...और कितने देवदास


-अजय ब्रह्मात्मज
शरत चंद्र चंट्टोपाध्याय की पुस्तक देवदास 1917 में प्रकाशित हुई थी। उनकी यह रचना भले ही बंगला और विश्व साहित्य की सौ महान कृतियों में स्थान नहीं रखती हो, लेकिन फिल्मों में उसके बार-बार के रूपांतर से ऐसा लगता है कि मूल उपन्यास और उसके किरदारों में ऐसे कुछ लोकप्रिय तत्व हैं, जो आम दर्शकों को रोचक लगते हैं। दर्शकों का यह आकर्षण ही निर्देशकों को देवदास को फिर से प्रस्तुत करने की हिम्मत देता है।
संजय लीला भंसाली ने 2002 में देवदास का निर्देशन किया था। तब लगा था कि भला अब कौन फिर से इस कृति को छूने का जोखिम उठाएगा? हो गया जो होना था।
सन् 2000 के बाद हिंदी सिनेमा और उसके दर्शकों में भारी परिवर्तन आया है। फिल्मों की प्रस्तुति तो बदल ही गई है, अब फिल्मों की देखने की वृति और प्रवृत्ति में भी बदलाव नजर आने लगा है। पिछले आठ सालों में जिस तरह की फिल्में पॉपुलर हो रही हैं, उनके आधार पर कहा जा सकता है कि दुख, अवसाद और हार की कहानियों पर बनी फिल्मों में दर्शकों को कम आनंद आता है। एक समय था कि ऐसी ट्रेजिक फिल्मों को दर्शक पसंद करते थे और दुख भरे गीत गाकर अपना गुबार निकालते थे। एकाध अपवादों को छोड़ दें तो इधर रोमांस, थ्रिलर और कॉमेडी फिल्में ही ज्यादा पसंद की जा रही हैं।
इस परिप्रेक्ष्य में सुधीर मिश्र और अनुराग कश्यप का फिर से देवदास पर आधारित फिल्म की बात सोचना सचमुच हिम्मत और युक्ति की बात है।
अनुराग कश्यप कहते हैं,भारतीय समाज में हम सभी आत्ममंथन और निजी दुख से प्यार करते हैं और दूसरों की सहानुभूति अर्जित करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। यही कारण है कि देवदास का किरदार और उसका विषय हर पीढ़ी के दर्शकों को पसंद आता है। अनुराग आगे बताते हैं, मेरी फिल्म देवदास से प्रेरित है, लेकिन वह आज की कहानी है, इसलिए उसका नाम देव.डी है। मेरा देव पंजाब का आधुनिक युवक है, जो बेहद समझदार और दुनियादारी से परिचित है। अनुराग की फिल्म में अभय देओल , माही, कल्की और दिब्येंदु भट्टाचार्य मुख्य भूमिकाएं निभा रहे हैं।
दूसरी तरफ सुधीर मिश्र अपनी फिल्म देवदास के मूल कथानक को राजनीतिक संदर्भ दे रहे हैं। उन्होंने राजनीतिक बैंक ड्रॉप में देवदास को गढ़ा है। उनकी फिल्म में मां का किरदार महत्वपूर्ण है, जो अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं की थाती देव को सौंपती हैं। एक तरह से मां की मदद के लिए राजनीति में आया देव आखिरकार कैसे राजनीति के पचड़े में फंसता है। यहां नए संबंध बनते हैं, क्योंकि उन संबंधों का राजनीतिक महत्व है। सुधीर मिश्र कहते हैं, मेरी फिल्म की कहानी शरत चंद्र के उपन्यास से अलग है। मैंने अपनी फिल्म में देवदास के स्वभाव को लिया है और उसे आज के संदर्भ में देखने की कोशिश की है।
क्या एक-दूसरे माहौल और समय में भी देवदास वैसे ही रिएक्ट करेगा, जैसे बिमल राय और संजय लीला भंसाली की फिल्मों में करता रहा या शरत चंद्र के उपन्यास में चित्रित हुआ? सुधीर मिश्र की फिल्म में शाइनी आहूजा और चित्रांगदा सिंह मुख्य भूमिकाओं में हैं।
देवदास उपन्यास के अंत में शरत चंद्र ने लिखा था, यदि कभी देवदास सरीखे अभागे, असंयमी और पापी के साथ आपका परिचय हो जाये तो उसके लिए प्रार्थना करना कि और चाहे जो हो, लेकिन उसकी तरह किसी की मृत्यु न हो। शायद सुधीर मिश्र और अनुराग कश्यप दोनों की ही फिल्मों में देवदास की मृत्यु नहीं होगी या उनकी फिल्म शोकांतिका नहीं होगी। यह भी पहली बार होगा कि देवदास पर आधारित इन फिल्मों के किरदार मूल उपन्यास के किरदारों से बिल्कुल अलग और समकालीन होंगे। दोनों ने अपने लिए यह चुनौती पहले ही खत्म कर दी है कि वे मूल के कितने करीब होते हैं?
फिल्म लेखक कमलेश पांडे दोनों युवा निर्देशकों के प्रयास की सराहना करते है और कहते हैं, यह छूट निर्देशकों को मिलनी चाहिए कि वे किरदार को अपनी जरूरत के सांचे में ढाल सकें। बस इतनी सावधानी रखें कि वे शाहरुख खान की अशोक की तरह अशोक को न बदल दें। आज के हिसाब से समसामयिक और सार्थक परिवर्तन का स्वागत होगा। देवदास में आत्मदया का एक भाव है। मुझे नहीं लगता कि आज की पीढ़ी के दर्शकों को यह भाव पसंद आएगा। गौर करें कि देवदास पतित व्यक्ति नहीं है। वह एक विरोध के तहत शराब को हाथ लगाता है। त्याग और विरोध के ऐसे किरदार की प्रासंगिकता इसी से समझ सकते हैं कि सौ सालों के बाद भी वह हमारी स्मृति में ताजा है। देखना रोचक होगा कि सुधीर मिश्र और अनुराग कश्यप के देवदास को दर्शक कितना पसंद करते हैं?

Comments

Anonymous said…
i am waiting for both versions.i am sure that anurag and sudhir will depict devdas differantely.
Udan Tashtari said…
अच्छा है आने दिजिये..देखेंगे.

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