दोषी आप भी हैं आशुतोष...
पिछले शुक्रवार से ही यह ड्रामा चल रहा है.शनिवार की शाम में पत्रकारों को बुला कर आशुतोष गोवारिकर ने सफ़ाई दी और अपना पक्ष रखा.ये सारी बातें वे पहले भी कर सकते थे और ज्यादा जोरदार तरीके से गलतफहमियाँ दूर कर सकते थे.जोधा अकबर को नुकसान पहुँचने के दोषी आशुतोष गोवारिकर भी हैं.उनका साथ दिया है फ़िल्म के निर्माता रोनी स्क्रूवाला ने...जी हाँ निर्देशक-निर्माता फ़िल्म के माता-पिता होते हैं,लेकिन कई बार सही परवरिश के बावजूद वे ख़ुद ही संतान का अनिष्ट कर देते हैं.जोधा अकबर के साथ यही हुआ है।
मालूम था कि जोधा अकबर में जोधा के नाम को लेकर विवाद हो सकता है.आशुतोष चाहते तो फौरी कार्रवाई कर सकते थे.समय रहते वे अपना पक्ष स्पष्ट कर सकते थे.कहीं उनके दिमाग में किसी ने यह बात तो नहीं भर दी थी कि विवाद होने दो,क्योंकि विवाद से फ़िल्म को फायदा होता है.जोधा अकबर को लेकर चल रह विवाद निरर्थक और निराधार है.लोकतंत्र में विरोध और बहस करने की छूट है,लेकिन उसका मतलब यह नहीं है कि आप तमाम दर्शकों को फ़िल्म देखने से वंचित कर दें।
सरकार को इस दिशा में सोचना चाहिए कि सेंसर हो चुकी फ़िल्म का प्रदर्शन सही तरीके से हो.इस प्रकार की सुपर सेंसरशिप तत्काल बंद होनी चाहिए.हमलोग किस व्यवस्था में रह रहे हैं?जहाँ मनोरंजन को लोकतंत्र का सहयोग नहीं मिल पा रहा है.कभी गुजरात,कभी राजस्थान तो कभी बिहार में किसी व्यक्ति,समूह और समुदाय को आपत्ति होती है और फ़िल्म का प्रदर्शन रूक जाता है.ऐसी ज्यादतियों से निबटने का कोई रास्ता तो होना चाहिए।
और आशुतोष एवं रोनी से एक और सवाल...आख़िर शुक्रवार के पहले ही मल्टीप्लेक्स मालिकों से कोई समझौता क्यों नहीं हो पाया?देश के ढेर सारे दर्शक पहले दिन ही फ़िल्म देखने का उत्साह और जोश रखते हैं.उनके इस उत्साह और जोश से भी फ़िल्म की लोकप्रियता बढ़ती है.इस बार शुक्रवार को जोधा अकबर पीवीआर के अलावा किसी और मल्टीप्लेक्स में रिलीज ही नहीं हो सकी।
और फिर फ़िल्म के फ्लॉप होने की अफवाह फिलाने वाले कौन लोग हैं?जोधा अकबर को दर्शकों का समर्थन मिल रहा है,लेकिन देखने के बाद.ढेर सारे दर्शकों को कुप्रचार से फ़िल्म के विमुख किया जा रहा है.इस कुप्रचार में अंग्रेजी मीडिया और पत्रकार शामिल हैं.यह एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जो फिल्मों की भारतीय परम्परा को नष्ट करने पर तुली है और आयातित विचार,शैली और प्रभाव को ही श्रेष्ठ ठहरा रही है.चवन्नी को बाहरी प्रभाव से परहेज नहीं है,लेकिन अपनी जातीय परम्परा छोड़ने की जरूरत क्या है?हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री पर गौर करें तो इन दिनों ऐसे फिल्मकार ज्यादा सक्रिय और मुखर हैं,जिनका भारतीय ज्ञान सिफर है.
मालूम था कि जोधा अकबर में जोधा के नाम को लेकर विवाद हो सकता है.आशुतोष चाहते तो फौरी कार्रवाई कर सकते थे.समय रहते वे अपना पक्ष स्पष्ट कर सकते थे.कहीं उनके दिमाग में किसी ने यह बात तो नहीं भर दी थी कि विवाद होने दो,क्योंकि विवाद से फ़िल्म को फायदा होता है.जोधा अकबर को लेकर चल रह विवाद निरर्थक और निराधार है.लोकतंत्र में विरोध और बहस करने की छूट है,लेकिन उसका मतलब यह नहीं है कि आप तमाम दर्शकों को फ़िल्म देखने से वंचित कर दें।
सरकार को इस दिशा में सोचना चाहिए कि सेंसर हो चुकी फ़िल्म का प्रदर्शन सही तरीके से हो.इस प्रकार की सुपर सेंसरशिप तत्काल बंद होनी चाहिए.हमलोग किस व्यवस्था में रह रहे हैं?जहाँ मनोरंजन को लोकतंत्र का सहयोग नहीं मिल पा रहा है.कभी गुजरात,कभी राजस्थान तो कभी बिहार में किसी व्यक्ति,समूह और समुदाय को आपत्ति होती है और फ़िल्म का प्रदर्शन रूक जाता है.ऐसी ज्यादतियों से निबटने का कोई रास्ता तो होना चाहिए।
और आशुतोष एवं रोनी से एक और सवाल...आख़िर शुक्रवार के पहले ही मल्टीप्लेक्स मालिकों से कोई समझौता क्यों नहीं हो पाया?देश के ढेर सारे दर्शक पहले दिन ही फ़िल्म देखने का उत्साह और जोश रखते हैं.उनके इस उत्साह और जोश से भी फ़िल्म की लोकप्रियता बढ़ती है.इस बार शुक्रवार को जोधा अकबर पीवीआर के अलावा किसी और मल्टीप्लेक्स में रिलीज ही नहीं हो सकी।
और फिर फ़िल्म के फ्लॉप होने की अफवाह फिलाने वाले कौन लोग हैं?जोधा अकबर को दर्शकों का समर्थन मिल रहा है,लेकिन देखने के बाद.ढेर सारे दर्शकों को कुप्रचार से फ़िल्म के विमुख किया जा रहा है.इस कुप्रचार में अंग्रेजी मीडिया और पत्रकार शामिल हैं.यह एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जो फिल्मों की भारतीय परम्परा को नष्ट करने पर तुली है और आयातित विचार,शैली और प्रभाव को ही श्रेष्ठ ठहरा रही है.चवन्नी को बाहरी प्रभाव से परहेज नहीं है,लेकिन अपनी जातीय परम्परा छोड़ने की जरूरत क्या है?हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री पर गौर करें तो इन दिनों ऐसे फिल्मकार ज्यादा सक्रिय और मुखर हैं,जिनका भारतीय ज्ञान सिफर है.
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आपने सही फरमाया, इसी मुद्दे पर आज वीर संघवी ने भी मिडीया को गरियाते हुऐ ये लिखा है