‘सफ़दर हाशमी हमेशा किसी मोहल्ले में थोड़े से लोगों के बीच ही मारे जाते हैं’: दिबाकर बनर्जी
यह पोस्ट गौरव सोलंकी के ब्लॉग रोटी,कपड़ा और सिनेमा से चवन्नी के पाठकों के लिए उठा ली गई है।'शांघाई' को समझने में इससे मदद मिलेगी। -गौरव सोलंकी ‘शां घाई ’ को रिलीज हुए तीन दिन हो चुके हैं। हम उन लोगों से मिलना चाहते हैं, जिन्होंने बिना किसी शोरशराबे के, अचानक एक अनूठी राजनैतिक फ़िल्म हमारे सामने लाकर रख दी है। ऐसी फ़िल्म, जो बहुत से लोगों को सिर्फ़ इसीलिए बुरी लग जाती है कि वह क्यों उन्हें झकझोरने की कोशिश करती है, उनकी आरामदेह अन्धी बहरी दुनिया में क्यों नहीं उन्हें आराम से नहीं रहने देती, जिसमें वे सुबह जगें, नाश्ता करें, काम पर जाते हुए एफ़एम सुनें जिसमें कोई आरजे उन्हें बताए कि वैलेंटाइन वीक में उन्हें क्या करना चाहिए, किसी सिगनल पर कोई बच्चा आकर उनकी कार के शीशे को पोंछते हुए पैसे मांगे तो उसे दुतकारते हुए अपने पास बैठे सहकर्मी को बताएं कि कैसे भिखारियों का पूरा माफ़िया है और वह सामने जो एक तीन साल के बच्चे की पसलियां उसके शरीर से बाहर आने को हैं, वह दरअसल एक नाटक है। फिर ऑफिस में पहुंचें और वे काम करें जिनके बारे में उन्हें ठीक से नहीं पता कि किसके लिए कर रहे हैं ...