ठीक रिलीज के पहले यह खेल क्यों?



-अजय ब्रह्मात्मज

पंद्रह फरवरी को जोधा अकबर देश भर में फैले मल्टीप्लेक्स के चैनलों में से केवल पीवीआर में रिलीज हो पाई। बाकी मल्टीप्लेक्स में यह फिल्म रिलीज नहीं हो सकी। मल्टीप्लेक्स के नियमित दर्शकों को परेशानी हुई। खासकर पहले दिन ही फिल्म देखने के शौकीन दर्शकों का रोमांच कम हो गया। उन्हें भटकना पड़ा और सिंगल स्क्रीन की शरण लेनी पड़ी। निर्माता और मल्टीप्लेक्स मालिकों के बार-बार के इस द्वंद्व में दर्शकों का आरंभिक उत्साह वैसे ही दब जाता है। वैसे भी फिल्म बिजनेस से जुड़े लोग यह जानते ही हैं कि पहले दिन के कलेक्शन और सिनेमाघरों से निकली प्रतिक्रिया का बड़ा महत्व होता है।


याद करें, तो इसकी शुरुआत यश चोपड़ा की फिल्म फना से हुई थी। उस फिल्म की रिलीज के समय मल्टीप्लेक्स का लाभ बांटने के मुद्दे पर विवाद हुआ था। फना बड़ी फिल्म थी, उसमें एक तो आमिर खान थे और दूसरे काजोल की वापसी हो रही थी, इसलिए संभावित बिजनेस को लेकर यशराज फिल्म्स ने अपना हिस्सा बढ़ाने की बात कही। हालांकि उस दौरान ठीक समय पर समझौता हो गया और 60-40 प्रतिशत के अनुपात में सहमति भी हो गई। मल्टीप्लेक्स मालिकों ने पहली बार दबाव महसूस जरूर किया, लेकिन वे यशराज फिल्म्स के साथ कोई बिगाड़ नहीं कर सकते थे।


दबाव के इस खेल के पीछे की सच्चाई यह है कि बड़े बैनर मल्टीप्लेक्स की भारी कमाई की हिस्सेदारी चाहते हैं, जबकि कोई बड़ी फिल्म रिलीज होती है, तो मल्टीप्लेक्स में उसके शो बढ़ जाते हैं। नए-नए खुले मल्टीप्लेक्स को प्रादेशिक सरकारों से राजस्व में विशेष तरह की छूटें भी मिली हुई हैं। नतीजतन उनका मुनाफा निर्माताओं और वितरकों को खटकने लगता है। हालांकि वही निर्माता और वितरक फिल्म फ्लॉप होने पर मल्टीप्लेक्स मालिकों के नुकसान से विचलित नहीं होते।


लोभ मल्टीप्लेक्स मालिकों के मन में भी रहता है। वे भी चाहते हैं कि बड़ी और पॉपुलर फिल्मों से ज्यादा कमाई कर लें। इन दिनों फिल्मों का व्यापार इतना डांवाडोल हो गया है कि रेगुलर शो जारी रखना भी कई बार भारी पड़ता है। मल्टीप्लेक्स के दर्शकों को भी आदत हो गई है। उन्होंने अपने आसपास के थिएटरों में से कुछ को सुनिश्चित कर लिया है। फुर्सत मिलते ही वे उन मल्टीप्लेक्स में पहुंच जाते हैं। ऐसे नियमित दर्शकों की संतुष्टि के लिए हर हफ्ते नई फिल्मों और बड़ी फिल्मों का पैकेज चाहिए ही। निर्माता-वितरक और मल्टीप्लेक्स दोनों पक्ष की मजबूरी है कि वे एक-दूसरे का सहयोग करें।


जोधा अकबर का उदाहरण लें, तो इस बार एक दिन के बाद 50-50 प्रतिशत के अनुपात में लाभ बांटने पर रजामंदी हुई, लेकिन एक दिन का पूरा व्यापार मारा गया और इसका सीधा नुकसान निर्माता और वितरकों को ही हुआ। हालांकि मल्टीप्लेक्स वाले जोधा अकबर नहीं, तो कोई और फिल्म दिखाते रहे। भले ही दर्शकों की संख्या घट गई हो, लेकिन वे इसे जारी नहीं रख सके। आखिरकार दबाव में आकर उन्होंने निर्माताओं का शेयर बढ़ाया। इस गफलत में दर्शकों को बेहद तकलीफ होती है, इसलिए क्या ऐसा नहीं हो सकता कि समय रहते ही कोई समझौता हो जाए, क्योंकि जब मालूम है कि अगली फिल्म बड़ी है और उसे देखने के लिए ज्यादा दर्शक आ सकते हैं, तो निर्माताओं और मल्टीप्लेक्स मालिकों को थोड़ा पहले से ही बातचीत आरंभ कर देनी चाहिए। दरअसल, दोनों पक्ष दबाव का खेल खेलते हैं और यह मानकर चलते हैं कि दूसरा पक्ष मान जाएगा। हालांकि अंत तक मल्टीप्लेक्स के मालिक मुनाफे का अनुपात बढ़ाने के मूड में नहीं रहते। वैसे, अभी तक के सभी प्रसंगों में देखा गया है कि आखिर में निर्माता जीतते हैं और इसीलिए उन्होंने अपना शेयर 40 प्रतिशत से बढ़ाकर 50 प्रतिशत तक ला दिया है। बेहतर होगा कि हर फिल्म के हिसाब से शेयरिंग का प्रतिशत पहले से सुनिश्चित कर लिया जाए, ताकि दर्शक पहले दिन फिल्म देखने से वंचित न रहें!

Comments

Anonymous said…
अजय ब्रह्मात्मज जी, फिल्म वितरण के बारे में भी एक दो लेख क्यों नहीं लिखते? इंडी फिल्म वाले अपनी फिल्म कैसे रिलीज करते हैं. कुछ अन्दर की बातें भी तो बताईये जनाब.
Anonymous said…
जरूर...जल्दी ही पूरी जानकारी आप यहां पढ़ सकेंगे.आप के अज्ञात रहने से मुझे कोई दिक्कत नहीं है,पर नाम-पता रहता तो कुछ और बात होती.

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