नन्हे जैसलमेर- विश्वास, कल्पना और हकीकत का तानाबाना


-अजय ब्रह्मात्मज
विश्वास , कल्पना और हकीकत के तानेबाने से सजी समीर कर्णिक की नन्हे जैसलमेर नाम और पोस्टर से बच्चों की फिल्म लगती है। इसमें एक दस साल का बच्चा है जो जैसलमेर में रहता है। छोटी उम्र से ही पारिवारिक जिम्मेदारियां निभा रहा नन्हे काफी तेज-तर्रार और होशियार है। वह चार भाषाएं जानता है और जैसलमेर घूमने आए पर्यटकों को आसानी से खुश कर लेता है। समीर कर्णिक ने इस बार बिल्कुल अलग भावभूमि चुनी है और अपनी बात कहने में सफल रहे हैं। उन्होंने नन्हे को लेकर एक फंतासी कथा बुनी है। इस कथा में उन्होंने एक बच्चे के मनोविज्ञान को समझते हुए रोचक तरीके से संदेश भी दिया है।
नन्हे जैसलमेर बहुत छोटा था तो फिल्म स्टार बॉबी देओल ने अपनी जैसलमेर यात्रा में उसे संयोग से गोद में उठा लिया था। थोड़ा बड़ा होने पर नन्हे यह मान बैठता है कि बॉबी उसका दोस्त है। नन्हे का लॉजिक है कि बॉबी ने तमाम बच्चों के बीच से उसे ही क्यों उठाया? वह बॉबी को पत्र लिखता रहता है और अपने परिवार की ताजा जानकारियां भेजता रहता है। उसके कमरे में बॉबी की अनगिनत तस्वीरें लगी हैं। उसकी मां और बहन भी बॉबी के प्रति उसके इस लगाव से परेशान हैं। यहां तक कि जैसलमेर के लोग भी उसके इस लगाव से परिचित हैं। एक दिन नन्हे टीवी पर बॉबी की नयी फिल्म के मुहूर्त की खबर देखता है। अगले दिन लोग स्थानीय अखबार में छपी खबर उसे सुनाते हैं कि बॉबी अगली फिल्म की शूटिंग के लिए जैसलमेर आ सकता है। इस खबर को सुनने के बाद से नन्हे अपने दोस्त बॉबी की उत्कट प्रतीक्षा करता है। बॉबी आता है और फिर उसकी संगत में नन्हे के जीवन में बदलाव आरंभ होता है। मां चाहती थी कि वह पढ़ ले ़ ़ ़वह मां की इच्छा पूरी करता है। हम देखते हैं कि नन्हे बिल्कुल बदल गया है। नन्हे में आये इस परिवर्तन से दर्शक के तौर पर हम खुश होते हैं, तभी निर्देशक समीर कणिर्क का हस्तक्षेप होता है और हमें पता चलता है कि बॉबी वास्तव में आया ही नहीं था। हम जो देख रहे थे वह सब नन्हे के दिमाग में चल रहा था।
समीर कर्णिक ने फंतासी और यथार्थ का सुंदर मिश्रण किया है। हो सकता है कि उनकी यह कोशिश दर्शकों की समझ में न आए। उन्होंने पहले पूरी फंतासी गढ़ी है और फिर उस फंतासी को तोड़ कर दिखाया है। एक तरह से उन्होंने अच्छा ही किया कि फंतासी और कल्पना के सामंजस्य से पैदा हकीकत पर जोर दिया है। समीर ने संदेश दिया है कि विश्वास से कल्पना जन्म लेती है और फिर वही हकीकत का रूप लेती है। हम जो चाहते है, उसे पा सकते हैं। प्रेरक कोई भी हो सकता है। कई बार हमारे प्रिय आदर्श भी प्रेरक बन जाते हैं। नन्हे के जीवन में आया परिवर्तन वास्तव में उसके सोच से ही आया है।
नन्हे जैसलमेर में बॉबी देओल ने खुद की ही भूमिका निभायी है। कहा जा सकता है कि स्वयं की भूमिका में वे अपने अन्य पूर्व किरदारों से अधिक विश्वसनीय और आकर्षक लगे हैं। नन्हे की भूमिका में बाल कलाकार द्विज यादव की मासूमियत प्रभावित करती है। इस फिल्म की छोटी भूमिकाओं में कई किरदार अपनी सहजता से कहानी को विश्वसनीय बनाते हैं। अगर संवादों में राजस्थानी बोली का उपयोग किया गया होता तो फिल्म और भी प्रभावी होती। फिर भी समीर कर्णिक अपनी पिछली फिल्म से आगे बढ़े हैं और उन्होंने सर्वथा नवीन विषय पर फिल्म बनाने का सराहनीय प्रयास किया है। अच्छा है कि नन्हे जैसलमेर बाल फिल्म के तौर पर प्रचारित और प्रदर्शित नहीं की गई है।

Comments

Anonymous said…
संक्षेप में सुंदर!!!!!!
Ankit Mathur said…
काफ़ी समय बाद किसी तरो ताज़गी से भरपूर फ़िल्म के बारे में पढने को मिला।
आशा है कि फ़िल्म देखने मे भी रोचक होगी।
धन्यवाद अजय जी...
अंकित माथुर...

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