उल्लेखनीय और दर्शनीय है जोधा अकबर
-अजय ब्रह्मात्मज
हिदायत-मोबाइल फोन बंद कर दें, सांसें थाम लें, कान खुले रखें और पलकें न झुकने दें। जोधा अकबर देखने के लिए जरूरी है कि आप दिल-ओ-दिमाग से सिनेमाघर में हों और एकटक आपकी नजर पर्दे पर हो।
सचमुच लंबे अर्से में इतना भव्य, इस कदर आकर्षक, गहरी अनुभूति का प्रेम, रिश्तों की ऐसी रेशेदारी और ऐतिहासिक तथ्यों पर गढ़ी कोई फिल्म आपने नहीं देखी होगी। यह फिल्म आपकी पूरी तवज्जो चाहती है। इस धारणा को मस्तिष्क से निकाल दें कि फिल्मों का लंबा होना कोई दुर्गुण है। जोधा अकबर भरपूर मनोरंजन प्रदान करती है। आपको मौका नहीं देती कि आप विचलित हों और अपनी घड़ी देखने लगें।
जैसा कि अमिताभ बच्चन ने फिल्म के अंत में कहा है- यह कहानी है जोधा अकबर की। इनकी मोहब्बत की मिसाल नहीं दी जाती और न ही इनके प्यार को याद किया जाता है। शायद इसलिए कि इतिहास ने उन्हें महत्व ही नहीं दिया। जबकि सच तो यह है कि जोधा अकबर ने एक साथ मिल कर चुपचाप इतिहास बनाया है।
इसी इतिहास के कुछ पन्नों से जोधा अकबर वाकिफ कराती है। मुगल सल्तनत के शहंशाह अकबर और राजपूत राजकुमारी जोधा की प्रेमकहानी शादी की रजामंदी के बाद आरंभ होती है। आशुतोष गोवारीकर आरंभ के बीस मिनट सारे कैरेक्टर को स्थापित करने में बिताते हैं। युद्ध के मैदान में बड़े हो रहे अकबर को हम देखते हैं। बैरम खां की छत्रछाया में अकबर गद्दीनशीं होते हैं और हेमू के साथ पानीपत की निर्णायक लड़ाई होती है। कहा जाता है कि इस लड़ाई के अंत में अकबर ने हेमू का सिर कलम कर गाजी का खिताब लिया था, लेकिन आशुतोष गोवारीकर के अकबर ऐसा करने से मना कर देते हैं। दरअसल आशुतोष के अकबर धर्मनिरपेक्ष, सहिष्णु और प्रजाहितैषी अकबर हैं। आशुतोष ने अकबर से फिल्म के अंत में कहलवा भी दिया है- यह बात भी आप सब पर रोशन रहे कि हर मजहब के एहतराम और बर्दाश्त करने की चाहत ही आने वाले हिंदुस्तान को सुनहरा बना सकती है। अकबर की यह ख्वाहिश आज के हिंदुस्तान के लिए भी प्रासंगिक है। दुर्भाग्य की बात है कि ऐसी फिल्म को लेकर निरर्थक विवाद चल रहा है और राजस्थान के दर्शक इसे नहीं देख पा रहे हैं।
फिल्म में एक प्रसंग आता है, जब अकबर तीर्थयात्रा महसूल समाप्त करने की घोषणा करते हैं। सवाल उठता है कि शाही खजाने में महसूल खत्म करने से जो कमी आएगी, उसे कैसे भरा जाएगा? अकबर का जवाब होता है- शाही खजाना है क्या? हम मुगल अफगान या दूसरे गैरमुल्कियों की तरह लुटेरे नहीं हैं, जो हिंदुस्तान की दौलत लूट कर खजाना भरने की हवस से भरे रहे। यह हमारा मुल्क है और हम इसके जिस्म पर लूट के जख्म नहीं देख सकते। और इसके लिए हमें अपनी अवाम को उनका मजहब देखे बगैर सीने से लगाना है। गौर करें कि आशुतोष केवल जोधा और अकबर की प्रेमकहानी नहीं दिखा रहे हैं। वे 450 साल के पहले के इतिहास के पन्नों को पलट कर कुछ और भी बताना चाह रहे हैं। क्या हमारे शासक सुन और देख पा रहे हैं?
