कहां गए खलनायक?
(चवन्नी को अजय ब्रह्मात्मज का यह आलेख दशहरा के मौक़े पर थोडे अलग ढंग का लगा.चवन्नी ने अपने पाठकों के लिए इसे जागरण से लिया है।)
निश्चित रूप से लोग भी यही सोच रहे होंगे कि चूंकि दशहरे का समय है और तीन दिनों के बाद बुराई के सर्वनाश के प्रतीक के रूप में रावण के पुतले जलाए जाएंगे, लेकिन क्या आपने सोचा और देखा कि हिंदी फिल्मों से रावण अब लगभग गायब हो गए हैं! कहने का तात्पर्य यह है कि हीरो तो हैं और विविध रूपों में हैं, लेकिन विलेन गायब हो गए हैं। थोड़े-बहुत कुछ फिल्मों में दिखते भी हैं, तो वे पिद्दी जैसे नजर आते हैं।
सबसे पहले सूरज बड़जात्या और फिर आदित्य चोपड़ा और करण जौहर ने अपनी फिल्मों से विलेन को गायब किया। तीनों की पहली फिल्म आप याद करें, तो पाएंगे कि उनमें खलनायक है ही नहीं! दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे में पिता आरंभिक विरोध करते हैं और लगता है कि वे हीरो-हीरोइन के प्रेम में विघ्न पैदा करेंगे, लेकिन हीरोइन उनसे बगावत नहीं करती और हीरो मुकाबला नहीं करता। दोनों पिता का दिल जीतते हैं, इस कहानी में हीरोइन का मंगेतर हीरो के मुकाबले में आता है, लेकिन पूरी कहानी में उसकी जगह किसी प्यादे से ज्यादा नहीं है।
संयोग ऐसा रहा कि तीनों की फिल्में सफल रहीं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में किसी फिल्म की कामयाबी को दोहराने की कोशिश में उसकी नकल आरंभ होती है। लिहाजा बाकी निर्देशकों को भी लगा कि अब फिल्मों में विलेन की जरूरत नहीं रह गई है। लंबे अर्से के बाद उम्मीद थी कि रामगोपाल वर्मा की आग में गब्बर सिंह नए अवतार में दिखेगा, लेकिन बब्बन सिंह का किरदार खलनायकी के नाम पर मजाक ही बन गया! पिछले दस सालों में तनुजा चंद्रा की फिल्म दुश्मन का गोकुल पंडित ही ऐसा विलेन आया है, जिसे देखकर घृणा होती है। हिंदी फिल्मों में इधर एक नया ट्रेंड दिखाई पड़ रहा है। पूरी फिल्म में खल चरित्र रहते हैं। बुरे और दुष्ट चरित्र ही फिल्मों के मुख्य किरदार भी होते हैं। उन्हें नायक कहना तो सही नहीं होगा। वे एंटी हीरो भी नहीं हैं। ताज्जुब की बात है कि कॉमेडी फिल्मों में भी ऐसे ही किरदारों को महत्व दिया जा रहा है। जल्दी अमीर बनने की कोशिश में लगे लंपटों की बदमाशियों और बेवकूफियों को कॉमेडी के रूप में पेश किया जा रहा है।
फिल्मों से खलनायकों की अनुपस्थिति का सबसे बड़ा नुकसान यही हुआ कि फिल्मों की कहानियों से नाटकीयता गायब हो गई है! आलोचक और सिद्धांतकार मानते हैं कि ताकतवर खलनायक के खिलाफ खड़े होने पर ही नायक के बल और गुण का पता चलता है। राम के विरोध में रावण नहीं रहता, तो रामायण का वह प्रभाव नहीं होता, जो आज है। जितना बड़ा खलनायक होगा, उतनी ही रोचक और नाटकीय कहानी होगी। सिर्फ अच्छे या बुरे चरित्रों को लेकर बनी फिल्मों का प्रभाव एक आयामी हो जाता है।
समाज में खलनायक मौजूद हैं। यों कहें कि वे ज्यादा सूक्ष्म और विकराल हो गए हैं, लेकिन हिंदी फिल्मों में वे दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। कोई ऐसा विलेन हाल-फिलहाल में नहीं आया, जो हमारी स्मृतियों में कौंधे। यही कारण है कि नेगॅटिव किरदार निभाने वाले कलाकारों का महत्व भी कम हो गया है। लंबे समय तक सिर्फ विलेन की भूमिकाएं निभा कर प्राण सरीखे उम्दा कलाकार मशहूर हुए थे, लेकिन आज स्थिति यह है कि हिंदी फिल्मों में खलनायकों के किरदार निभाने वाले कलाकारों को दक्षिण भारत की फिल्मों में शरण लेनी पड़ रही है।
