चुंबन और सेक्स
महेश भट्ट
शर्म और दुख की बात यह है कि रिचर्ड गैर और शिल्पा शेट्टी के बीच के औपचारिक चुंबन और व्यवहार को दुष्कर्म के रूप में पेश किया गया है। दो सार्वजनिक व्यक्तियों के बीच की सामान्य घटना को मुद्दा बनाने वालों ने अगर इसकी आधी सक्रियता भी बालिकाओं की भ्रूण-हत्या के खिलाफ दिखाई होती, तो बड़ी बात होती। सच तो यह है कि घर-परिवार और समाज में हो रही स्त्रियों की दिन-रात की बेइज्जती पर आम नागरिकों की खामोशी खलती है। क्या हमारे समाज में चुंबन और सेक्स वर्जित है? मुंबई और दूसरे शहरों में प्रेमी युगलों को पार्क और अन्य सार्वजनिक स्थलों से पुलिस द्वारा भगाने की खबरों को पढ़ कर भी हैरत होती है कि आखिर हम किधर जा रहे हैं? यकीन भी नहीं होता कि इसी देश में कभी वात्सयायन ने कामसूत्र की रचना की थी और खजुराहो के मंदिरों में हमारे पूर्वजों ने यौनाचार की मुद्राओं को पत्थरों में उकेरा था।
चुंबन और सेक्स मनुष्य की स्वाभाविक क्रियाएं हैं। एक उम्र के बाद हर मनुष्य इस अहसास से गुजरता है। हां, सामान्य रूप से समाज के बनाए नियमों का पालन करना और अभद्र और अश्लील आचरण से बचना जरूरी है, लेकिन इस अहसास को दबाना कतई जरूरी नहीं है। भारतीय समाज में हम सभी ऐसे मामलों में घर-परिवार से ज्यादा सिनेमा से प्रभावित होते हैं। अपनी बात करूं, तो लगभग चालीस साल पहले फिल्म कोहरा देखते समय इस कथित पाप का पहला आनंददायक स्फुरण हुआ था। हमारे उद्गम का मूल स्त्रोत है सेक्स, इसलिए हमारे जन्म का बीज कार्य सेक्स कैसे बुरा हो सकता है? सेक्स जीवन का सुंदर पक्ष है, वह बुरा कतई नहीं है। अगर सिनेमा में जीवन का उद्घाटन और चित्रण होता है, तो सेक्स सिनेमा का आदर्श विषय है, लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है, क्योंकि भारतीय सिनेमा में सबसे ज्यादा सेक्स को ही नजरंदाज किया गया है। अपने देश में सेक्स के मुद्दे पर लोगों का दोहरा रवैया है। पुस्तकों, परस्पर बातचीत, टीवी चैनलों और बाकी जगहों में इसे बराबर जगह मिली हुई है, लेकिन जब फिल्म की बात आती है, तो हमारा रवैया सेक्स के अस्तित्व से ही इंकार करता है।
हमने पाप किया है। औरत की पीठ कैमरे की तरफ है। हम समाज की निगाह में अपराधी हैं, पुरुष भी कहता है। शर्म से वह अपना चेहरा नहीं दिखा रहा। इन प्रेमियों ने अभी-अभी प्रेम-गीत गाकर एक-दूसरे को छूने के बाद सहवास किया है। भारतीय सिनेमा के प्रेम-गीत सहवास के पहले की रतिक्रिया ही तो है, लेकिन प्रेम के उन उदात्त क्षणों को दिखाने के लिए डायरेक्टर ने बारिश करवा दी। यह दृश्य यश चोपड़ा की फिल्म धूल का फूल का है। मुझे शक्ति सामंत की फिल्म आराधना का गीत रूप तेरा मस्ताना.. भी याद आ रहा है। राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर ने एक ही शॉट में इस गाने को पूरा किया था। दोनों ही फिल्मों में सहवास के प्रसंग के पहले खूब बारिश हुई थी। दोनों ही फिल्मों में विवाह पूर्व सेक्स के परिणाम दिखाए गए थे। दोनों फिल्म ऑफिस पर कामयाब हुई, लेकिन सभी यादें सुखद नहीं