ब्लैक एंड ह्वाइट:दुनिया और भी रंगों में जीती और मुस्कराती है
-अजय ब्रह्मात्मज
चलिए पहले तारीफ करें शोमैन सुभाष घई की। उन्होंने अपनी ही लीक छोड़कर कुछ वास्तविक सी फिल्म बनाई है। आतंकवाद को भावुक दृष्टिकोण से उठाया है। उनकी शैली में खास बदलाव दिखता है, चांदनी चौक की रात और दिन के दृश्यों में उन्होंने दिल्ली को एक अलग रंग में पेश किया है। सुभाष घई की इस कोशिश से दूसरे फार्मूला फिल्मकार भी प्रेरित हों तो अच्छी बात होगी।
नुमैर काजी (अनुराग सिन्हा) नाम का युवक अफगानिस्तान से भारत आता है। वह जेहादी है, उसका मकसद है दिल्ली के लाल किले में बम विस्फोट। उसे चांदनी चौक के निवासी गफ्फार नजीर के गुजरात के दंगों में उजड़ गए भाई के बेटे की पहचान दी गई है। अपने मकसद को पूरा करने के लिए नुमैर के पास हैं महज 15 दिन। दिल्ली में उसकी मदद के लिए कई लोगों का इंतजाम किया जाता है।
नुमैर काजी की मुलाकात उर्दू के प्रोफेसर राजन माथुर (अनिल कपूर) से हो जाती है। राजन को नुमैर से सहानुभूति होती है। नुमैर सहानुभूति का फायदा उठाता है और उनके दिल और घर दोनों में अपनी जगह बना लेता है। उन्हीं के साथ रहने लगता है। राजन माथुर की फायरब्रांड बीवी रोमा (शेफाली शाह) पहले उसे पसंद नहीं करती, लेकिन एक आतंकवादी हमले में नुमैर उनकी बेटी को बचाता है तो उनका दिल भी पसीज जाता है। नुमैर माथुर दंपति की मदद से लाल किले का एंट्री पास हासिल कर लेता है। ऐन कार्रवाई से पहले वह अपना इरादा बदलता है। वहां से भाग खड़ा होता है। दिल्ली की पुलिस पीछा करती है और एक सिपाही निशाना भी साधता है, लेकिन तभी राजन माथुर सामने आ जाते हैं। नुमैर बच निकलता है और फिर अपने देश में जाकर राजन माथुर के निर्दोष होने और उनसे प्रभावित होकर आतंकवादी हरकत न करने के आशय का ई-मेल भेजता है। मेल का मजमून होता है-मैं जानता हूं कि आप प्रोफेसर माथुर को जज्बाती समझ कर सजा देंगे, लेकिन मेरी नजरों में प्रोफेसर माथुर एक ऐसा हिंदुस्तानी है, जिसकी आंखों में मैंने हिंदुस्तान देखा है। उसके रंग देखे हैं, जिसने मुझे एक संगीन गुनाह करने से रोका है और बताया है कि दुनिया केवल काले और सफेद रंगों में ही नहीं और भी रंगों में जीती और मुस्कराती है। आज मैं महसूस करता हूं कि अगर मेरे साथ प्रोफेसर माथुर और वे बेकसूर लोग और वे बच्चे मर जाते तो अल्लाह मुझे कभी माफ नहीं करता।
आतंकवादी नुमैर काजी में यह बदलाव राजन माथुर की वजह से आता है। वह अपनी आंखों से देखता है कि कैसे चांदनी चौक के हिंदू, मुसलमान और सिख मिल-जुल कर रहते हैं। सुभाष घई ने आतंकवाद के खिलाफ दिल्ली के चांदनी चौक की तहजीब के उदाहरण से मानवता का मैसेज दिया है। फिल्म के कई दृश्य दिल को छूते और प्रभावित करते हैं। एक तरफ राजन माथुर हैं तो दूसरी तरफ गफ्फार नजीर जैसे शायर भी है, जिनके दिल में हिंदुस्तान धड़कता है। ब्लैक एंड व्हाइट में हबीब तनवीर, अनिल कपूर और शेफाली शाह ने अपने किरदारों को बखूबी निभाया है। हबीब की मौजूदगी और संवाद अदायगी फिल्म को चांदनी चौक का जरूरी टच देती है। अनुभवी अभिनेताओं के बीच अनुराग सिन्हा पूरे आत्मविश्वास से भरे दिखते हैं। उन्होंने नाराज और प्रतिहिंसा में उबल रहे युवक की भूमिका में एंग्री यंग मैन अमिताभ बच्चन की याद दिला दी है।
सुभाष घई विषय की नवीनता और भिन्नता के बावजूद हिंदी फिल्मों के फार्मूले से नहीं बच पाते। उन्होंने पूरी घटना को संयोगों से इतना सरल बना दिया है कि एक गंभीर राजनीतिक और सामाजिक समस्या का फिल्मी निदान हो जाता है। समस्या यह है कि सुभाष घई फिल्म को रोचक और मनोरंजक बनाए रखने के दबाव से नहीं बच पाते और इसी चक्कर में फिल्म अपने उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर पाती। फिल्म टुकड़े-टुकड़े में ही अच्छी लगती है। समेकित प्रभाव की बात करें तो सुभाष घई का प्रयास साधारण साबित होता है।
