हम परिवर्तन नहीं ला सकते: अमिताभ बच्चन
११ अक्टूबर को अमिताभ बच्चन का जन्मदिन था.उसी अवसर पर अजय ब्रह्मात्मज ने उनका साक्षात्कार लिया.यहाँ कुछ अलग सवाल अमित जी के सामने रखे गए.अमित जी ठीक मूड में होन तो रोचक जवाब देते हैं.चवन्नी दैनिक जागरण में प्रकाशित अमिताभ बच्चन का साक्षात्कार अपने पाठकों के लिए पेश कर रह है ।
अमिताभ बच्चन भारतीय सिनेमा की धुरी हैं, इसमें कोई दो राय नहीं। धुरी इसलिए हैं, क्योंकि हिंदी सिनेमा के इतिहास में उनका अहम योगदान है। हर रंग की भूमिकाएं निभाने में माहिर होने की वजह से ही उन्हें कई उपनाम भी मिले। बातचीत अमिताभ बच्चन से..
आपका उल्लेख होते ही एंग्री यंग मैन की छवि उभरती है, जबकि आपने दूसरी तरह की फिल्में भी की हैं। क्या वजह हो सकती है?
वजह तो आप लोग ज्यादा अच्छी तरह बता सकते हैं। वैसे, यह सही है कि जब कहीं पर क्रोध होता है या कहीं पर हिंसा होती है, तो लोगों का उधर ध्यान जरूर जाता है। आप सड़क पर चल रहे हैं और अगर एक लड़का-लड़की हाथ पकड़े जा रहे हैं, तो आप शायद एक बार देखकर अपना मुंह मोड़ लेंगे, लेकिन अगर वही लड़का-लड़की एक-दूसरे को चपतियाने लगें और चप्पल उतार कर मारने लगें, तो आप रुक जाएंगे। उसे देखेंगे। दस-बारह लोग जमा हो जाएंगे। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी आप देखिए, वहां मारपीट, दुष्कर्म और मर्डर की खबरें आपको ज्यादा दिखाई देंगी बजाए इसके कि एक नेक आदमी ने कोई नेक काम किया हो। वैसी खबर आए भी, तो चर्चा नहीं होती। यह मान लेना गलत होगा कि मैंने एंग्री यंग मैन की ही भूमिकाएं निभाई। जब एक दीवार बनी, तो एक अमर अकबर एंथनी भी बनी। शक्ति या शहंशाह बनी, तो चुपके चुपके भी बनी है और नमक हलाल भी।
पिछले कुछ वर्षो से आप इंटरनेशनल मंचों से हिंदी फिल्मों को मिली नई पहचान का जिक्र जरूर करते हैं। क्या सचमुच हिंदी फिल्मों का प्रभाव बढ़ा है?
कॉमर्शियल फिल्मों को अपने ही दम पर विदेशों में पहचान मिल रही है। आप याद करें, तो विदेशों में हमारी फिल्मों का उपहास किया जाता था। वे लोग हमारी फिल्मों की निंदा करते थे, आलोचना करते थे। ये नाच-गाना क्या है? आप लोग, तो ओवर द टॉप किस्म की फिल्में बनाते हैं। ऐसा जीवन में थोड़े ही होता है, लेकिन उन्हें क्या मालूम कि हमारे देश की जनता कैसी है? हमारा हाव-भाव कैसा है? हम रियलिस्टिक सिनेमा नहीं बना सकते, क्योंकि एक गरीब दिन भर मेहनत कर पांच रुपये कमाता है और उसमें से दो रुपये का सिनेमा देखता है, तो वह अपने ही जीवन के ऊपर फिल्म थोड़े ही देखना चाहेगा! वह अपनी तकलीफों को भूलने के लिए सिनेमा देखता है। यही विदेशी, जो कभी मजाक और आलोचना करते थे, आज हमारी फिल्मों पर शोध कर रहे हैं। बहुत से लोग पूछते हैं कि आप ऐसी फिल्में क्यों बनाते हैं? कुछ और बनाने को नहीं है क्या? लेकिन जो हमारा प्लस प्वॉइंट है, उसे हम क्यों खोएंगे?
