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दरअसल : फिल्म लेखक बनना है तो...

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-अजय ब्रह्मात्मज     आए दिन कभी कोई साहित्यकार मित्र या फेसबुक के जरिए बने युवा दोस्त जानना चाहते हैं कि फिल्मों का स्टोरी रायटर कैसे बना जा सकता है? हर किसी के पास एक कहानी है, जिसे वह जल्दी से जल्दी फिल्म में बदलना चाहता है। साहित्यकारों को लगता है कि उन्होंने आधा काम कर लिया है। अब उन्हें अपनी कहानी या उपन्यास को केवल पटकथा में बदलना है। गैरसाहित्यिक व्यक्तियों को भी लगता है कि अपने अनुभवों के कुएं में जब भी बाल्टी डालेंगे कहानी निकल आएगी। मुंबई में फिल्म पत्रकारिता करते हुए अनेक लेखकों से मिलना-जुलना हुआ है। उनसे हुई बातचीत और उनकी कार्यप्रणाली को नजदीक से परखने के बाद कुछ सामान्य बातें की जा सकती हैं। यों हर लेखक का संघर्ष अलग होता है और सफलता तो बिल्कुल अलग होती है।     सबसे पहले तो यह जान और समझ लें कि इन दिनों अधिकांश निर्देशक खुद ही कहानी लिखते हैं। यह चलन पहले भी था, लेकिन अब यह प्रचलन बन चुका है। निर्देशक अपने संघर्ष के दौरान बेकारी के दिनों में लेखक मित्रों के साथ बैठ कर कहानियां रचते हैं और मौका मिलते ही धड़ाधड़ फिल्मों की घोषणाएं करने ल...

बलराज साहनी- जो बात तुझमें है तेरी तस्वीर में नहीं: चंदन श्रीवास्तव

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चंदन श्रीवास्‍तव का यह लेख तिरछी स्‍पेलिंग से संरक्षित किया गया है। उन्‍होंने इस लेख में चवन्‍नी चैप से उद्धरण लिए हैं।  -चंदन श्रीवास्तव अभिनय महान कहलाएगा बशर्ते अभिनेता किरदार को ऐसे निभाये कि उसका अपना व्यक्तित्व तिरोहित हो जाय, वह ना रहे, निभाया गया किरदार ही रहे। इस पंक्ति को पढ़कर किसी को कबीर याद आ जायें तो क्या अचरज- ‘जब मैं था तब हरि नहीं- अब हरि हैं हम नाहीं ’! अचरज कीजिए कि बलराज साहनी के अभिनय की ऊंचाई को ठीक-ठीक इसी कसौटी पर महान ठहराया जाता है, यह भूलते हुए कि कबीर का समय बलराज साहनी के समय से अलग है, और ठीक इसीलिए 15 वीं सदी के भक्त का अपनी भाव-वस्तु से जो तादात्म्य संभव रहा होगा वह शायद बीसवीं सदी के किसी अभिनेता का अपने किरदार के साथ संभव ना भी हो । आख़िर चेतना का वस्तूकरण, व्यक्तित्व का विघटन, संवेदना का विच्छेद जैसे पद बीसवीं सदी के मनुष्य को समझने-समझाने की गरज से आये थे। अचरज कीजिए कि खुद बलराज साहनी ने भी अपनी तरफ़ से अभिनय की महानता की कसौटी प्रस्तुत करने की कोशिश की तो किर...

