प्रकाश झा से अजय ब्रह्मात्मज की बातचीत-2

पिछले से आगे...

डॉक्यूमेंट्री फिल्मों का यह रुझान तात्कालिक ही लगता है, क्योंकि आप फीचर फिल्मों की तरफ उन्मुख थे?

उन दिनों फीचर फिल्म कोई दे नहीं रहा था। डॉक्यूमेंट्री में कम लागत और कम समय में कुछ कर दिखाने का मौका मिल जाता था। 1975 से 1980.81 तक मैं डॉक्यूमेंट्री फिल्में बनाता रहा और सैर करता रहा। यहां फिल्में बनाता था। और पैसे जमा कर कभी इंग्लैंड, कभी जर्मनी तो कभी फ्रांस घूम आता था। विदेशों में जाकर थोड़ा काम कर आता था। कह सकते हैं कि छुटपुटिया काम ही करता रहा। 1979 में बैले डांसर फिरोजा लाली ... । उनके साथ वाक्या ये हुआ था कि वे बोलशेवे तक चली गई थीं। रॉयल एकेडमी में सीखा उन्होंने सिंगापुर में भी रहीं, लेकिन कभी लाइमलाइट में नहीं रहीं। उनके पिता पूरी तरह समर्पित थे बेटी के प्रति। मुझे बाप-बेटी की एक अच्छी कहानी हाथ लगी। मैंने उन पर डॉक्यूमेट्री शुरू कर दी। उसी सिलसिले में मुझे रूस जाना पड़ा। रूस में बोलवेशे से उनके कुछ फुटेज निकालने थे। फिर लंदन चला गया। उनकी फिल्म पूरी करने के लिए। उसमें मुझे काफी लंबा समय लग गया। थोड़ी लंबी डॉक्यूमेंट्री थी। पैसों की दिक्कत थी। इधर-उधर से पैसे जमा किए थे। रूस और लंदन का वह प्रवास मेरे लिए महत्वपूर्ण रहा। उन चार-पांच सालों में लंदन में मीडिया का एक्सपोजर मिला। डॉक्यूमेंट्री और यथार्थवादी सिनेमा के प्रति अप्रोच मिला। अचानक लगा कि किसी ने झकझोर कर जगा दिया हो। मुझे लगा कि मैं कुछ खास नहीं कर रहा हूं। फिल्में तो ऐसे बननी चाहिए। 1980 का साल मेरे लिए आत्ममंथन का साल रहा। मेंने खुद को खोजा। फिल्ममेकर के तौर पर मेरे अंदर बड़ा परिवर्तन आ गया। बाद के वर्षों में मेरी फिल्मों में यथार्थ का जो नाटकीय चित्रण दिखता है, वह वहीं से आया। 1980 के अंत या 81 के आरंभ में वह डॉक्यूमेंट्री पूरी हो गई थी। 50 मिनट की बनी थी वह फिल्म। उसका शीर्षक रखा मैंने 'बा द दा' यानी 'डांस बाई टू' बाप- बेटी की कहानी। 'बा द दा' बैले डांस का एक आयटम भी होता है।

और बिहारशरीफ के दंगों पर आपने कब फिल्म बनाई?
वहीं आ रहा हूं। जब मैं लंदन से लौटने की तैयारी कर रहा था उन्हीं दिनों बिहारशरीफ में दंगे भड़के। दंगों की खबर मुझे लंदन में ही मिल गई थीं। मार्च का महीना था। मैं वहां से चलने ही वाला था। बीबीसी पर न्यूज दिखा कि 'इन द हिंदू स्टेट ऑफ बिहार मुस्लिम आर बूचर्ड'। मुझे उस खबर से धक्का लगा। दंगा काफी जोर फैला था। बहुत सारे मुसलमान मारे भी गए थे। चार दिनों तक नरसंहार चला था। मंबई में लैंड करते ही मैं सीधे फिल्म्स डिवीजन गया। उस समय थापा साहब चीफ प्रोड्यूसर होते थे... एन एस थापा। थापा साहब देख कर बड़े खुश हुए। मैंने उनसे कहा कि अभी-अभी लंदन से लौटा हूं। मुझे एक यूनिट दे दीजिए, मैं फौरन बिहारशरीफ जाना चाहता हूं। यूनिट का मतलब होता है कैमरा, साउंड रिकॉर्डिस्ट आदि। मैं ट्रेन में बैठकर बिहारशरीफ जाना चाहता हूं।