होतीं। जवानी की असहनीय यादें दिमाग के किसी कोने में दबी रहती हैं। एक बार मैं अपने दोस्त के साथ कहीं जा रहा था। मैंने देखा कि एक पेड़ के नीचे भीड़ एकत्रित है। खाकी वर्दी में मौजूद एक सिपाही लोगों को वहां से हटा रहा है। जिज्ञासा हुई, तो हम दोनों भी उधर गए। वहां एक भू्रण पड़ा था। चींटियों ने उसे आधा खा लिया था। भीड़ में से किसी ने दबे स्वर में कहा -धूल का फूल। धूल का फूल में भी नायिका समाज के डर से अपने नवजात बच्चे को फेंक आती है। इस भू्रण की अज्ञात मां ने भी वही किया था।
अगर शादी के बाद सेक्स उचित है, तो वह शादी के पहले भी उचित होना चाहिए। शादी से पहले या विवाहेतर सेक्स करने वालों को समाज क्यों अपराधी होने का अहसास देता है? हर समाज स्वाभाविक रूप से फासीवादी होता है और हमारी नैतिकता परपीड़क होती है। अपने मन में इस खयाल से मैं जूझता रहा। मुझे नहीं पता था कि पहली फिल्म मंजिलें और भी हैं में इस विचार को पेश करने का लंबा खामियाजा भुगतना पड़ेगा! उस फिल्म पर सेंसर बोर्ड ने 14 महीनों तक पाबंदी लगाए रखी। उनका कहना था कि मेरी फिल्म शादी जैसी पवित्र संस्था का मजाक उड़ाती है। उस फिल्म में दो भगोड़े अपराधियों और एक वेश्या के यौन संबंधों को दर्शाया गया था। वह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरी थी। मैंने दस साल पहले इसी विषय पर नेशनल फिल्म आर्काइव्स के पी.के. नायर से बात की थी। नायर ने बताया था कि भारतीय सिनेमा के पितामह ने 1913 में ही अपनी पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र में एक स्नान दृश्य रखा था। 1929 में बनी फिल्म थ्रो ऑफ डाइस में चुंबन के अनेक दृश्य थे। इसी प्रकार दिल-ए-जिगर में भी चुंबन के कामुक दृश्य थे। केदार शर्मा ने पांचवें दशक की चित्रलेखा में स्नान दृश्य रखा था। मा. विनायक की फिल्म ब्रह्मचारी में मीनाक्षी ने पहली बार स्विमिंग शूट पहना था। सोहराब मोदी ने भरोसा में सबसे पहले अवैध संबंधों को दिखाने की हिम्मत की थी। वी. शांताराम ने दुनिया न माने में नपुंसकता को चित्रित किया था। पिछले दिनों आई मेरी फिल्म जिस्म और मर्डर देखकर कई लोगों ने हाय-तौबा की। मैं उन फिल्मों को लेकर शर्मिदा नहीं हूं। मैं जानता हूं कि अर्थ, सारांश या जख्म की श्रेणी में उन्हें नहीं रखा जा सकता, फिर भी वे वक्त की जरूरत पूरी करते हैं। जिस्म और मर्डर के प्रति शिकायत रखने वालों को मेरा सीधा उत्तर है कि अगर दर्शकों ने जख्म देखी होती, तो जिस्म बनाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। मर्डर की नायिका उत्तेजना में अवैध संबंध कायम करती है। जब उसे प्रायश्चित होता है, वह पति के पास लौट आती है। दर्शकों ने नायिका की भूल को माफ कर दिया था।
अंत में यही कहना चाहूंगा कि चुंबन, सेक्स आदि यौन अहसास को दबाने की नहीं, उन्हें कला माध्यमों में अभिव्यक्त करने की जरूरत है। सेक्स की सम्यक शिक्षा और उचित ज्ञान से समाज का भला ही होगा। मेरी राय में सेक्स पर समाज का कोई सेंसर नहीं होना चाहिए।
