धोखा: सराहनीय है मौलिकता


अजय ब्रह्मात्मज

पूजा भट्ट निर्देशित फिल्म 'धोखा' समसामयिक और सामाजिक फिल्म है। 'पाप' और 'हॉली डे' में पूजा भट्ट ने व्यक्तियों के अंतर्र्सबंधों का चित्रण किया था। हिंदी फिल्मों की प्रचलित परंपरा में यहां भी फोकस में व्यक्ति है लेकिन उसका एक सामाजिक संदर्भ है। उस सामाजिक संदर्भ का राजनीतिक परिप्रेक्ष्य भी है। पूजा भट्ट की 'धोखा' का मर्म मुस्लिम अस्मिता का प्रश्न है। जैद अहमद (मुजम्मिल इब्राहिम) पुलिस अधिकारी है। एक शाम वह अपने कालेज के पुनर्मिलन समारोह में शामिल होने आया है। उसकी बीवी सारा (ट्यूलिप जोशी) किसी और काम से पूना गई हुई है। तभी उसे मुंबई में बम धमाके की खबर मिलती है। उसे पता चलता है कि धमाके में उसकी बीवी भी मारी गई है। लेकिन ऐसा लगता है कि इ स विस्फोट में वह मानव बम थी। जैद अहमद पर आरोप लगते हैं। उसकी नौकरी छूट जाती है। जैद लगातार बहस करता है कि अगर उसकी बीवी जिहादी हो गई तो इसके लिए वह कैसे दोषी हो सकता है? जैद पूरे मामले की जड़ में जाता है। वह अपने साले को जिहादी बनने से रोकता है और अपने व्यवहार से साबित करता है कि वह भी इस देश का जिम्मेदार नागरिक है। हिंदी फिल्मों में ऐसे मुस्लिम किरदार लगभग नहीं दिखे हैं। 'चक दे इंडिया' में कबीर खान गद्दारी के आरोप से निकलने के लिए जिद्दोजिहद करता है। 'धोखा' में जैद अहमद मुस्लिम अस्मिता को बगैर किसी नारे या डिफेंस के सामने रखता है। फिल्म की मौलिकता सराहनीय है। लेखक-निर्देशक का दृष्टिकोण भी प्रभावित करता है। 'धोखा' का विचार उम्दा और जरूरी है लेकिन पर्दे पर उसे उतारने में पूजा भट्ट की निर्देशकीय सोच और कल्पना सरलीकरण की सीमा में है। मुस्लिम अस्मिता के सवाल पर गहरे विमर्श के बजाय फिल्म सरल समाधान का विकल्प चुन लेती है। हमारे फिल्मकारों की यह दुविधा वास्तव में दर्शकों की रुचि-अरुचि से बनती है। देखा गया है कि हिंदी फिल्मों के दर्शक फिल्मों में गंभीर सामाजिक विमर्श से परहेज करते हैं। भट्ट कैंप ने इस फिल्म में कुछ नयी प्रतिभाओं को मौका दिया है। मुजम्मिल इब्राहिम पहले प्रयास में ही पास हो गए हैं। उनमें कैमरे के सामने खड़े होने का आत्मविश्वास है। अभिनय में कच्चापन है, जो समय के साथ निखर सकता है। ट्यूलिप जोशी बगैर ज्यादा बोले ही अपना काम कर जाती हैं। छोटी भूमिकाओं में कलाकार फिल्म को बड़ा सहारा देते हैं। विनीत कुमार, भानु उदय, अनुपम श्याम, मखीजा ने उल्लेखनीय योगदान किया है। फिल्म का गीत-संगीत भट्ट कैंप की पसंद का है, लेकिन इस बार यह उतना पापुलर नहीं हो सका। संगीतकार एम.एम. क्रीम में एक अलग मधुरता रहती है। वह संगीत के फैशन और ट्रेंड से प्रभावित नहीं दिखते।

Comments

Anonymous said…
बहुत ही संतुलित समीक्षा है.धन्यवाद.

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