बांबे टू बैंकाक की बकवास ट्रिप
-अजय ब्रह्मात्मज
हैदराबाद ब्लू जैसी फिल्म से करियर आरंभ कर हिंदी में इकबाल और डोर जैसी फिल्में निर्देशित कर चुके नागेश कुकनूर आखिरकार हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के कुचक्र के शिकार हो ही गए। अपने सुर से हट कर उन्होंने नई तान छेड़ी और उसमें बुरी तरह से असफल रहे। बांबे टू बैंकाक नागेश की अब तक की सबसे कमजोर फिल्म है।
बावर्ची शंकर सिंह (श्रेयस तलपड़े) रेस्तरां में छूट गए हैंडबैग में मोटी रकम देख कर लालच में आ जाता है। वह पैसे चुरा कर भागता है। गफलत में वह एयरपोर्ट पहुंच जाता है। फिर मौका पाकर बचने के लिए वह बैंकाक जा रहे डाक्टरों के प्रतिनिधि मंडल में शामिल हो जाता है। डॉक्टर भाटवलेकर बन कर बैंकाक पहुंचे शंकर की समस्याएं दोतरफा हैं। एक तो उसे डॉक्टरी का कोई ज्ञान नहीं है और दूसरे पहली नजर में ही उसे एक थाई लड़की जासमीन (लेना) भा जाती है, जो उसकी भाषा नहीं समझती। अनेक गलतफहमियों के बीच दोनों का प्यार पल्लवित होता है। इस फिल्म में एक अलग ट्रैक अंडरवर्ल्ड डान जैम उर्फ जमाल खान (विजय मौर्या) का भी चलता है। शंकर उसी के पैसे लेकर भागा है।
बांबे टू बैंकाक में द्विभाषी संवाद हैं। कभी थाई, कभी हिंदी और टूटी-फूटी अंग्रेजी में बोले गए संवादों का तारतम्य बिठाने में दिक्कत होती है। आंखें फिल्म देख रही होती हैं और दिमाग संवादों को समझने में लगा रहता है। दोनों के बीच तालमेल नहीं बैठने से कोफ्त होती है। बांबे टू बैंकाक की प्रस्तुति के लिए इस शिल्प का चुनाव कर नागेश कुकुनूर ने कॉमेडी को दुरूह बना दिया है। कॉमेडी फिल्मों में शिल्प और कथ्य की सहजता रहती है, जिसे आजकल हमारे कामयाब निर्देशक नानसेंस ड्रामा तक खींच कर ले आए हैं।
बुरी फिल्म में अभिनय की क्या तारीफ की जाए? फिर भी विजय मौर्या का प्रयास उल्लेखनीय है। रैप पसंद करने वाले डान के रूप में वह मुग्ध करते हैं। थाई अभिनेत्री लेना का काम संतोषजनक है। श्रेयस तलपड़े कुछ नया नहीं कर पाए हैं। फिल्म की शुरुआत रोमांचक कॉमेडी की उम्मीद जगाती है, लेकिन बैंकाक पहुंचते ही फिल्म लड़खड़ा जाती है। फिल्म में थाई समाज को करीब से देखने का मौका मिलता है, जहां लड़कियां मसाज पार्लर में काम करने और ग्राहकों को शारीरिक आनंद देने के धंधे को गलत नहीं मानतीं और उनके प्रति परिवार एवं समाज का रवैया भी अपमानजनक नहीं होता।
नागेश समझदार निर्देशक हैं। उनसे ऐसी चूक कैसे हो गई? क्या ज्यादा कामयाबी की तमन्ना और पैसों के प्रलोभन ने उन्हें विचलित कर दिया? बेहतर रहेगा कि वह अपनी तरह की फिल्में बनाते रहें और अगर नई विधा में हाथ आजमाने का प्रयास करें तो उसकी बारीकियां सीख लें। कॉमेडी में चुटीले संवादों का खास महत्व होता है और हास्यास्पद प्रसंग रहते हैं। इनके अभाव में बांबे टू बैंकाक की कॉमेडी सपाट हो गई है।
चवन्नी की सलाह -न देखें.