शर्म और दुख की बात यह है कि रिचर्ड गैर और शिल्पा शेट्टी के बीच के औपचारिक चुंबन और व्यवहार को दुष्कर्म के रूप में पेश किया गया है। दो सार्वजनिक व्यक्तियों के बीच की सामान्य घटना को मुद्दा बनाने वालों ने अगर इसकी आधी सक्रियता भी बालिकाओं की भ्रूण-हत्या के खिलाफ दिखाई होती, तो बड़ी बात होती। सच तो यह है कि घर-परिवार और समाज में हो रही स्त्रियों की दिन-रात की बेइज्जती पर आम नागरिकों की खामोशी खलती है। क्या हमारे समाज में चुंबन और सेक्स वर्जित है? मुंबई और दूसरे शहरों में प्रेमी युगलों को पार्क और अन्य सार्वजनिक स्थलों से पुलिस द्वारा भगाने की खबरों को पढ़ कर भी हैरत होती है कि आखिर हम किधर जा रहे हैं? यकीन भी नहीं होता कि इसी देश में कभी वात्सयायन ने कामसूत्र की रचना की थी और खजुराहो के मंदिरों में हमारे पूर्वजों ने यौनाचार की मुद्राओं को पत्थरों में उकेरा था।
चुंबन और सेक्स मनुष्य की स्वाभाविक क्रियाएं हैं। एक उम्र के बाद हर मनुष्य इस अहसास से गुजरता है। हां, सामान्य रूप से समाज के बनाए नियमों का पालन करना और अभद्र और अश्लील आचरण से बचना जरूरी है, लेकिन इस अहसास को दबाना कतई जरूरी नहीं है। भारतीय समाज में हम सभी ऐसे मामलों में घर-परिवार से ज्यादा सिनेमा से प्रभावित होते हैं। अपनी बात करूं, तो लगभग चालीस साल पहले फिल्म कोहरा देखते समय इस कथित पाप का पहला आनंददायक स्फुरण हुआ था। हमारे उद्गम का मूल स्त्रोत है सेक्स, इसलिए हमारे जन्म का बीज कार्य सेक्स कैसे बुरा हो सकता है? सेक्स जीवन का सुंदर पक्ष है, वह बुरा कतई नहीं है। अगर सिनेमा में जीवन का उद्घाटन और चित्रण होता है, तो सेक्स सिनेमा का आदर्श विषय है, लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है, क्योंकि भारतीय सिनेमा में सबसे ज्यादा सेक्स को ही नजरंदाज किया गया है। अपने देश में सेक्स के मुद्दे पर लोगों का दोहरा रवैया है। पुस्तकों, परस्पर बातचीत, टीवी चैनलों और बाकी जगहों में इसे बराबर जगह मिली हुई है, लेकिन जब फिल्म की बात आती है, तो हमारा रवैया सेक्स के अस्तित्व से ही इंकार करता है।
हमने पाप किया है। औरत की पीठ कैमरे की तरफ है। हम समाज की निगाह में अपराधी हैं, पुरुष भी कहता है। शर्म से वह अपना चेहरा नहीं दिखा रहा। इन प्रेमियों ने अभी-अभी प्रेम-गीत गाकर एक-दूसरे को छूने के बाद सहवास किया है। भारतीय सिनेमा के प्रेम-गीत सहवास के पहले की रतिक्रिया ही तो है, लेकिन प्रेम के उन उदात्त क्षणों को दिखाने के लिए डायरेक्टर ने बारिश करवा दी। यह दृश्य यश चोपड़ा की फिल्म धूल का फूल का है। मुझे शक्ति सामंत की फिल्म आराधना का गीत रूप तेरा मस्ताना.. भी याद आ रहा है। राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर ने एक ही शॉट में इस गाने को पूरा किया था। दोनों ही फिल्मों में सहवास के प्रसंग के पहले खूब बारिश हुई थी। दोनों ही फिल्मों में विवाह पूर्व सेक्स के परिणाम दिखाए गए थे। दोनों फिल्म ऑफिस पर कामयाब हुई, लेकिन सभी यादें सुखद नहीं होतीं। जवानी की असहनीय यादें दिमाग के किसी कोने में दबी