फिल्‍म समीक्षा : गोरी तेरे प्‍यार में

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  धर्मा प्रोडक्शन के बैनर तले बनी पुनीत मल्होत्रा की फिल्म 'गोरी तेरे प्यार में' पूरी तरह से भटकी, अधकचरी और साधारण फिल्म है। ऐसी सोच पर फिल्म बनाने का दुस्साहस करण जौहर ही कर सकते थे। करण जौहर स्वयं क्रिएटिव और सफल निर्देशक हैं। उन्होंने कुछ बेहतरीन फिल्मों का निर्माण भी किया है। उनसे उम्मीद रहती है, लेकिन 'गोरी तेरे प्यार में' वे बुरी तरह से चूक गए हैं। जोनर के हिसाब से यह रोमांटिक कामेडी है। इमरान खान और करीना कपूर जैसे कलाकारों की फिल्म के प्रति दर्शकों की सहज उत्सुकता बन जाती है। अफसोस है कि इस फिल्म में दर्शकों की उत्सुकता भहराकर गिरेगी। दक्षिण भारत के श्रीराम (इमरान खान) और उत्तर भारत की दीया (करीना कपूर) की इस प्रेमकहानी में कुछ नए प्रसंग,परिवेश और घटनाएं हैं। उत्तर-दक्षिण का एंगल भी है। ऐसा लगता है कि लेखक-निर्देशक को हीरो-हीरोइन के बीच व्यक्ति और समाज का द्वंद्व का मसाला अच्छा लगा। उन्होंने हीरोइन की सामाजिक प्रतिबद्धता को हीरो के प्रेम में अड़चन की तरह पेश किया है। हाल-फिलहाल तक हीरोइन का साथ और हाथ हासिल करने के लिए ही...

फिल्‍म समीक्षा : सिंह साहब द ग्रेट

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- अजय ब्रह्मात्मज अनिल शर्मा और सनी देओल की जोड़ी ने 'गदर एक प्रेमकथा' जैसी कामयाब फिल्म दी है। दोनों ने फिर 'अपने' में साथ काम किया, इस फिल्म में धर्मेन्द्र और बाबी देओल भी थे। अनिल शर्मा ने एक बार फिर सनी देओल की छवि का उपयोग किया है। सनी का ढाई किलो का मुक्का अब साढ़े तीन किलो का हो चुका है। 'सिंह साहब द ग्रेट' में बार-बार सिख धर्म के गुरुओं और सरदार होने के महत्व का संदर्भ आता है, लेकिन अफसोस की बात है कि इस परिप्रेक्ष्य के बावजूद 'सिंह साहब द ग्रेट' के लिए साहब के वैचारिक महानता पर्दे पर अत्यंत हिंसक रूप में नजर आती है। हालांकि वह 'बदला नहीं बदलाव' से प्रेरित हैं। 'सिंह साहब द ग्रेट' की कहानी भ्रष्टाचार के खिलाफ कटिबद्ध एक कलक्टर की है। कलक्टर भदौरी नामक इलाके में नियुक्त होकर आते हैं। वहां उनकी भिड़ंत स्थानीय सामंत भूदेव से होती है। भूदेव के करोड़ों के अवैध कारोबार को रोकने और रेगुलट करने की मुहिम में वे स्वयं साजिश के शिकार होते हैं। उन्हें जेल भी हो जाती है। सजा कम होने पर जेल से छूटने के बाद वे सीधे भूदेव से बद...

44 वां अंतर्राष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह

-अजय ब्रह्मात्‍मज सन् 2004 में अंतर्राष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह गोवा पहुंचा। तय हुआ कि अब यह पहले की तरह बारी-बारी से दिल्‍ली और अन्‍य शहरों में आयोजित नहीं होगा। दूसरे देशों के इंटरनेशनल फिल्‍म फेस्टिवल के तर्ज पर भारत का एक शहर अंतर्राष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह के लिए सुनिश्चित किया गया। गोवा देश का प्रमुख पर्यटन शहर हे। समुद्र, मौसम और संभावनाओं के साथ गोवा अंतर्राष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह का स्‍थायी आयोजन स्‍थल बना। पिछले दस सालों में गोवा में आयोजित भारत के अंतर्राष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह की खास पहचान बन गई है। रोचक तथ्‍य है कि आरंभिक सालों में गोवा के दर्शकों की संख्‍या कम रहती थी। अब बाहर से आए प्रतिनिधियों की तुलना में गोवा के दर्शकों की भीड़ बढ़ गई है। देश ’ विदेश के प्रतिनिध तो आते ही हैं।      थोड़ा पीछे चलें तो देश की आजादी के पांच सालों के बाद पहला अंतर्राष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह 1952 में मुंबई में आयोजित हुआ। भारत सरकार की इस पहल को तत्‍कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का समर्थन प्राप्‍त था। मुंबई में आयोजित पहले फिल्‍म सामारोह में वे स्‍वयं शामिल हुए ...