स्ट्रेंजर्स: भूली भटकी स्टाइलिश फिल्म
-अजय ब्रह्मात्मज
क्या सचमुच विदेश में बसे भारतीय वहां के समाज से अलग-थलग रहते हैं? क्या वे मिलते ही हिंदी में बातें करने लगते हैं? विदेश में पूरी तरह से शूट की गई हिंदी फिल्मों से जो तस्वीर बनती है, वह बिल्कुल सच्ची नहीं लगती। आनंद राय की स्ट्रेंजर्स भी ऐसी भूलों का शिकार हुई है।
लंदन पहुंचने वाली एक ट्रेन के फर्स्ट क्लास कूपे में दो भारतीय मूल के यात्री मिलते हैं। दोनों अजनबी हैं। उनकी आपस में बातचीत आरंभ होती है तो पता चलता है कि दोनों ही अपनी-अपनी बीवियों से तंग हैं। किसी भी प्रकार उनसे मुक्ति चाहते हैं। इंटरवल तक दोनों की योजना बनती है कि वो एक-दूसरे की बीवी की हत्या कर देंगे। पहली हत्या होती है और फिर हमें अजनबी व्यक्तियों के बीच अचानक सी लग रही घटना और योजना की असलियत मालूम होती है।
फिल्म में कई सवाल अनुत्तरित हैं। अब पति-पत्नी के बीच तलाक बहुत अनहोनी बात नहीं रही। अगर राहुल और संजीव बीवियों से तंग थे तो उनसे छुटकारा पाने के लिए तलाक ले सकते थे। उन्होंने तलाक का रास्ता न चुन कर उन्हें हलाक करने की क्यों सोची? राहुल और प्रीति या संजीव और नंदिनी के संबंधों में प्रेम नहीं है, लेकिन ऐसी कड़वाहट भी नहीं दिखी कि वह जहर बन जाए। फिल्म के लेखक ने एल्फ्रेड हिचकाक की मूल अंग्रेजी फिल्म से ढांचा तो लिया, लेकिन उसमें भारतीय रंग भरने में विफल रहे। फिल्म में फ्लैश बैक शैली का उपयोग किया गया है, लेकिन अनगढ़ उपयोग से वर्तमान और अतीत आपस में गड्डमड्ड हो गए हैं। हिंदी फिल्मों में फ्लैश बैक का सुंदर उपयोग गुलजार से सीखा जा सकता है। उनकी कई फिल्मों में तो फ्लैश बैक में छिपे एक और फ्लैश बैक का सुंदर सामंजस्य देखा जा सकता है। बहरहाल, कच्ची और अतार्किक कहानी के कारण स्ट्रेंजर्स स्टाइलिश होने के बावजूद अपील नहीं करती। ऐसी साधारण फिल्मों में कलाकार का उत्तम अभिनय भी अनदेखा रह जाता है। सिर्फ रिकार्ड के लिए कह सकते हैं कि नंदना सेन और जिमी शेरगिल ने बेहतरीन अभिनय किया है। केके मेनन की भाव मुद्राएं अब देखी हुई लगती हैं। उन्हें अपने किरदार पर अधिक मेहनत करनी चाहिए थी।
लंदन पहुंचने वाली एक ट्रेन के फर्स्ट क्लास कूपे में दो भारतीय मूल के यात्री मिलते हैं। दोनों अजनबी हैं। उनकी आपस में बातचीत आरंभ होती है तो पता चलता है कि दोनों ही अपनी-अपनी बीवियों से तंग हैं। किसी भी प्रकार उनसे मुक्ति चाहते हैं। इंटरवल तक दोनों की योजना बनती है कि वो एक-दूसरे की बीवी की हत्या कर देंगे। पहली हत्या होती है और फिर हमें अजनबी व्यक्तियों के बीच अचानक सी लग रही घटना और योजना की असलियत मालूम होती है।
फिल्म में कई सवाल अनुत्तरित हैं। अब पति-पत्नी के बीच तलाक बहुत अनहोनी बात नहीं रही। अगर राहुल और संजीव बीवियों से तंग थे तो उनसे छुटकारा पाने के लिए तलाक ले सकते थे। उन्होंने तलाक का रास्ता न चुन कर उन्हें हलाक करने की क्यों सोची? राहुल और प्रीति या संजीव और नंदिनी के संबंधों में प्रेम नहीं है, लेकिन ऐसी कड़वाहट भी नहीं दिखी कि वह जहर बन जाए। फिल्म के लेखक ने एल्फ्रेड हिचकाक की मूल अंग्रेजी फिल्म से ढांचा तो लिया, लेकिन उसमें भारतीय रंग भरने में विफल रहे। फिल्म में फ्लैश बैक शैली का उपयोग किया गया है, लेकिन अनगढ़ उपयोग से वर्तमान और अतीत आपस में गड्डमड्ड हो गए हैं। हिंदी फिल्मों में फ्लैश बैक का सुंदर उपयोग गुलजार से सीखा जा सकता है। उनकी कई फिल्मों में तो फ्लैश बैक में छिपे एक और फ्लैश बैक का सुंदर सामंजस्य देखा जा सकता है। बहरहाल, कच्ची और अतार्किक कहानी के कारण स्ट्रेंजर्स स्टाइलिश होने के बावजूद अपील नहीं करती। ऐसी साधारण फिल्मों में कलाकार का उत्तम अभिनय भी अनदेखा रह जाता है। सिर्फ रिकार्ड के लिए कह सकते हैं कि नंदना सेन और जिमी शेरगिल ने बेहतरीन अभिनय किया है। केके मेनन की भाव मुद्राएं अब देखी हुई लगती हैं। उन्हें अपने किरदार पर अधिक मेहनत करनी चाहिए थी।
Comments
इस तरह की और फिल्में आनी चाहिए, कचुआ गये वो ही सब घिसी पिटी देखकर।