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इम्तियाज अली की सिनेमाई चेतना - राहुल सिंह

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चवन्‍नी के पाठकों के  लिए मोहन्ल्‍ला लाइव से साधिकार                                                                                                    सो चा न था कि फकत चार फिल्मों में लगभग एक-सी ‘सिचुएशन्स’ को ‘एक्सप्लोर’ करते हुए, कोई हमारे समय के ‘मेट्रोपोलिटियन यूथ’ की ‘साइकि’ को (खासकर मुहब्बत के मामले) में इस कदर पकड़ सकता है। ‘सोचा न था’ से लेकर ‘रॉक स्टार’ के बीच के फासले को जिस अंदाज में इम्तियाज अली ने तय किया है, वह थोड़ा गौरतलब है। कंटेंट इम्तियाज अली की पहली फिल्म ‘सोचा न था’ का हीरो वीरेन (अभय देओल) एक रीयल स्टेट के समृद्ध कारोबारी परिवार से है। दूसरी फिल्म, ‘जब वी मेट’ में आदित्य कश्यप (शाहिद कपूर) एक बड़े इंडस्ट्रियलिस्ट परिवार से है। तीसरी फिल्म, ‘लव आज कल’ में जय (सैफ अली खान) एक कैरियरिस्ट यु...

बलराज साहनी पर विष्णु खरे

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चवन्‍नी के पाठकों के लिए बुद्धू-बक्‍सा से साभार...  [शायद मुट्ठी भर से भी कम लोगों को इसका भान होगा कि ठीक आज से बलराज साहनी की जन्मशती शुरू हो रही है. इस मौके पर विष्णु खरे ने एक बहुत संगठित और जानकारियों से भरा हुआ आलेख लिखा है, जो आज के 'नवभारत टाईम्स' में प्रकाशित है. हिन्दी सिनेमा के ठप्पों को बेहद लफ्फाज़ी और बेतुके तरीकों से याद करने का प्रचलन हिन्दी में चल पड़ा है, जिससे सिनेमा लेखन का जो नुकसान होना होता है वह हो ही रहा है, साथ ही साथ सिनेमा का भी हो रहा है. फ़िर भी, इस विषयान्तर तर्क को सही मानते हुए बुद्धू-बक्सा विष्णु खरे की इस अनन्य अनुमति को आभार के साथ आपके साथ साझा करता है.] संभव है आज की औसत युवा पीढ़ी उनका नाम और चेहरा न जानती हो, शायद जानना भी न चाहती हो क्योंकि उसके काबिल न हो, लेकिन चालीस साल पहले, जब वह साठ वर्ष के होने ही जा रहे थे, बल्रराज साहनी (1 मई 1913 – 13 अप्रैल 1973) के नितांत असामयिक और अन्यायपूर्ण निधन ने देश के करोड़ों सिने-दर्शकों को स्तब्ध और बेहद रंज़ीदा कर दिया था. त्रासद विडंबना यह थी कि एम.एस.सत्यु की कालजयी फिल्म “गर्म...

ब्लॉकबस्टर राइटर्स साजिद-फरहाद -रघुवेन्‍द्र सिंह

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एक के बाद एक ब्लॉकबस्टर फिल्में लिख रही सगे भाइयों साजिद-फरहाद की जोड़ी से रघुवेन्द्र सिंह ने की विशेष भेंट हिंदी सिनेमा में लंबे समय के बाद लेखक की किसी जोड़ी ने तहलका मचाया है. उनकी लिखित फिल्में बॉक्स-ऑफिस पर रिकॉर्ड तोड़ बिजनेस न करें, ऐसा असंभव है. गोलमाल रिटन्र्स, ऑल द बेस्ट, गोलमाल 3, रेडी, सिंघम, बोल बच्चन की कामयाबी की दास्तान बच्चा-बच्चा जानता है. जनाब! अब आलम यह है कि साजिद-फरहाद की जोड़ी को ब्लॉकबस्टर जोड़ी कहकर संबोधित किया जा रहा है. मगर इस मुकाम तक पहुंचने का सफर गैर फिल्मी पृष्ठभूमि के साजिद-फरहाद के लिए बिल्कुल आसान नहीं रहा है.   साजिद-फरहाद की पैदाइश बांद्रा (मुंबई) में एक आगा खानी मुस्लिम परिवार में हुई. फरहाद से साजिद सात साल बड़े हैं. दोनों का फिल्म जगत से खून का कोई रिश्ता नहीं था. मगर हां, फिल्मों से एक गहरा रिश्ता बचपन में ही जरुर कायम हो गया था. पैसे इकट्ठा करके दोनों भाई बांद्रा के गेटी-गैलेक्सी थिएटर में अमिताभ बच्चन की फिल्में देखने जाया करते थे. लेकिन अचानक डैड की तबियत नासाज हुई और डॉक्टर की सलाह पर डैड की सेहत की बेह...

पब्लिक सब जानती है : जॉन अब्राहम

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  खान त्रयी और कपूर हीरो सरीखा स्टार कद रखते हैं जॉन अब्राहम। वे मार्केटिंग के स्टूडेंट रहे हैं और उसका बखूबी इस्तेमाल अपनी फिल्मों में कर रहे हैं। बतौर एक्टर तो उन्होंने खुद को स्थापित किया ही है, फिल्ममेकर के तौर पर भी वे एक विश्वसनीय ब्रांड बन चुके हैं। -अजय ब्रह्मात्मज इस फिल्म को लेकर आप को नहीं लगता कि आप थोड़े ज्यादा प्रो-मार्केटिंग हो गए हैं? मैं यह बताना चाहता हूं कि पहले तो इन सारे प्रमोशन में मैं बिलीव नहीं करता। मैं इतना अग्रेसिव हूं या एक्साइटेड हूं, क्योंकि मुझे पता है कि यह फिल्म क्या है? फिल्म इतनी अच्छी बनी है कि मैं जरूरत से ज्यादा अग्रेसिव और एक्साइटेड हो गया हूं। अब उस एक्साइटमेंट में मैं लोगों को इस फिल्म के बारे में बताना चाहता हूं। यह चीज अब प्रमोशन में रुपांतरित हो रही है तो बहुत अच्छी बात है। नहीं हो रहा है तो कोई बात नहीं, क्योंकि मेरे हिसाब से अजय जी और यह फैक्ट है कि पब्लिक डिसीजन पहले ही बना लेती है फिल्म का प्रोमो देखकर। उसके बाद उन्हें फस्र्ट प्रोमो अच्छी लगी हो तो वे फिल्म देखने सिनेमाघर पहुंचते हैं। अगर आप मार्केटिंग और करें त...

One Century, A Million Milestones- Anna M.M. Vetticad

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  - Anna M.M. Vetticad ( आप अन्‍ना के लेख यहां पढ़ सकते हैं। ) Byari:  An Indian language that even most Indians have not heard of. Byari:  The title of the Best Feature Film at this year’s National Awards. For a foreigner, there is no better showcase of Indian heterogeneity than Indian cinema. And to understand India’s wildly diverse cinema in the 100th year since the release of the country’s first feature film, Raja Harishchandra, there are few commentaries more educative than the National Film Awards that were given away last month. For most of the world, Indian cinema is synonymous with Bollywood song and dance, but neither Byari nor Deool – joint winners of the Best Feature Film Award – would fall into that slot. For one, they are not in Hindi. Byari is made in a little-known dialect spoken by a Muslim community inhabiting the country’s south-western coastline, and highlights the impact on women of stringent religious and social codes. Deool,...