ब्लू अम्ब्रेला
इस फिल्म का नाम नीली छतरी रखा जाता तो क्या फिल्म का प्रभाव कम हो जाता? विशाल भारद्वाज या रोनी स्क्रूवाला ही इसका जवाब दे सकते हैं। रस्किन बांड की कहानी पर बनी ब्लू अंब्रेला एक पहाड़ी गांव के बाशिंदों के मनोभाव और स्वभाव को जाहिर करती है। एक पहाड़ी गांव है। खास मौसम में वहां से विदेशी टूरिस्ट गुजरते हैं। चहल-पहल हो जाती है। एक बार कुछ टूरिस्ट गांव की लड़की बिनिया के लाकेट (जो भालू के नाखून से बना है) के बदले उसे नीली छतरी दे जाते हैं। छतरी के मिलते ही गांव में बिनिया की चर्चा होने लगती है। गांव का साहूकार नंद किशोर खत्री (पंकज कपूर) छतरी हथियाना चाहता है। वह बिनिया को कई तरह के प्रलोभन देता है। बिनिया टस से मस नहीं होती तो वह शहर जाकर वैसी छतरी खरीदने की सोचता है। कंजूस साहूकार महंगी छतरी नहीं खरीद पाता। एक दिन बिनिया की छतरी चोरी हो जाती है। उसे शक है कि उसकी छतरी साहूकार ने ही चुराई है। इस बीच साहूकार खत्री के पास दूसरे रंग की वैसी ही छतरी पार्सल से आती है। अब साहूकार की गांव में प्रतिष्ठा बढ़ जाती है। फिर एक दिन भेद खुलता है और फिर..पंकज कपूर ने साहूकार की भूमिका में पूरी तरह ढल गए हैं। उसके मनोभाव और मनोविज्ञान को संवाद, अभिनय व प्रतिक्रिया के जरिए जाहिर करते हैं। विशाल भारद्वाज ने पहाड़ी गांव के माहौल और मिजाज को बहुत सुंदर तरीके से सेल्युलाइड पर उतारा है। इस फिल्म की खूबसूरती लोकेशन, लोग और गंवई लावण्य में है। एक-दो प्रसंगों में फिल्म खिंचती सी लगती है। उसे नजरअंदाज कर दें तो ब्लू अंब्रेला बच्चों के लिए मनोरंजक और शिक्षाप्रद फिल्म है। गुलजार के गीत और विशाल भारद्वाज के संगीत का जादू थोड़ा अलग होता है। खासकर बालगीतों में दोनों ने उल्लेखनीय सहयोग किये हैं
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