अकबर के व्यक्तित्व के निर्माण में जोधा की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भूमिका को भी फिल्म रेखांकित करती है। कहानी के द्वंद्व को जोधा की दो शर्तो से समझा जा सकता है। इन शर्तो में ही भविष्य के अकबर की सोच की बुनियाद पड़ती है। जोधा की मांग है- हमारी पहली मांग है कि हमें अपने धर्म, अपनी आस्था और रहन-सहन बनाए रखने की पूरी स्वतंत्रता दी जाएगी। किसी हालत में अपना धर्म बदलने को विवश नहीं किया जाएगा। दूसरी मांग हमें अपने प्रभु की मूरत साथ लाने दी जाएगी। इसे बिठाने को महल के हमारे कक्ष में एक मंदिर की स्थापना करायी जाएगी। ये हैं हमारी दो मांगे। अकबर जोधा को अकेले में आश्वासन नहीं देते। वे सार्वजनिक तौर पर कहते हैं- हम राजपूत राजकुमारी के बेखौफ जज्बे की सादगी को सलाम करते हैं। हम उन्हें यह बता दें कि हम भी इसी सरजमीं की पैदाइश हैं, जिस पर वो पैदा हुई हैं और हम भी वही जज्बा रखते हैं। हमारा फैसला है कि आमेर की राजकुमारी का यह रिश्ता हमें मंजूर है। उनकी शर्ते इंशाअल्लाह लब्ज-ब-लब्ज पूरी होंगी।
कह सकते हैं कि शादी की इन दो शर्तो और फिर जोधा की समझदारी ने अकबर की सोच को वह दिशा दी, जिस पर चलते हुए उन्होंने बाद में दीन-ए-इलाही की अवधारणा पेश की। जोधा उन्हें फतह करने और राज करने का फर्क समझाती है और हम कालांतर में देखते हैं कि अकबर कैसे अपनी प्रजा के साथ-साथ जोधा का भी दिल जीतते हैं। यह एक ऐसी प्रेमकहानी है, जिसकी सामाजिकता तत्कालीन राजनीति और सत्ता को भी प्रभावित करती है।
इस प्रेमकहानी की भव्यता को आशुतोष गोवारीकर ने कला निर्देशक नितिन चंद्रकांत देसाई, केमरामैन किरण देवहंस, कोरियोग्राफर चिन्नी ओर रेखा प्रकाश तथा संवाद लेखक के।पी. सक्सेना के सहयोग से हासिल किया है। के.पी. सक्सेना के संवाद सीधे दिल में उतरते हें और मानस को मथते हैं। मुंबई के संवाद लेखक उनसे सीख सकते हैं कि कैसे विभिन्न चरित्रों की भाषा भिन्न रखी जा सकती है। गीतकार जावेद अख्तर और संगीतकार ए आर रहमान विशेष तौर पर उल्लेखनीय हैं। दोनों ने मिलकर फिल्म को उचित सांगीतिक संगत दी है। खासकर फिल्म के दृश्यों के प्रभाव को बढ़ाने में पाश्र्र्व संगीत का सुंदर उपयोग हुआ है। फिल्म का कला ओर शिल्प पक्ष बेहतरीन है।
एक्टिंग के लिहाज से रितिक रोशन सबसे आगे हैं। जिस मेहनत और लगन से उन्होंने अकबर को साकार किया है, वह प्रशंसनीय है। पृथ्वीराज कपूर की कतई याद नहीं आती। ऐश्वर्या राय ने राजपूत राजकुमारी के दर्प और सौंदर्य को अच्छी तरह अभिव्यक्त किया है। यह उनकी एक और यादगार फिल्म हो गई। अन्य कलाकारों में इला अरूण नाटकीय हो गई हैं। पूनम सिन्हा अकबर की मां की भूमिका में जंचती हैं। निकितन धीर पहली ही फिल्म में आकर्षित करते हैं। इस फिल्म की भव्यता में उन सैकड़ों-हजारों अनाम जूनियर आर्टिस्टों का सबसे बड़ा योगदान है, जिन्होंने युद्ध और नृत्य के दृश्यों को विशालता दी है।