आपके बारे में कहा जाता है कि आपने कभी दूसरी तरह की फिल्मों में अधिक रुचि नहीं दिखाई?
किस तरह की फिल्मों में? ब्लैक के बारे में क्या कहेंगे.. जिसके लिए पुरस्कार मिला! उसे किस श्रेणी में डालेंगे! ऋषिदा के साथ की गई फिल्मों के बारे में क्या कहेंगे? अभिमान, मिली, चुपके चुपके, देव, मैं आजाद हूं को किस श्रेणी में डालेंगे! साथ-साथ दूसरे मिजाज की फिल्में भी आती रही हैं।
आप हमेशा कहते हैं कि मुझे जब जो मिला, मैंने किया..। इस तरह कहीं न कहीं आप अपने योगदान से किनारा कर लेते हैं?
मैंने कुछ नहीं किया। किया उन लोगों ने, जिन्होंने इसे लिखा और बनाया। मैं केवल एक कलाकार था। रास्ते पर खड़ा था। बस स्टैंड पर खड़ा था। बस आई, उस पर बैठ गया। जिस तरह की कहानी हमारे सामने आएगी, उसमें भाग लेने की क्षमता होगी, तो हम काम करेंगे, लेकिन सारा श्रेय उन्हें ही मिलना चाहिए.., वे सलीम-जावेद हों, या मनमोहन देसाई हों, या प्रकाश मेहरा हों या रमेश सिप्पी, यश चोपड़ा, करण जौहर या आदित्य चोपड़ा हों। ऐसा सोचना गलत है कि हम लोग परिवर्तन लाते हैं या ला सकते हैं। हम में इतनी क्षमता कहां कि परिवर्तन ला सकें!
इधर ढेर सारे युवा डायरेक्टों के साथ आपने फिल्में कीं। क्या खास फर्क नजर आया?
सिनेमा बदल गया है। आज कल ज्यादा जवान और समझदार लोग आ गए हैं। युवा डायरेक्टर पूरी तैयारी के साथ सेट पर आते हैं और अपने काम से जरा भी नहीं भटकते। उनके साथ यंग लोगों की टीम होती है। फिल्म मेकिंग में आए तकनीकी विकास से उन्हें मदद मिल रही है। युवा पीढ़ी इंटरनेशनल सिनेमा से परिचित है, इसलिए आप देखेंगे कि आज की फिल्में प्रस्तुति में इंटरनेशनल स्तर की हैं, लेकिन उन फिल्मों का मिजाज भारतीय है। सच तो यह है कि आज के भारत को ही ये निर्देशक फिल्मों में ला रहे हैं।
आपका उल्लेख होते ही एंग्री यंग मैन की छवि उभरती है, जबकि आपने दूसरी तरह की फिल्में भी की हैं। क्या वजह हो सकती है?
वजह तो आप लोग ज्यादा अच्छी तरह बता सकते हैं। वैसे, यह सही है कि जब कहीं पर क्रोध होता है या कहीं पर हिंसा होती है, तो लोगों का उधर ध्यान जरूर जाता है। आप सड़क पर चल रहे हैं और अगर एक लड़का-लड़की हाथ पकड़े जा रहे हैं, तो आप शायद एक बार देखकर अपना मुंह मोड़ लेंगे, लेकिन अगर वही लड़का-लड़की एक-दूसरे को चपतियाने लगें और चप्पल उतार कर मारने लगें, तो आप रुक जाएंगे। उसे देखेंगे। दस-बारह लोग जमा हो जाएंगे। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी आप देखिए, वहां मारपीट, दुष्कर्म और मर्डर की खबरें आपको ज्यादा दिखाई देंगी बजाए इसके कि एक नेक आदमी ने कोई नेक काम किया हो। वैसी खबर आए भी, तो चर्चा नहीं होती। यह मान लेना गलत होगा कि मैंने एंग्री यंग मैन की ही भूमिकाएं निभाई। जब एक दीवार बनी, तो एक अमर अकबर एंथनी भी बनी। शक्ति या शहंशाह बनी, तो चुपके चुपके भी बनी है और नमक हलाल भी।
पिछले कुछ वर्षो से आप इंटरनेशनल मंचों से हिंदी फिल्मों को मिली नई पहचान का जिक्र जरूर करते हैं। क्या सचमुच हिंदी फिल्मों का प्रभाव बढ़ा है?