रहती हैं। एक बार मैं अपने दोस्त के साथ कहीं जा रहा था। मैंने देखा कि एक पेड़ के नीचे भीड़ एकत्रित है। खाकी वर्दी में मौजूद एक सिपाही लोगों को वहां से हटा रहा है। जिज्ञासा हुई, तो हम दोनों भी उधर गए। वहां एक भू्रण पड़ा था। चींटियों ने उसे आधा खा लिया था। भीड़ में से किसी ने दबे स्वर में कहा -धूल का फूल। धूल का फूल में भी नायिका समाज के डर से अपने नवजात बच्चे को फेंक आती है। इस भू्रण की अज्ञात मां ने भी वही किया था।
अगर शादी के बाद सेक्स उचित है, तो वह शादी के पहले भी उचित होना चाहिए। शादी से पहले या विवाहेतर सेक्स करने वालों को समाज क्यों अपराधी होने का अहसास देता है? हर समाज स्वाभाविक रूप से फासीवादी होता है और हमारी नैतिकता परपीड़क होती है। अपने मन में इस खयाल से मैं जूझता रहा। मुझे नहीं पता था कि पहली फिल्म मंजिलें और भी हैं में इस विचार को पेश करने का लंबा खामियाजा भुगतना पड़ेगा! उस फिल्म पर सेंसर बोर्ड ने 14 महीनों तक पाबंदी लगाए रखी। उनका कहना था कि मेरी फिल्म शादी जैसी पवित्र संस्था का मजाक उड़ाती है। उस फिल्म में दो भगोड़े अपराधियों और एक वेश्या के यौन संबंधों को दर्शाया गया था। वह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरी थी। मैंने दस साल पहले इसी विषय पर नेशनल फिल्म आर्काइव्स के पी.के. नायर से बात की थी। नायर ने बताया था कि भारतीय सिनेमा के पितामह ने 1913 में ही अपनी पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र में एक स्नान दृश्य रखा था। 1929 में बनी फिल्म थ्रो ऑफ डाइस में चुंबन के अनेक दृश्य थे। इसी प्रकार दिल-ए-जिगर में भी चुंबन के कामुक दृश्य थे। केदार शर्मा ने पांचवें दशक की चित्रलेखा में स्नान दृश्य रखा था। मा. विनायक की फिल्म ब्रह्मचारी में मीनाक्षी ने पहली बार स्विमिंग शूट पहना था। सोहराब मोदी ने भरोसा में सबसे पहले अवैध संबंधों को दिखाने की हिम्मत की थी। वी. शांताराम ने दुनिया न माने में नपुंसकता को चित्रित किया था। पिछले दिनों आई मेरी फिल्म जिस्म और मर्डर देखकर कई लोगों ने हाय-तौबा की। मैं उन फिल्मों को लेकर शर्मिदा नहीं हूं। मैं जानता हूं कि अर्थ, सारांश या जख्म की श्रेणी में उन्हें नहीं रखा जा सकता, फिर भी वे वक्त की जरूरत पूरी करते हैं। जिस्म और मर्डर के प्रति शिकायत रखने वालों को मेरा सीधा उत्तर है कि अगर दर्शकों ने जख्म देखी होती, तो जिस्म बनाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। मर्डर की नायिका उत्तेजना में अवैध संबंध कायम करती है। जब उसे प्रायश्चित होता है, वह पति के पास लौट आती है। दर्शकों ने नायिका की भूल को माफ कर दिया था।
अंत में यही कहना चाहूंगा कि चुंबन, सेक्स आदि यौन अहसास को दबाने की नहीं, उन्हें कला माध्यमों में अभिव्यक्त करने की जरूरत है। सेक्स की सम्यक शिक्षा और उचित ज्ञान से समाज का भला ही होगा। मेरी राय में सेक्स पर समाज का कोई सेंसर नहीं होना चाहिए।
Comments
jo kuchh baki hai use samkruti ke liye baki hi rahane diya jaaye to achchha hai.