हैदराबाद ब्लू जैसी फिल्म से करियर आरंभ कर हिंदी में इकबाल और डोर जैसी फिल्में निर्देशित कर चुके नागेश कुकनूर आखिरकार हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के कुचक्र के शिकार हो ही गए। अपने सुर से हट कर उन्होंने नई तान छेड़ी और उसमें बुरी तरह से असफल रहे। बांबे टू बैंकाक नागेश की अब तक की सबसे कमजोर फिल्म है।
बावर्ची शंकर सिंह (श्रेयस तलपड़े) रेस्तरां में छूट गए हैंडबैग में मोटी रकम देख कर लालच में आ जाता है। वह पैसे चुरा कर भागता है। गफलत में वह एयरपोर्ट पहुंच जाता है। फिर मौका पाकर बचने के लिए वह बैंकाक जा रहे डाक्टरों के प्रतिनिधि मंडल में शामिल हो जाता है। डॉक्टर भाटवलेकर बन कर बैंकाक पहुंचे शंकर की समस्याएं दोतरफा हैं। एक तो उसे डॉक्टरी का कोई ज्ञान नहीं है और दूसरे पहली नजर में ही उसे एक थाई लड़की जासमीन (लेना) भा जाती है, जो उसकी भाषा नहीं समझती। अनेक गलतफहमियों के बीच दोनों का प्यार पल्लवित होता है। इस फिल्म में एक अलग ट्रैक अंडरवर्ल्ड डान जैम उर्फ जमाल खान (विजय मौर्या) का भी चलता है। शंकर उसी के पैसे लेकर भागा है।
बांबे टू बैंकाक में द्विभाषी संवाद हैं। कभी थाई, कभी हिंदी और टूटी-फूटी अंग्रेजी में बोले गए संवादों का तारतम्य बिठाने में दिक्कत होती है। आंखें फिल्म देख रही होती हैं और दिमाग संवादों को समझने में लगा रहता है। दोनों के बीच तालमेल नहीं बैठने से कोफ्त होती है। बांबे टू बैंकाक की प्रस्तुति के लिए इस शिल्प का चुनाव कर नागेश कुकुनूर ने कॉमेडी को दुरूह बना दिया है। कॉमेडी फिल्मों में शिल्प और कथ्य की सहजता रहती है, जिसे आजकल हमारे कामयाब निर्देशक नानसेंस ड्रामा तक खींच कर ले आए हैं।
बुरी फिल्म में अभिनय की क्या तारीफ की जाए? फिर भी विजय मौर्या का प्रयास उल्लेखनीय है। रैप पसंद करने वाले डान के रूप में वह मुग्ध करते हैं। थाई अभिनेत्री लेना का काम संतोषजनक है। श्रेयस तलपड़े कुछ नया नहीं कर पाए हैं। फिल्म की शुरुआत रोमांचक कॉमेडी की उम्मीद जगाती है, लेकिन बैंकाक पहुंचते ही फिल्म लड़खड़ा जाती है। फिल्म में थाई समाज को करीब से देखने का मौका मिलता है, जहां लड़कियां मसाज पार्लर में काम करने और ग्राहकों को शारीरिक आनंद देने के धंधे को गलत नहीं मानतीं और उनके प्रति परिवार एवं समाज का रवैया भी अपमानजनक नहीं होता।
नागेश समझदार निर्देशक हैं। उनसे ऐसी चूक कैसे हो गई? क्या ज्यादा कामयाबी की तमन्ना और पैसों के प्रलोभन ने उन्हें विचलित कर दिया? बेहतर रहेगा कि वह अपनी तरह की फिल्में बनाते रहें और अगर नई विधा में हाथ आजमाने का प्रयास करें तो उसकी बारीकियां सीख लें। कॉमेडी में चुटीले संवादों का खास महत्व होता है और हास्यास्पद प्रसंग रहते हैं। इनके अभाव में बांबे टू बैंकाक की कॉमेडी सपाट हो गई है।
चवन्नी की सलाह -न देखें.
Comments