कहीं से भी अपील नहीं करती स्पीड
-अजय ब्रह्मात्मज
कई बार फिल्म के शीर्षक का कहानी से कोई ताल्लुक नहीं होता। स्पीड के साथ ऐसी ही बात है। पूरी फिल्म निकल जाने के बाद सहसा ख्याल आता है कि फिल्म का नाम स्पीड क्यों रखा गया?
बहरहाल, स्पीड विक्रम भट्ट की फिल्म है। भट्ट कैंप से निकलने के बाद विक्रम भट्ट की कोई भी फिल्म दर्शकों को पसंद नहीं आई है। ऐसा क्यों होता है कि कैंप या बैनर से छिटकने के बाद युवा निर्देशक पस्त हो जाते हैं। कुछ निर्देशक दिशानिर्देश मिले तभी अच्छा काम कर सकते हैं। विक्रम भट्ट को जल्दी ही एक ठीक-ठाक फिल्म बनानी होगी अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए।
स्पीड की कहानी लंदन में घटित होती है। इस फिल्म में मोबाइल फोन का प्रचुर इस्तेमाल हुआ है। कह लें कि वह भी एक जरूरी कैरेक्टर बन गया है। वह लिंक है कैरेक्टरों को जोड़ने का। संदीप (जाएद खान) भारत से लंदन गया है अपनी प्रेमिका संजना (तनुश्री दत्ता) को समझाने। उसे एक रांग काल आता है, जो अपहृत हो चुकी युवती (उर्मिला मातोंडकर) का है। उसका अपहरण कर फिल्म का खलनायक आफताब शिवदासानी उसके पति सिद्धार्थ (संजय सूरी) से एक हत्या करवाना चाहता है। हत्या भी किसी मामूली आदमी की नहीं, भारत की प्रधानमंत्री गायत्री सिन्हा की होनी है। हंसी आ सकती है लेखक की ऐसी कल्पना पर और अपराधियों की बचकानी साजिश पर।
स्पीड किसी भी स्तर पर अपील नहीं करती। चरित्रांकन, अभिनय, दृश्य और प्रसंग हर तरह से यह फिल्म लचर है। उर्मिला मातोंडकर का अभिनय निराशा के दौर में इस स्तर तक आ गया है कि लगता ही नहीं कि कभी उन्होंने रंगीला और पिंजर जैसी फिल्में की थीं। फिल्म का गीत संगीत भी कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाता।
बहरहाल, स्पीड विक्रम भट्ट की फिल्म है। भट्ट कैंप से निकलने के बाद विक्रम भट्ट की कोई भी फिल्म दर्शकों को पसंद नहीं आई है। ऐसा क्यों होता है कि कैंप या बैनर से छिटकने के बाद युवा निर्देशक पस्त हो जाते हैं। कुछ निर्देशक दिशानिर्देश मिले तभी अच्छा काम कर सकते हैं। विक्रम भट्ट को जल्दी ही एक ठीक-ठाक फिल्म बनानी होगी अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए।
स्पीड की कहानी लंदन में घटित होती है। इस फिल्म में मोबाइल फोन का प्रचुर इस्तेमाल हुआ है। कह लें कि वह भी एक जरूरी कैरेक्टर बन गया है। वह लिंक है कैरेक्टरों को जोड़ने का। संदीप (जाएद खान) भारत से लंदन गया है अपनी प्रेमिका संजना (तनुश्री दत्ता) को समझाने। उसे एक रांग काल आता है, जो अपहृत हो चुकी युवती (उर्मिला मातोंडकर) का है। उसका अपहरण कर फिल्म का खलनायक आफताब शिवदासानी उसके पति सिद्धार्थ (संजय सूरी) से एक हत्या करवाना चाहता है। हत्या भी किसी मामूली आदमी की नहीं, भारत की प्रधानमंत्री गायत्री सिन्हा की होनी है। हंसी आ सकती है लेखक की ऐसी कल्पना पर और अपराधियों की बचकानी साजिश पर।
स्पीड किसी भी स्तर पर अपील नहीं करती। चरित्रांकन, अभिनय, दृश्य और प्रसंग हर तरह से यह फिल्म लचर है। उर्मिला मातोंडकर का अभिनय निराशा के दौर में इस स्तर तक आ गया है कि लगता ही नहीं कि कभी उन्होंने रंगीला और पिंजर जैसी फिल्में की थीं। फिल्म का गीत संगीत भी कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाता।
मुख्य कलाकार : जायेद खान, उर्मिला मातोंडकर, आशीष चौधरी, आफताब शिवदासानी, संजय सूरी, सोफी चौधरी, तनुश्री दत्ता, अमृता अरोरा
निर्देशक : विक्रम भट्ट
तकनीकी टीम : निर्माता- हैरी बवेजा, गायक- शान, सुनीधि चौहान, जॉय, सोनू निगम, अंतरा मित्रा, संगीतकार- प्रीतम चक्रबर्ती
निर्देशक : विक्रम भट्ट
तकनीकी टीम : निर्माता- हैरी बवेजा, गायक- शान, सुनीधि चौहान, जॉय, सोनू निगम, अंतरा मित्रा, संगीतकार- प्रीतम चक्रबर्ती
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