चलिए पहले तारीफ करें शोमैन सुभाष घई की। उन्होंने अपनी ही लीक छोड़कर कुछ वास्तविक सी फिल्म बनाई है। आतंकवाद को भावुक दृष्टिकोण से उठाया है। उनकी शैली में खास बदलाव दिखता है, चांदनी चौक की रात और दिन के दृश्यों में उन्होंने दिल्ली को एक अलग रंग में पेश किया है। सुभाष घई की इस कोशिश से दूसरे फार्मूला फिल्मकार भी प्रेरित हों तो अच्छी बात होगी।
नुमैर काजी (अनुराग सिन्हा) नाम का युवक अफगानिस्तान से भारत आता है। वह जेहादी है, उसका मकसद है दिल्ली के लाल किले में बम विस्फोट। उसे चांदनी चौक के निवासी गफ्फार नजीर के गुजरात के दंगों में उजड़ गए भाई के बेटे की पहचान दी गई है। अपने मकसद को पूरा करने के लिए नुमैर के पास हैं महज 15 दिन। दिल्ली में उसकी मदद के लिए कई लोगों का इंतजाम किया जाता है।
नुमैर काजी की मुलाकात उर्दू के प्रोफेसर राजन माथुर (अनिल कपूर) से हो जाती है। राजन को नुमैर से सहानुभूति होती है। नुमैर सहानुभूति का फायदा उठाता है और उनके दिल और घर दोनों में अपनी जगह बना लेता है। उन्हीं के साथ रहने लगता है। राजन माथुर की फायरब्रांड बीवी रोमा (शेफाली शाह) पहले उसे पसंद नहीं करती, लेकिन एक आतंकवादी हमले में नुमैर उनकी बेटी को बचाता है तो उनका दिल भी पसीज जाता है। नुमैर माथुर दंपति की मदद से लाल किले का एंट्री पास हासिल कर लेता है। ऐन कार्रवाई से पहले वह अपना इरादा बदलता है। वहां से भाग खड़ा होता है। दिल्ली की पुलिस पीछा करती है और एक सिपाही निशाना भी साधता है, लेकिन तभी राजन माथुर सामने आ जाते हैं। नुमैर बच निकलता है और फिर अपने देश में जाकर राजन माथुर के निर्दोष होने और उनसे प्रभावित होकर आतंकवादी हरकत न करने के आशय का ई-मेल भेजता है। मेल का मजमून होता है-मैं जानता हूं कि आप प्रोफेसर माथुर को जज्बाती समझ कर सजा देंगे, लेकिन मेरी नजरों में प्रोफेसर माथुर एक ऐसा हिंदुस्तानी है, जिसकी आंखों में मैंने हिंदुस्तान देखा है। उसके रंग देखे हैं, जिसने मुझे एक संगीन गुनाह करने से रोका है और बताया है कि दुनिया केवल काले और सफेद रंगों में ही नहीं और भी रंगों में जीती और मुस्कराती है। आज मैं महसूस करता हूं कि अगर मेरे साथ प्रोफेसर माथुर और वे बेकसूर लोग और वे बच्चे मर जाते तो अल्लाह मुझे कभी माफ नहीं करता।
आतंकवादी नुमैर काजी में यह बदलाव राजन माथुर की वजह से आता है। वह अपनी आंखों से देखता है कि कैसे चांदनी चौक के हिंदू, मुसलमान और सिख मिल-जुल कर रहते हैं। सुभाष घई ने आतंकवाद के खिलाफ दिल्ली के चांदनी चौक की तहजीब के उदाहरण से मानवता का मैसेज दिया है। फिल्म के कई दृश्य दिल को छूते और प्रभावित करते हैं। एक तरफ राजन माथुर हैं तो दूसरी तरफ गफ्फार नजीर जैसे शायर भी है, जिनके दिल में हिंदुस्तान धड़कता है। ब्लैक एंड व्हाइट में हबीब तनवीर, अनिल कपूर और शेफाली शाह ने अपने किरदारों को बखूबी निभाया है। हबीब की मौजूदगी और संवाद अदायगी फिल्म को चांदनी चौक का जरूरी टच देती है। अनुभवी अभिनेताओं के बीच अनुराग सिन्हा पूरे आत्मविश्वास से भरे दिखते हैं। उन्होंने नाराज और प्रतिहिंसा में उबल रहे युवक की भूमिका में एंग्री यंग मैन अमिताभ बच्चन की याद दिला दी है।
सुभाष घई विषय की नवीनता और भिन्नता के बावजूद हिंदी फिल्मों के फार्मूले से नहीं बच पाते। उन्होंने पूरी घटना को संयोगों से इतना सरल बना दिया है कि एक गंभीर राजनीतिक और सामाजिक समस्या का फिल्मी निदान हो जाता है। समस्या यह है कि सुभाष घई फिल्म को रोचक और मनोरंजक बनाए रखने के दबाव से नहीं बच पाते और इसी चक्कर में फिल्म अपने उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर पाती। फिल्म टुकड़े-टुकड़े में ही अच्छी लगती है। समेकित प्रभाव की बात करें तो सुभाष घई का प्रयास साधारण साबित होता है।
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