उम्मीदों पर पानी फेरती 26 जुलाई..
-अजय ब्रह्मात्मज
फिल्म का संदर्भ और बैकड्राप सिनेमाघरों में दर्शकों को खींच सकता है। आप पूरी उम्मीद से सिनेमा देखने जा सकते हैं लेकिन, अफसोस कि यह फिल्म सारी उम्मीदों पर पानी फेर देती है। 2005 में मुंबई में आई बाढ़ को यह फिल्म असंगत तरीके से छूती है और उस आपदा के मर्म तक नहीं पहुंच पाती।
घटना 26 जुलाई, 2005 की है। उस दिन मुंबई में बारिश ने भयावह कहर ढाया था। चूंकि घटना ढाई साल ही पुरानी है, इसलिए अभी तक हम सभी की स्मृति में उसके खौफनाक दृश्य ताजा हैं। मुंबई के अंधेरी उपनगर में स्थित एक बरिस्ता आउटलेट में चंद नियमित ग्राहक आते हैं। बाहर वर्षा हो रही है। वह तेज होती है और फिर खबरें आती हैं कि भारी बारिश और बाढ़ के कारण शहर अस्त-व्यस्त हो गया है। टीवी पर चंद फुटेज दिखाए जाते हैं। इसी बरिस्ता में राशि और शिवम भी फंसे हैं। एक फिल्म लेखक हैं। एक सरदार दंपती है। दो-चार अन्य लोगों के साथ बरिस्ता के कर्मचारी हैं। इनके अलावा कुछ और किरदार भी आते हैं। फिल्म में बैंक डकैती, एड्सग्रस्त महिला, खोई हुई बच्ची का प्रसंग आता है। रात भर की कहानी सुबह होने के साथ समाप्त हो जाती है। हम देखते हैं कि राशि और शिवम रात भर की नजदीकी से एक-दूसरे के करीब आ गए हैं।
मोहन शर्मा की अवधारणा बेजोड़ थी, लेकिन फिल्म असंगत और साधारण है। इस फिल्म में बाढ़ की भयावहता के दर्शन नहीं होते। शहर में उस दिन प्रकृति ने जो कहर बरपाया था, उसका अहसास फिल्म नहीं देती। यहां तक कि उस आपदा के प्रभाव से किरदारों के अंदर उठ रहे भावनाओं के उफान को भी निर्देशक चित्रित नहीं कर पाए हैं। कोई बेचैनी, अकुलाहट और अनिश्चितता चरित्रों के चेहरों पर नहीं दिखती। ऐसा लगता है कि चंद घंटों के लिए किसी जगह पर कुछ चरित्र एकत्रित हो गए हैं और समय बिताने के लिए वे एक-दूसरे से बातें कर रहे हैं।
फिल्म के अंत में उस दिन की भयावहता और उससे निबटने में मुंबई के जोश का जिक्र लिख और बोल कर अवश्य किया गया है। काश, यह सब फिल्म में भी दिखाई पड़ता तो फिल्म उल्लेखनीय हो जाती।
फिल्म का संदर्भ और बैकड्राप सिनेमाघरों में दर्शकों को खींच सकता है। आप पूरी उम्मीद से सिनेमा देखने जा सकते हैं लेकिन, अफसोस कि यह फिल्म सारी उम्मीदों पर पानी फेर देती है। 2005 में मुंबई में आई बाढ़ को यह फिल्म असंगत तरीके से छूती है और उस आपदा के मर्म तक नहीं पहुंच पाती।
घटना 26 जुलाई, 2005 की है। उस दिन मुंबई में बारिश ने भयावह कहर ढाया था। चूंकि घटना ढाई साल ही पुरानी है, इसलिए अभी तक हम सभी की स्मृति में उसके खौफनाक दृश्य ताजा हैं। मुंबई के अंधेरी उपनगर में स्थित एक बरिस्ता आउटलेट में चंद नियमित ग्राहक आते हैं। बाहर वर्षा हो रही है। वह तेज होती है और फिर खबरें आती हैं कि भारी बारिश और बाढ़ के कारण शहर अस्त-व्यस्त हो गया है। टीवी पर चंद फुटेज दिखाए जाते हैं। इसी बरिस्ता में राशि और शिवम भी फंसे हैं। एक फिल्म लेखक हैं। एक सरदार दंपती है। दो-चार अन्य लोगों के साथ बरिस्ता के कर्मचारी हैं। इनके अलावा कुछ और किरदार भी आते हैं। फिल्म में बैंक डकैती, एड्सग्रस्त महिला, खोई हुई बच्ची का प्रसंग आता है। रात भर की कहानी सुबह होने के साथ समाप्त हो जाती है। हम देखते हैं कि राशि और शिवम रात भर की नजदीकी से एक-दूसरे के करीब आ गए हैं।
मोहन शर्मा की अवधारणा बेजोड़ थी, लेकिन फिल्म असंगत और साधारण है। इस फिल्म में बाढ़ की भयावहता के दर्शन नहीं होते। शहर में उस दिन प्रकृति ने जो कहर बरपाया था, उसका अहसास फिल्म नहीं देती। यहां तक कि उस आपदा के प्रभाव से किरदारों के अंदर उठ रहे भावनाओं के उफान को भी निर्देशक चित्रित नहीं कर पाए हैं। कोई बेचैनी, अकुलाहट और अनिश्चितता चरित्रों के चेहरों पर नहीं दिखती। ऐसा लगता है कि चंद घंटों के लिए किसी जगह पर कुछ चरित्र एकत्रित हो गए हैं और समय बिताने के लिए वे एक-दूसरे से बातें कर रहे हैं।
फिल्म के अंत में उस दिन की भयावहता और उससे निबटने में मुंबई के जोश का जिक्र लिख और बोल कर अवश्य किया गया है। काश, यह सब फिल्म में भी दिखाई पड़ता तो फिल्म उल्लेखनीय हो जाती।
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