अंत में हिंदी फिल्मों की जातीय परंपरा में बनी यह आशुतोष गोवारीकर की जोधा अकबर उल्लेखनीय और दर्शनीय फिल्म है। हमें और भी ऐसी फिल्मों की जरूरत है।
हिदायत-मोबाइल फोन बंद कर दें, सांसें थाम लें, कान खुले रखें और पलकें न झुकने दें। जोधा अकबर देखने के लिए जरूरी है कि आप दिल-ओ-दिमाग से सिनेमाघर में हों और एकटक आपकी नजर पर्दे पर हो।
सचमुच लंबे अर्से में इतना भव्य, इस कदर आकर्षक, गहरी अनुभूति का प्रेम, रिश्तों की ऐसी रेशेदारी और ऐतिहासिक तथ्यों पर गढ़ी कोई फिल्म आपने नहीं देखी होगी। यह फिल्म आपकी पूरी तवज्जो चाहती है। इस धारणा को मस्तिष्क से निकाल दें कि फिल्मों का लंबा होना कोई दुर्गुण है। जोधा अकबर भरपूर मनोरंजन प्रदान करती है। आपको मौका नहीं देती कि आप विचलित हों और अपनी घड़ी देखने लगें।
जैसा कि अमिताभ बच्चन ने फिल्म के अंत में कहा है- यह कहानी है जोधा अकबर की। इनकी मोहब्बत की मिसाल नहीं दी जाती और न ही इनके प्यार को याद किया जाता है। शायद इसलिए कि इतिहास ने उन्हें महत्व ही नहीं दिया। जबकि सच तो यह है कि जोधा अकबर ने एक साथ मिल कर चुपचाप इतिहास बनाया है।
इसी इतिहास के कुछ पन्नों से जोधा अकबर वाकिफ कराती है। मुगल सल्तनत के शहंशाह अकबर और राजपूत राजकुमारी जोधा की प्रेमकहानी शादी की रजामंदी के बाद आरंभ होती है। आशुतोष गोवारीकर आरंभ के बीस मिनट सारे कैरेक्टर को स्थापित करने में बिताते हैं। युद्ध के मैदान में बड़े हो रहे अकबर को हम देखते हैं। बैरम खां की छत्रछाया में अकबर गद्दीनशीं होते हैं और हेमू के साथ पानीपत की निर्णायक लड़ाई होती है। कहा जाता है कि इस लड़ाई के अंत में अकबर ने हेमू का सिर कलम कर गाजी का खिताब लिया था, लेकिन आशुतोष गोवारीकर के अकबर ऐसा करने से मना कर देते हैं। दरअसल आशुतोष के अकबर धर्मनिरपेक्ष, सहिष्णु और प्रजाहितैषी अकबर हैं। आशुतोष ने अकबर से फिल्म के अंत में कहलवा भी दिया है- यह बात भी आप सब पर रोशन रहे कि हर मजहब के एहतराम और बर्दाश्त करने की चाहत ही आने वाले हिंदुस्तान को सुनहरा बना सकती है। अकबर की यह ख्वाहिश आज के हिंदुस्तान के लिए भी प्रासंगिक है। दुर्भाग्य की बात है कि ऐसी फिल्म को लेकर निरर्थक विवाद चल रहा है और राजस्थान के दर्शक इसे नहीं देख पा रहे हैं।
फिल्म में एक प्रसंग आता है, जब अकबर तीर्थयात्रा महसूल समाप्त करने की घोषणा करते हैं। सवाल उठता है कि शाही खजाने में महसूल खत्म करने से जो कमी आएगी, उसे कैसे भरा जाएगा? अकबर का जवाब होता है- शाही खजाना है क्या? हम मुगल अफगान या दूसरे गैरमुल्कियों की तरह लुटेरे नहीं हैं, जो हिंदुस्तान की दौलत लूट कर खजाना भरने की हवस से भरे रहे। यह हमारा मुल्क है और हम इसके जिस्म पर लूट के जख्म नहीं देख सकते। और इसके लिए हमें अपनी अवाम को उनका मजहब देखे बगैर सीने से लगाना है। गौर करें कि आशुतोष केवल जोधा और अकबर की प्रेमकहानी नहीं दिखा रहे हैं। वे 450 साल के पहले के इतिहास के पन्नों को पलट कर कुछ और भी बताना चाह रहे हैं। क्या हमारे शासक सुन और देख पा रहे हैं?
