मनोरमा सिक्स फीट अंडर
रियल सिनेमा है मनोरमा सिक्स फीट अंडर
=अजय ब्रह्मात्मज नाच-गाना, विदेशी लोकेशन, हीरो-हीरोइन के चमकदार कपड़े, बेरंग रोमांस से ऊब चुके हों और चाहते हों कि कुछ रियल सिनेमा देखा जाए तो आप मनोरमा सिक्स फीट अंडर देखने जा सकते हैं। अपने देश के गांव-कस्बों और छोटे शहरों की कहानियां ऐसी ही होती हैं। मनोरमा ़ ़ ़ मध्यवर्गीय परेशानियों और आकांक्षाओं की फिल्म है। युवा निर्देशक नवदीप सिंह ने कुछ अलग कहने और दिखाने की कोशिश की है।
राजस्थान के छोटे से शहर लाखोट में रह रहे सत्यवीर (अभय देओल) के जीवन में कोई उमंग नहीं है। वह सिंचाई विभाग में जूनियर इंजीनियर है। मामूली सी नौकरी, सरकारी क्वार्टर, चखचख करती बीवी और कुछ ज्यादा ही जिज्ञासु पड़ोसी से ऊब चुका सत्यवीर जासूसी कहानियां लिखने में सुख पाता है। उसे रियल जासूसी का एक आफर मिलता है तो इंकार नहीं कर पाता। स्थानीय नेता और पूर्व महाराज पीपी राठौड़ की बीवी उसे अपने पति के खिलाफ जासूसी के लिए लगाती है। बाद में पता चलता है कि वह औरत तो पीपी राठौड़ की बीवी ही नहीं थी। पूरा मामला उलझता है और उसे सुलझाने के चक्कर में सत्यवीर और ज्यादा फंस जाता है। नए अभिनेताओं में अभय देओल ने अभी तक कोई भी फार्मूला फिल्म नहीं की है। इस फिल्म में भी उन्होंने नई कोशिश की है। वह नेचुरल एक्टर हैं और हिंदी फिल्मों में प्रचलित ओवर एक्टिंग से कोसों दूर हैं। सत्यवीर की उलझन और परेशानियों को अभय ने बखूबी पर्दे पर उतारा है। बीवी की भूमिका में गुल पनाग स्वाभाविक लगी हैं। अन्य किरदारों में सारिका, राइमा सेन और कुलभूषण खरबंदा दी गई भूमिकाएं सहजता से निभा ले गए हैं। हां, विनय पाठक ने छोटे शहर के इंस्पेक्टर ब्रजभूषण के रोल को जीवंत कर दिया है। छोटे शहरों के अनुभवी दर्शकों को लगेगा कि वह किसी परिचित इंस्पेक्टर को देख रहे हैं।
नवदीप सिंह ने अमेरिकी फिल्मों की नोयर शैली अपनाई है। नीम रोशनी, साधारण किरदार, अपराध और रहस्य के पहलुओं को लेकर उन्होंने वास्तविक कहानी बुनी है। इस छोटी सी फिल्म में कई घटनाएं और कथाएं एक-दूसरे से जोड़ी गई हैं। इसकी वजह से मूल कहानी की संप्रेषणीयता थोड़ी कम होती है। मनोरमा ़ ़ ़ की सबसे बड़ी खूबी यही है कि इसमें कोई अतिरंजना नहीं है। बेहतर और अलग सिनेमा देखने के इच्छुक दर्शकों को मनोरमा ़ ़ ़ देखनी चाहिए।
राजस्थान के छोटे से शहर लाखोट में रह रहे सत्यवीर (अभय देओल) के जीवन में कोई उमंग नहीं है। वह सिंचाई विभाग में जूनियर इंजीनियर है। मामूली सी नौकरी, सरकारी क्वार्टर, चखचख करती बीवी और कुछ ज्यादा ही जिज्ञासु पड़ोसी से ऊब चुका सत्यवीर जासूसी कहानियां लिखने में सुख पाता है। उसे रियल जासूसी का एक आफर मिलता है तो इंकार नहीं कर पाता। स्थानीय नेता और पूर्व महाराज पीपी राठौड़ की बीवी उसे अपने पति के खिलाफ जासूसी के लिए लगाती है। बाद में पता चलता है कि वह औरत तो पीपी राठौड़ की बीवी ही नहीं थी। पूरा मामला उलझता है और उसे सुलझाने के चक्कर में सत्यवीर और ज्यादा फंस जाता है। नए अभिनेताओं में अभय देओल ने अभी तक कोई भी फार्मूला फिल्म नहीं की है। इस फिल्म में भी उन्होंने नई कोशिश की है। वह नेचुरल एक्टर हैं और हिंदी फिल्मों में प्रचलित ओवर एक्टिंग से कोसों दूर हैं। सत्यवीर की उलझन और परेशानियों को अभय ने बखूबी पर्दे पर उतारा है। बीवी की भूमिका में गुल पनाग स्वाभाविक लगी हैं। अन्य किरदारों में सारिका, राइमा सेन और कुलभूषण खरबंदा दी गई भूमिकाएं सहजता से निभा ले गए हैं। हां, विनय पाठक ने छोटे शहर के इंस्पेक्टर ब्रजभूषण के रोल को जीवंत कर दिया है। छोटे शहरों के अनुभवी दर्शकों को लगेगा कि वह किसी परिचित इंस्पेक्टर को देख रहे हैं।
नवदीप सिंह ने अमेरिकी फिल्मों की नोयर शैली अपनाई है। नीम रोशनी, साधारण किरदार, अपराध और रहस्य के पहलुओं को लेकर उन्होंने वास्तविक कहानी बुनी है। इस छोटी सी फिल्म में कई घटनाएं और कथाएं एक-दूसरे से जोड़ी गई हैं। इसकी वजह से मूल कहानी की संप्रेषणीयता थोड़ी कम होती है। मनोरमा ़ ़ ़ की सबसे बड़ी खूबी यही है कि इसमें कोई अतिरंजना नहीं है। बेहतर और अलग सिनेमा देखने के इच्छुक दर्शकों को मनोरमा ़ ़ ़ देखनी चाहिए।
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