'नो स्मोकिंग' का के काफ्का नहीं कश्यप है ... अनुराग कश्यप
हिंदी फिल्मों के अंग्रेजी समीक्षकों पर चवन्नी की हैरानी बढ़ती ही जा रही है. एक अंग्रजी समीक्षक ने तो 'नो स्मोकिंग' के बजाए अनुराग कश्यप की ही समीक्षा कर दी. वे अनुराग से आतंकित हैं. उनके रिव्यू में यह बात साफ झलकती है. क्यों आतंकित हैं? क्योंकि अनुराग उन्हें सीधी चुनौती देते हैं कि आप खराब लिखते हो और हर लेखन के पीछे निहित मंशा फिल्म नहीं ... कुछ और रहती है. 'नो स्मोकिंग' को लेकर बहुत कुछ लिखा और कहा जा रहा है. अनुराग कश्यप की यह फिल्म कुछ लोगों की समझ में नहीं आई, इसलिए निष्कर्ष निकाल लिया गया कि फिल्म बुरी है. इस लॉजिक से तो हमें जो समझ में न आए, वो सारी चीजें बुरी हो गई. समझदारी का रिश्ता उपयोगिता से जोड़कर ऐसे निष्कर्ष निकाले जाते हैं. आज की पीढ़ी संस्कृत नहीं समझती तो फिर संस्कृत में लिखा सब कुछ बुरा हो गया. और संस्कृत की बात क्या करें ... आज तो हिंदी में लिखा भी लोग नहीं पढ़ पाते, समझ पाते ... तो फिर मान लें कि हम सभी हिंदी में लिखने वाले किसी दुष्कर्म में संलग्न हैं. कला और अभिव्यक्ति के क्षेत्र में वह तुरंत पॉपुलर और स्वीकृत होता है, जो प्रचलित रूप और फॉर्म अपना