अकबर के व्यक्तित्व के निर्माण में जोधा की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भूमिका को भी फिल्म रेखांकित करती है। कहानी के द्वंद्व को जोधा की दो शर्तो से समझा जा सकता है। इन शर्तो में ही भविष्य के अकबर की सोच की बुनियाद पड़ती है। जोधा की मांग है- हमारी पहली मांग है कि हमें अपने धर्म, अपनी आस्था और रहन-सहन बनाए रखने की पूरी स्वतंत्रता दी जाएगी। किसी हालत में अपना धर्म बदलने को विवश नहीं किया जाएगा। दूसरी मांग हमें अपने प्रभु की मूरत साथ लाने दी जाएगी। इसे बिठाने को महल के हमारे कक्ष में एक मंदिर की स्थापना करायी जाएगी। ये हैं हमारी दो मांगे। अकबर जोधा को अकेले में आश्वासन नहीं देते। वे सार्वजनिक तौर पर कहते हैं- हम राजपूत राजकुमारी के बेखौफ जज्बे की सादगी को सलाम करते हैं। हम उन्हें यह बता दें कि हम भी इसी सरजमीं की पैदाइश हैं, जिस पर वो पैदा हुई हैं और हम भी वही जज्बा रखते हैं। हमारा फैसला है कि आमेर की राजकुमारी का यह रिश्ता हमें मंजूर है। उनकी शर्ते इंशाअल्लाह लब्ज-ब-लब्ज पूरी होंगी।
कह सकते हैं कि शादी की इन दो शर्तो और फिर जोधा की समझदारी ने अकबर की सोच को वह दिशा दी, जिस पर चलते हुए उन्होंने बाद में दीन-ए-इलाही की अवधारणा पेश की। जोधा उन्हें फतह करने और राज करने का फर्क समझाती है और हम कालांतर में देखते हैं कि अकबर कैसे अपनी प्रजा के साथ-साथ जोधा का भी दिल जीतते हैं। यह एक ऐसी प्रेमकहानी है, जिसकी सामाजिकता तत्कालीन राजनीति और सत्ता को भी प्रभावित करती है।
इस प्रेमकहानी की भव्यता को आशुतोष गोवारीकर ने कला निर्देशक नितिन चंद्रकांत देसाई, केमरामैन किरण देवहंस, कोरियोग्राफर चिन्नी ओर रेखा प्रकाश तथा संवाद लेखक के।पी. सक्सेना के सहयोग से हासिल किया है। के.पी. सक्सेना के संवाद सीधे दिल में उतरते हें और मानस को मथते हैं। मुंबई के संवाद लेखक उनसे सीख सकते हैं कि कैसे विभिन्न चरित्रों की भाषा भिन्न रखी जा सकती है। गीतकार जावेद अख्तर और संगीतकार ए आर रहमान विशेष तौर पर उल्लेखनीय हैं। दोनों ने मिलकर फिल्म को उचित सांगीतिक संगत दी है। खासकर फिल्म के दृश्यों के प्रभाव को बढ़ाने में पाश्र्र्व संगीत का सुंदर उपयोग हुआ है। फिल्म का कला ओर शिल्प पक्ष बेहतरीन है।
एक्टिंग के लिहाज से रितिक रोशन सबसे आगे हैं। जिस मेहनत और लगन से उन्होंने अकबर को साकार किया है, वह प्रशंसनीय है। पृथ्वीराज कपूर की कतई याद नहीं आती। ऐश्वर्या राय ने राजपूत राजकुमारी के दर्प और सौंदर्य को अच्छी तरह अभिव्यक्त किया है। यह उनकी एक और यादगार फिल्म हो गई। अन्य कलाकारों में इला अरूण नाटकीय हो गई हैं। पूनम सिन्हा अकबर की मां की भूमिका में जंचती हैं। निकितन धीर पहली ही फिल्म में आकर्षित करते हैं। इस फिल्म की भव्यता में उन सैकड़ों-हजारों अनाम जूनियर आर्टिस्टों का सबसे बड़ा योगदान है, जिन्होंने युद्ध और नृत्य के दृश्यों को विशालता दी है।
अंत में हिंदी फिल्मों की जातीय परंपरा में बनी यह आशुतोष गोवारीकर की जोधा अकबर उल्लेखनीय और दर्शनीय फिल्म है। हमें और भी ऐसी फिल्मों की जरूरत है।
Comments
अब इंतजार करना होगा वीसीडी आने या कहीं दूसरी जगह देखने का।
आपकी सलाह भी माननी होगी, मोबाइल बंद और ध्यान सीधे स्क्रीन पर
खूबसूरत समीक्षा के लिए शुक्रिया
बिकानेर के किल्ले को घूम आयें, वहाँ एक राजपूत रानी की तस्वीर लगी है, अकबर नीचे गिरा प्राणो की भिख माँग रहा है. क्यों? समझ जाईये इतने नादान भी नहीं होंगे :)
वही लोग महान बनते हैं जो अपनी गलतियों से सीखते हैं और आगे बढ़ते हैं लोगों के दिलों में स्थान बनाते हैं। फिर वे चाहे अशोक हों या अकबर।
शुक्रिया!
यह एक ऐसी प्रेम कथा कहती फिल्म है जो शायद कभी हुई ही नहीं.
फिल्म जरूर मेहनत से भव्यतम बनायी होगी, निर्माता बधाई के पात्र है और प्रशंसा के भी. देख आयेंगे, मूड बन ही गया है.
क्या मुगलेआजम की कहानी घटित हुई थी?और फिर लैला-मजनू,शीरी-फरहाद या रोमियो-जूलियट की प्रेमकहानियों का ऐतिहासिक साक्ष्य मिलता है क्या?
Rk