल्मों की अभिनेत्रियों को आप एक तरफ से देखें और उन पर जरा गौर करें और फिर बताएं कि उनमें से कितनी अभिनेत्रियां गंभीर और गहरी भूमिकाओं के लिए उपयुक्त हैं! इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारी ज्यादातर अभिनेत्रियां ग्लैमरस रोल के लिए फिट हैं और वे उनमें आकर्षक भी लगती हैं, लेकिन जैसे ही उनकी भूमिकाओं को निर्देशक गहरा आयाम देते हैं, वैसे ही उनकी उम्र और सीमाएं झलकने लगती हैं। एक सीनियर निर्देशक ने जोर देकर कहा कि हमारी इंडस्ट्री में ऐसी अभिनेत्रियां नहीं हैं कि हम बंदिनी, मदर इंडिया, साहब बीवी और गुलाम जैसी फिल्मों के बारे में अब सोच भी सकें। उन्होंने ताजा उदाहरण खोया खोया चांद का दिया। इस फिल्म में मीना कुमारी की क्षमता वाली अभिनेत्री चाहिए थी। सोहा अली खान इस भूमिका में चारों खाने चित्त होती नजर आई। सोहा का उदाहरण इसलिए कि उन्होंने खोया खोया चांद जैसी फिल्म की। अगर अन्य अभिनेत्रियों को भी ऐसे मौके मिले होते, तो शायद उनकी भी कलई खुलती! अभी की ऐक्टिव अभिनेत्रियों में केवल ऐश्वर्या राय ही गंभीर और गहरी भूमिकाओं के साथ न्याय कर सकती हैं। उनकी देवदास और चोखेर बाली के सबूत दिए जा सकते हैं। हां, देवदास में माधुरी दीक्षित ने भी साबित किया था कि अगर उन्हें ऐसी चुनौतीपूर्ण भूमिकाएं दी जाएं, तो वे उन्हें बखूबी निभा सकती हैं। उन्होंने प्रकाश झा की फिल्म मृत्युदंड में दमदार रोल किया था और उसके लिए वाजिब पुरस्कार भी जीता। मनीषा कोइराला में वह लुक और क्षमता है, लेकिन उन्होंने अपने करियर के प्रति गंभीरता नहीं दिखाई। तब्बू भी हैं, लेकिन वे इन दिनों मुंबई से नदारद हैं। थोड़ी पहले की पीढ़ी में काजोल हैं। फना में तो वे ठीक लगी थीं। देखना है कि फिल्म यू मी और हम में उनकी यह क्षमता सामने आती है कि नहीं? इस फिल्म में उम्रदराज पिया के रोल में दर्शक उन्हें भी जांच लेंगे।
अब आज की लोकप्रिय अभिनेत्रियों को परखें। करीना कपूर चमेली और ओमकारा में झलक मात्र दे पाई। दोनों ही फिल्मों के निर्देशकों ने उनकी अभिनय क्षमता की सीमाओं का खयाल रखते हुए किरदार को अधिक गहराई नहीं दी। जब वी मेट में करीना की बहुत तारीफ हो रही है, लेकिन यह किरदार अपने चुलबुलेपन के कारण ज्यादा पसंद किया गया। इंटरवल के बाद बगैर मेकअप की करीना को देख कर दर्शक हंस रहे थे। उनकी बड़ी बहन करिश्मा कपूर को फिजा और जुबैदा में लगभग इसी तरह की चुनौती मिली थी। हालांकि उन्होंने मेहनत भी की, किंतु अनुभव और अभिनय की अपनी सीमाओं के कारण वे दर्शकों को प्रभावित करने में असफल रहीं। डोर फिल्म के रोल के लिए आयशा टाकिया को काफी तारीफ मिली, लेकिन घाघरा पहनी औरत उस गति और मुद्रा में भाग ही नहीं सकती। आयशा का दौड़ना वास्तव में जींस पहनने वाली लड़की का दौड़ना है। उनके बैठने-उठने में भी गंवई टच नहीं था। आज की अभिनेत्रियां बॉडी लैंग्वेज की बातें तो करती हैं, लेकिन उनके अभिनय में किरदार के हिसाब से बॉडी लैंग्वेज में बदलाव नहीं दिखता। यही कारण है कि वे गंभीर और गहरी भूमिकाओं के लिए उपयुक्त नहीं लगतीं।
किरदार के हिसाब से बॉडी लैंग्वेज का बदलाव देखना हो, तो हाल ही में आई संजय गुप्ता की फिल्म दस कहानियां में रोहित राय निर्देशित राइस प्लेट कहानी देखें। दक्षिण भारतीय बुजुर्ग महिला के किरदार को शबाना आजमी ने बड़ी खूबसूरती से आत्मसात किया है। शबाना को उस चरित्र में देखकर लगा था जैसे वे उस किरदार में ढल गई। आज की अभिनेत्रियों की एक बड़ी समस्या भाषा भी है। फिर यह सब यों ही नहीं आते! इसके लिए अभिनय की तालीम जरूरी है।
Comments
फिल्म से संबंधित ब्लाग का लेआउट कम से कम ऐसा तो नहीं होना चाहिए.
एक पाठक होने के नाते यह सुझाव दे रहा हूं.