इस बीच परिवार से संपर्क रहा कि नहीं।। क्या परिवार के समर्थन के अभाव में कभी कोई दिक्कत नहीं हुई?
मेरी डॉक्यूमेंट्री 1975 में आ गई थी। उन दिनों मेरे पिताजी मोतिहारी में रहते थे। मां और पिताजी वहीं सिनेमा देखने गए और उन्होंने मेरी फिल्म देखी। पहले फिल्म शुरू होने के पहले फिल्म्स डिवीजन की फिल्में दिखाई जाती थीं। उन्होने फिल्म देखी तो सन्नाटे में आ गए। मां तो रोने लगी। उसने पिताजी से कहा कि अभी मुंबई चलिए। मैंने 1975 के अंत 1976 की शुरुआत की है। जुहू में पेइंग गेस्ट रहता था। मां से मेरा प़त्राचार था। पिताजी से कोई बात नहीं होती थी। दोनों अचानक आ गए। उनके यहां आने के बाद पिताजी से बातें हुईं बराबरी के स्तर पर ... आज तक वैसी ही है। दोनों हफ्ते भर यहां रहे। बड़ा अच्छा रहा। मैंने उन्हें मुंबई दर्शन कराया। उन दिनों के बारे में सोचने पर आज भी इमोशनल हो जाता हूं। मां और पिता जी के साथ उस एक हफ्ते की बातचीत और फिर मेरे प्रति उनका वास्तविक कंसर्न समझ कर अने पर गुस्सा भी आया।

डायरेक्टर प्रकाश झा का निर्माण काल या तैयारी में लगभग आठ-नौ साल लगे?
मैं 1975 से 1981 तक के समय को ज्यादा महत्वपूर्ण समझता हूं। इस पीरियड में लगातार घूमता और सीखता रहा। फिल्ममेकिंग सीखने के बाद एक स्वतंत्र नजरिया बना। हर चीज को एक खास ढंग से देखने का सलीका आया। इस पीरियड ने मुझे ठोस जमीन दी। फर्म किया। इसकी वजह से मैं जीवन और काम में निर्भयी बना। बिहारशरीफ के दंगों पर बनाई डॉक्यूमेंट्री फिल्म ने मुझे एक रियलिस्ट अप्रोच दिया। 1975 के पहले का काम अनगढ़ है और उसे मैं 'मेक टू ऑर्डर' फिल्में कहूंगा। उनमें कोई खास बात नहीं थी।

कह सकते हैं कि बिहारशरीफ के दंगों पर बनी फिल्म ने आपकी दिशा बदल दी। रियलिस्ट फिल्मांकन के प्रभाव को आपने समझा और शायद वहीं से फिल्म के लिए प्ररित हुए हों?
1975 से पहले मैंने जो सीखा था... उसका मैंने इस्तेमाल किया। वह फिल्म डायरेक्ट और हार्ड हिटिंग थी। आप अभी उस फिल्म को देखें तो पता चलेगा, तब तब दंगे समाप्त हो गए थे। तनाव बना हुआ था। मैंने दंगे से प्रभावित लोगों से बातें की... जहां दंगा हुआ था वहां। मतलब दंगे के बाद के सन्नाटे में डरे हुए चेहरे... उनकी बोलती आंखें। जेल में जाकर बातें की। रिफ्यूजी कैंप में लोगों से मिला। उन सभी के साथ क्या हुआ, कैसे हुआ... सब कुछ रिकॉर्ड किया। वहां स्पेशल मजिस्ट्रेट वी एस दूबे थे। वे झारखंड के चीफ सेक्रेटरी होकर रिटायर किए। उनसे मिला। उन्होंने पूरी इजाजत दी कि जिससे मर्जी हो... जाकर मिलें। कुछ नहीं छिपाना है। उन से काफी बल मिला। उस फिल्म को मैंने शैवाल की की एक कविता से खत्म किया थां धर्मयुग में छपी उनकी कविता का उपयोग उनकी अनुमित से किया। बाद में उनकी कहानी पर ही मैंने 'दामुल' बनाई। बहरहाल, फिल्म जमा हुई। फिल्म्स डिवीजन के एडवाइजरी बोर्ड ने फिल्म देखी। उस बोर्ड के चैयरमैन हृषीकेष मुखर्जी थे। फिल्म देखकर वे तमसाए हुए बाहर निकले और पूछा, 'किसने बनाई है यह फिल्म?' लोगों ने मेरी तरफ इंगित किया तो वे मुझे पकड़कर रोने लगे। उन्होंने बहुत तारीफ की। उस फिल्म का प्रदर्शित किया गया, लेकिन चार दिनों में प्रतिबंधित हो गई। चार दिनो में सारे प्रिंट वापस ले लिए गए। बाद में उस साल उस फिल्म को सर्वोत्तम डॉक्यूमेंट्री का नेशनल अवार्ड मिला।
बाकी है अभी ...

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