कॉमर्शियल फिल्मों को अपने ही दम पर विदेशों में पहचान मिल रही है। आप याद करें, तो विदेशों में हमारी फिल्मों का उपहास किया जाता था। वे लोग हमारी फिल्मों की निंदा करते थे, आलोचना करते थे। ये नाच-गाना क्या है? आप लोग, तो ओवर द टॉप किस्म की फिल्में बनाते हैं। ऐसा जीवन में थोड़े ही होता है, लेकिन उन्हें क्या मालूम कि हमारे देश की जनता कैसी है? हमारा हाव-भाव कैसा है? हम रियलिस्टिक सिनेमा नहीं बना सकते, क्योंकि एक गरीब दिन भर मेहनत कर पांच रुपये कमाता है और उसमें से दो रुपये का सिनेमा देखता है, तो वह अपने ही जीवन के ऊपर फिल्म थोड़े ही देखना चाहेगा! वह अपनी तकलीफों को भूलने के लिए सिनेमा देखता है। यही विदेशी, जो कभी मजाक और आलोचना करते थे, आज हमारी फिल्मों पर शोध कर रहे हैं। बहुत से लोग पूछते हैं कि आप ऐसी फिल्में क्यों बनाते हैं? कुछ और बनाने को नहीं है क्या? लेकिन जो हमारा प्लस प्वॉइंट है, उसे हम क्यों खोएंगे?
आपके बारे में कहा जाता है कि आपने कभी दूसरी तरह की फिल्मों में अधिक रुचि नहीं दिखाई?
किस तरह की फिल्मों में? ब्लैक के बारे में क्या कहेंगे.. जिसके लिए पुरस्कार मिला! उसे किस श्रेणी में डालेंगे! ऋषिदा के साथ की गई फिल्मों के बारे में क्या कहेंगे? अभिमान, मिली, चुपके चुपके, देव, मैं आजाद हूं को किस श्रेणी में डालेंगे! साथ-साथ दूसरे मिजाज की फिल्में भी आती रही हैं।
आप हमेशा कहते हैं कि मुझे जब जो मिला, मैंने किया..। इस तरह कहीं न कहीं आप अपने योगदान से किनारा कर लेते हैं?
मैंने कुछ नहीं किया। किया उन लोगों ने, जिन्होंने इसे लिखा और बनाया। मैं केवल एक कलाकार था। रास्ते पर खड़ा था। बस स्टैंड पर खड़ा था। बस आई, उस पर बैठ गया। जिस तरह की कहानी हमारे सामने आएगी, उसमें भाग लेने की क्षमता होगी, तो हम काम करेंगे, लेकिन सारा श्रेय उन्हें ही मिलना चाहिए.., वे सलीम-जावेद हों, या मनमोहन देसाई हों, या प्रकाश मेहरा हों या रमेश सिप्पी, यश चोपड़ा, करण जौहर या आदित्य चोपड़ा हों। ऐसा सोचना गलत है कि हम लोग परिवर्तन लाते हैं या ला सकते हैं। हम में इतनी क्षमता कहां कि परिवर्तन ला सकें!
इधर ढेर सारे युवा डायरेक्टों के साथ आपने फिल्में कीं। क्या खास फर्क नजर आया?
सिनेमा बदल गया है। आज कल ज्यादा जवान और समझदार लोग आ गए हैं। युवा डायरेक्टर पूरी तैयारी के साथ सेट पर आते हैं और अपने काम से जरा भी नहीं भटकते। उनके साथ यंग लोगों की टीम होती है। फिल्म मेकिंग में आए तकनीकी विकास से उन्हें मदद मिल रही है। युवा पीढ़ी इंटरनेशनल सिनेमा से परिचित है, इसलिए आप देखेंगे कि आज की फिल्में प्रस्तुति में इंटरनेशनल स्तर की हैं, लेकिन उन फिल्मों का मिजाज भारतीय है। सच तो यह है कि आज के भारत को ही ये निर्देशक फिल्मों में ला रहे हैं।
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Durgesh