नकाब का रिव्यू
हमें इस गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए कि पॉपुलर अभिनेताओं और सफल निर्देशक की हर फिल्म औसत से बेहतर होगी। अब्बास-मस्तान आम दर्शकों की रुचि के हिसाब से एवरेज फिल्में बनाते रहे हैं। उन्हें थ्रिलर फिल्मों का कामयाब निर्देशक माना जाता है, लेकिन 'नकाब' में निर्देशक दर्शकों तक अपनी बात पहुंचाने में बुरी तरह असफल रहे।
कहानी सोफी (उर्वशी शर्मा), विक्की (अक्षय खन्ना) और करण (बॉबी देओल) की है। यह एक अनोखा प्रेम त्रिकोण है, जिसमें सोफी पाला बदलती रहती है। करण का एक दूसरा चेहरा भी है राहुल। कहानी रोचक और समझ में आने लायक तरीके से आगे बढ़ती है, लेकिन करण की नकली आत्म हत्या के बाद कहानी के तार ऐसे उलझते हैं कि हम बार-बार क्यों॥क्यों सवाल करते हैं और हमें किरदारों के बदलते रवैए का कारण समझ में नहीं आता। रहस्यात्मक और थ्रिलर कहानियों में जब रहस्य खुलता है, तो सब कुछ स्पष्ट हो जाता है। 'नकाब' में अंत तक पता ही नहीं चलता कि किरदारों के संबंध क्यों और कैसे बदल रहे हैं? इसके अलावा, हिंदी फिल्मों और भारतीय कथा परंपरा में कभी खल चरित्रों को विजयी होता नहीं दिखाया जाता, 'नकाब' में हत्यारे छूट निकलते हैं। यह 21वीं सदी का बॉलीवुड सिनेमा है। इस फिल्म की एकमात्र उपलब्धि उर्वशी शर्मा है। पहली फिल्म में भी उनका आत्मविश्वास झलकता है। सोफी के द्वंद्व और दुविधा को वह एक हद तक निभा ले जाती हैं। आधुनिक हीरोइनों के लिए जरूरी नृत्य और अन्य अदाओं में भी वह उपयुक्त लगती हैं। बॉबी देओल और अक्षय खन्ना अपने-अपने किरदारों को सफाई से अदा कर देते हैं। उनके लिए कोई चुनौती थी भी नहीं।
अमूमन अब्बास-मस्तान की फिल्मों का संगीत मधुर और लोकरुचि का होता है। म्यूजिक कंपनी टिप्स की फिल्म होने के बावजूद 'नकाब' का संगीत साधारण है। प्रीतम का संगीत 'मेट्रो' में बहुत लोकप्रिय हुआ था, लेकिन 'नकाब' के चालू संगीत में वे निराश करते हैं। क्या रमेश तौरानी कानसेन (सुनकर संगीत समझने वाले) नहीं रहे? 'नकाब' निर्देशक अब्बास-मस्तान की कमजोर और लचर फिल्म है।
कहानी सोफी (उर्वशी शर्मा), विक्की (अक्षय खन्ना) और करण (बॉबी देओल) की है। यह एक अनोखा प्रेम त्रिकोण है, जिसमें सोफी पाला बदलती रहती है। करण का एक दूसरा चेहरा भी है राहुल। कहानी रोचक और समझ में आने लायक तरीके से आगे बढ़ती है, लेकिन करण की नकली आत्म हत्या के बाद कहानी के तार ऐसे उलझते हैं कि हम बार-बार क्यों॥क्यों सवाल करते हैं और हमें किरदारों के बदलते रवैए का कारण समझ में नहीं आता। रहस्यात्मक और थ्रिलर कहानियों में जब रहस्य खुलता है, तो सब कुछ स्पष्ट हो जाता है। 'नकाब' में अंत तक पता ही नहीं चलता कि किरदारों के संबंध क्यों और कैसे बदल रहे हैं? इसके अलावा, हिंदी फिल्मों और भारतीय कथा परंपरा में कभी खल चरित्रों को विजयी होता नहीं दिखाया जाता, 'नकाब' में हत्यारे छूट निकलते हैं। यह 21वीं सदी का बॉलीवुड सिनेमा है। इस फिल्म की एकमात्र उपलब्धि उर्वशी शर्मा है। पहली फिल्म में भी उनका आत्मविश्वास झलकता है। सोफी के द्वंद्व और दुविधा को वह एक हद तक निभा ले जाती हैं। आधुनिक हीरोइनों के लिए जरूरी नृत्य और अन्य अदाओं में भी वह उपयुक्त लगती हैं। बॉबी देओल और अक्षय खन्ना अपने-अपने किरदारों को सफाई से अदा कर देते हैं। उनके लिए कोई चुनौती थी भी नहीं।
अमूमन अब्बास-मस्तान की फिल्मों का संगीत मधुर और लोकरुचि का होता है। म्यूजिक कंपनी टिप्स की फिल्म होने के बावजूद 'नकाब' का संगीत साधारण है। प्रीतम का संगीत 'मेट्रो' में बहुत लोकप्रिय हुआ था, लेकिन 'नकाब' के चालू संगीत में वे निराश करते हैं। क्या रमेश तौरानी कानसेन (सुनकर संगीत समझने वाले) नहीं रहे? 'नकाब' निर्देशक अब्बास-मस्तान की कमजोर और लचर फिल्म है।
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