सबसे पहले सूरज बड़जात्या और फिर आदित्य चोपड़ा और करण जौहर ने अपनी फिल्मों से विलेन को गायब किया। तीनों की पहली फिल्म आप याद करें, तो पाएंगे कि उनमें खलनायक है ही नहीं! दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे में पिता आरंभिक विरोध करते हैं और लगता है कि वे हीरो-हीरोइन के प्रेम में विघ्न पैदा करेंगे, लेकिन हीरोइन उनसे बगावत नहीं करती और हीरो मुकाबला नहीं करता। दोनों पिता का दिल जीतते हैं, इस कहानी में हीरोइन का मंगेतर हीरो के मुकाबले में आता है, लेकिन पूरी कहानी में उसकी जगह किसी प्यादे से ज्यादा नहीं है।
संयोग ऐसा रहा कि तीनों की फिल्में सफल रहीं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में किसी फिल्म की कामयाबी को दोहराने की कोशिश में उसकी नकल आरंभ होती है। लिहाजा बाकी निर्देशकों को भी लगा कि अब फिल्मों में विलेन की जरूरत नहीं रह गई है। लंबे अर्से के बाद उम्मीद थी कि रामगोपाल वर्मा की आग में गब्बर सिंह नए अवतार में दिखेगा, लेकिन बब्बन सिंह का किरदार खलनायकी के नाम पर मजाक ही बन गया! पिछले दस सालों में तनुजा चंद्रा की फिल्म दुश्मन का गोकुल पंडित ही ऐसा विलेन आया है, जिसे देखकर घृणा होती है। हिंदी फिल्मों में इधर एक नया ट्रेंड दिखाई पड़ रहा है। पूरी फिल्म में खल चरित्र रहते हैं। बुरे और दुष्ट चरित्र ही फिल्मों के मुख्य किरदार भी होते हैं। उन्हें नायक कहना तो सही नहीं होगा। वे एंटी हीरो भी नहीं हैं। ताज्जुब की बात है कि कॉमेडी फिल्मों में भी ऐसे ही किरदारों को महत्व दिया जा रहा है। जल्दी अमीर बनने की कोशिश में लगे लंपटों की बदमाशियों और बेवकूफियों को कॉमेडी के रूप में पेश किया जा रहा है।
फिल्मों से खलनायकों की अनुपस्थिति का सबसे बड़ा नुकसान यही हुआ कि फिल्मों की कहानियों से नाटकीयता गायब हो गई है! आलोचक और सिद्धांतकार मानते हैं कि ताकतवर खलनायक के खिलाफ खड़े होने पर ही नायक के बल और गुण का पता चलता है। राम के विरोध में रावण नहीं रहता, तो रामायण का वह प्रभाव नहीं होता, जो आज है। जितना बड़ा खलनायक होगा, उतनी ही रोचक और नाटकीय कहानी होगी। सिर्फ अच्छे या बुरे चरित्रों को लेकर बनी फिल्मों का प्रभाव एक आयामी हो जाता है।
समाज में खलनायक मौजूद हैं। यों कहें कि वे ज्यादा सूक्ष्म और विकराल हो गए हैं, लेकिन हिंदी फिल्मों में वे दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। कोई ऐसा विलेन हाल-फिलहाल में नहीं आया, जो हमारी स्मृतियों में कौंधे। यही कारण है कि नेगॅटिव किरदार निभाने वाले कलाकारों का महत्व भी कम हो गया है। लंबे समय तक सिर्फ विलेन की भूमिकाएं निभा कर प्राण सरीखे उम्दा कलाकार मशहूर हुए थे, लेकिन आज स्थिति यह है कि हिंदी फिल्मों में खलनायकों के किरदार निभाने वाले कलाकारों को दक्षिण भारत की फिल्मों में शरण लेनी पड़ रही है।
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