शुरू हो फिल्मों की पढ़ाई

-अजय ब्रह्मात्मज

अब स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी में फिल्मों को पाठ्यक्रम में शामिल करने का वक्त आ गया है। दरअसल, आज फिल्में हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बन गई हैं। हर व्यक्ति फिल्में देखता है और यही वजह है कि फिल्में और उनके स्टार हमारी बातचीत और विमर्श का हिस्सा बन गए हैं। फिल्मों के इस प्रसार और प्रभाव के बावजूद अभी तक सामाजिक स्तर पर फिल्मों के प्रति हमारा रवैया सहज नहीं हो पाया है, क्योंकि इसे एक विषय के तौर पर पाठ्यक्रम में शामिल करने को हम तैयार नहीं हैं। कुछ विश्वविद्यालयों में स्वतंत्र कोर्स या किसी कोर्स के हिस्से के तौर पर सिनेमा की पढ़ाई आरंभ जरूर हो गई है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है।

इन दिनों हर तरह की प्रतियोगिता की परीक्षाओं में सिनेमा से संबंधित सवाल पूछे जाते हैं। इन प्रतियोगी परीक्षाओं के विद्यार्थी अपने सामान्य ज्ञान या उपलब्ध सीमित जानकारियों के आधार पर ही जवाब देते हैं। अभी तक कोई व्यवस्थित पुस्तक या संदर्भ स्रोत नहीं है, जहां से विधिवत और क्रमिक जानकारी ली जा सके। फिल्मों पर आ रही पुस्तकें मुख्य रूप से स्टार या फिल्म पर ही केंद्रित होती हैं, क्योंकि ट्रेंड, इतिहास और प्रवृत्तियों को लेकर पुस्तकें लिखने का चलन नहीं है। प्रकाशक भी हीरोइनों की रसदार जीवनी में रुचि दिखाते हैं। उनसे किसी पीरियड या ट्रेंड पर किताब की बात करें, तो सीधा जवाब होता है कि हिंदी में कौन पढ़ता है ऐसी पुस्तकें? अब सवाल यह उठता है कि पहले पुस्तकें छपेंगी, तभी तो पता चलेगा कि उसके पाठक हैं या नहीं? इधर जरूरत महसूस की जा रही है कि दर्शकों में सिने संस्कार लाने के लिए उन्हें फिल्मों के इतिहास की सही जानकारी दी जाए। फिल्म एप्रिसिएशन के कोर्स छोटी कक्षाओं के लिए भी तैयार किए जाएं, ताकि दर्शकों की रुचि विकसित हो सके।

चूंकि बचपन से हम लोकप्रिय सिनेमा के नाम पर ज्यादातर फूहड़, अश्लील और घटिया फिल्में देखकर आनंदित होते रहते हैं, इसलिए हमारा सिने संस्कार भी वैसा ही हो जाता है। हमें साधारण किस्म की मनोरंजक फिल्में अच्छी लगती हैं। अगर किसी फिल्म में मुद्दे और महत्व की बातें हों, तो हम उन्हें गंभीर का दर्जा देकर किनारे कर देते हैं। बेहतरीन फिल्में सिर्फ आभिजात्य और शिक्षित समूह तक ही सीमित रह जाती हैं। ऐसा मान लिया गया है कि पढ़े-लिखे लोगों का सिनेमा अलग होता है और सिनेमा का आम दर्शक चालू किस्म की फार्मूला फिल्में ही पसंद करता है। इस धारणा को हमारे निर्माता, निर्देशक और स्टार अपनी सुविधा और फायदे के लिए हमेशा पुष्ट करते रहते हैं। निश्चित तौर पर हर दौर में बेहतरीन फिल्मों का प्रतिशत कम रहता है। दर्शकों के बीच फिल्मों का ज्ञान बढ़ाकर अच्छी और खराब फिल्मों का भेद बताकर और सिनेमा की समझ पैदा कर हम दर्शकों को बेहतरीन सिनेमा से जोड़ सकते हैं। अगर देश के विशिष्ट और अविवादित फिल्मी हस्तियों और सार्थक व खूबसूरत फिल्मों से हम उन्हें परिचित कराएं, तो अवश्य फर्क आएगा। सामाजिक जीवन और पाठ्यक्रम में फिल्मों से परहेज कर हम दर्शकों को यथास्थिति में ही रखेंगे। दरअसल.. जरूरत है कि हम फिल्मों को सहेज कर रखें और उसकी शिक्षा दें।

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