मिथ्या: अधूरे चरित्र, कमजोर पटकथा
-अजय ब्रह्मात्मज
रजत कपूर ने अलग तरह की फिल्में बनाकर एक नाम कमाया है। ऐसा लगने लगा था कि इस दौर में वे कुछ अलग किस्म का सिनेमा कर पा रहे हैं। उनकी ताजा फिल्म मिथ्या इस उम्मीद को कम करती है। इस फिल्म में वे अलग तरीके से हिंदी फिल्मों के फार्मूले के शिकार हो गए है। मिथ्या निराश करती है।
वीके एक्टर बनने की ख्वाहिश रखता है। वह कोशिश करता है और किसी प्रकार जूनियर आर्टिस्ट बन पाया है। उसकी मुश्किल तब खड़ी होती है,जब वह मुंबई के एक डॉन राजे सर का हमशक्ल निकल आता है। विरोधी गैंग के लोग उसे अगवा करते हैं और उसे अद्भुत एक्टिंग एसाइनमेंट देते हैं। उसे राजे सर बन जाना है और फिर अगवा किए गैंग का काम करना है। मजबूरी में वह तैयार हो जाता है। इस एक्टिंग की अपनी दिक्कतें हैं। वह किसी तरह इस जंजाल से निकलना चाहता है। इस कोशिश में उससे ऐसी गलतियां होती हैं कि वह दोनों गैंग का टारगेट बन जाता है। और जैसा कि ऐसी स्थिति में होता है। आखिरकार उसे अपनी जान देनी पड़ती है।
हिंदी फिल्मों में हमशक्ल का फार्मूला इतना पुराना और बासी हो गया है कि रजत कपूर उसमें कोई नवीनता नहीं पैदा कर पाते। हमशक्ल की फिल्मों में लॉजिक को ताक पर रखना पड़ता है। इस फिल्म के भी कई प्रसंगों में कार्य-कारण संबंध नहीं बैठ पाते। आश्चर्य होता है कि रजत कपूर जैसे समझदार निर्देशक से ऐसी गलतियां कैसे हो सकती हैं।
यह फिल्म एक स्तर पर अंडरवर्ल्ड पर बनी फिल्मों का मजाक उड़ाती फिल्म लगती है और कभी ब्लैक कॉमेडी का भी एहसास देती है,लेकिन अधूरे चरित्र और कमजोर पटकथा मिथ्या को किसी एक श्रेणी में शामिल नहीं होने देते। अगर कलाकारों के परफार्मेस की बात करें तो रणवीर कपूर ने अपनी भूमिका को सही तरीके से निभाया है। ब्रिजेन्द्र काला छोटी भूमिका में भी प्रभावित करते हैं। विनय पाठक ने इस बार निराश किया है। दरअसल उनके चरित्र को कायदे से विकसित ही नहीं किया गया है।
रजत कपूर ने अलग तरह की फिल्में बनाकर एक नाम कमाया है। ऐसा लगने लगा था कि इस दौर में वे कुछ अलग किस्म का सिनेमा कर पा रहे हैं। उनकी ताजा फिल्म मिथ्या इस उम्मीद को कम करती है। इस फिल्म में वे अलग तरीके से हिंदी फिल्मों के फार्मूले के शिकार हो गए है। मिथ्या निराश करती है।
वीके एक्टर बनने की ख्वाहिश रखता है। वह कोशिश करता है और किसी प्रकार जूनियर आर्टिस्ट बन पाया है। उसकी मुश्किल तब खड़ी होती है,जब वह मुंबई के एक डॉन राजे सर का हमशक्ल निकल आता है। विरोधी गैंग के लोग उसे अगवा करते हैं और उसे अद्भुत एक्टिंग एसाइनमेंट देते हैं। उसे राजे सर बन जाना है और फिर अगवा किए गैंग का काम करना है। मजबूरी में वह तैयार हो जाता है। इस एक्टिंग की अपनी दिक्कतें हैं। वह किसी तरह इस जंजाल से निकलना चाहता है। इस कोशिश में उससे ऐसी गलतियां होती हैं कि वह दोनों गैंग का टारगेट बन जाता है। और जैसा कि ऐसी स्थिति में होता है। आखिरकार उसे अपनी जान देनी पड़ती है।
हिंदी फिल्मों में हमशक्ल का फार्मूला इतना पुराना और बासी हो गया है कि रजत कपूर उसमें कोई नवीनता नहीं पैदा कर पाते। हमशक्ल की फिल्मों में लॉजिक को ताक पर रखना पड़ता है। इस फिल्म के भी कई प्रसंगों में कार्य-कारण संबंध नहीं बैठ पाते। आश्चर्य होता है कि रजत कपूर जैसे समझदार निर्देशक से ऐसी गलतियां कैसे हो सकती हैं।
यह फिल्म एक स्तर पर अंडरवर्ल्ड पर बनी फिल्मों का मजाक उड़ाती फिल्म लगती है और कभी ब्लैक कॉमेडी का भी एहसास देती है,लेकिन अधूरे चरित्र और कमजोर पटकथा मिथ्या को किसी एक श्रेणी में शामिल नहीं होने देते। अगर कलाकारों के परफार्मेस की बात करें तो रणवीर कपूर ने अपनी भूमिका को सही तरीके से निभाया है। ब्रिजेन्द्र काला छोटी भूमिका में भी प्रभावित करते हैं। विनय पाठक ने इस बार निराश किया है। दरअसल उनके चरित्र को कायदे से विकसित ही नहीं किया गया है।
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