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फिल्‍म समीक्षा : हिचकी

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फिल्‍म समीक्षा रानी की मुनासिब कोशिश हिचकी -अजय ब्रह्मात्‍मज शुक्रिया रानी मुखर्जी। आप अभी जिस ओहदे और शौकत में हैं , वहां आप के लिए किसी भी विषय पर फिल्‍म बनाई जा सकती है। देश के धुरंधर फिल्‍मकार आप के लिए भूमिकाएं लिख सकते हैं। फिर भी आप ने ‘ हिचकी ’ चुनी। पूरी तल्‍लीनता के साथ उसमें काम किया और एक मुश्किल विषय को दर्शकों के लिए पेश किया। कहा जा सकता है कि आप की वजह से यह ‘ हिचकी ’ बन सकी। मुनीष शर्मा और सिद्धार्थ पी मल्‍होत्रा की यह कोशिश देखने लायक है। ‘ हिचकी ’ की कहानी दो स्‍तर पर चलती है। एक स्‍तर पर तो यह नैना माथुर(रानी मुखर्जी) की कहानी है। दूसरे स्‍तर पर यह उन उदंड किशोरों की भी कहानी है , जो सभ्‍य समाज में अनके वंचनाओं के कारण अवांछित हैं।   नैना माथुर टॉरेट सिनड्राम से ग्रस्‍त हैं। इसमें खूब हिचकियां आती हैं और बार-बार आती हैं। इस सिंड्रोम की वजह से उन्‍हें 12 स्‍कूल बदलने पड़े हैं। स्‍नातक होने के बाद पिछले पांच सालों मेंउन्‍हें 18 बार नौक‍रियों से रिजेक्‍ट किया गया है। उन्‍होंने ठान लिया है कि उन्‍हें टीचर ही बनना है। स्क्रिप्‍ट का विधान ऐसा बनता है क

फिल्‍म समीक्षा : सोनू के टीटू की स्‍वीटी

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फिल्‍म समीक्षा : सोनू के टीटू की स्‍वीटी -अजय ब्रह्मात्‍मज हिंदी फिल्‍मों में निर्देशक और अभिनेता की जोड़ी ने कमाल किए हैं। परस्‍पर भरोसे से कुछ बेहतरीन फिल्‍में आई हैं। लव रंजन और कार्तिक आर्यन की जोड़ी ने ‘प्‍यार का पंचनामा’(1-2),आकाशवाणी और अब ‘सोनू के टीटू की स्‍वीटी’ जैसी फिल्‍में दी हैं। इन फिल्‍मों को क्‍लासिक के दर्जे में नहीं डाल सकते,लेकिन ये कल्‍ट ब्रांड की फिल्‍में हैं। अकेले लव रंजन ही ऐसी फिल्‍में बना रहे हैं। दरअसल,इस तरह की फिल्‍मों के लिए बात और स्‍वभाव में देसी होना जरूरी है। अगर आप अपने समय और समाज में पगे होंगे,तभी ऐसी फिल्‍में लेकर आ सकते हैं। इन फिल्‍मों में कोई बड़ी बात नही कही गई है। रोजमर्रा की बातों का ही ऐसे नजरिए और एटीट्यूड के साथ पेश किया गया है कि किरदारों में आज के युवक दिखते हैं। लव रंजन की फिल्‍में मुख्‍य रूप से लड़कों के नजरिए से पेश की जाती हैं। उनकी लड़कियां कतई कमजोर नहीं होतीं,लेकिन लड़कों के ज्‍यादा दृश्‍यों और प्रसंगों की वजह से दरकिनार होती नजर आती हैं। गौर करें तो लव रंजन के किरदार शहरी और महानगरीय दिखते हैं,लेकिन उनकी मानसिकता उत

फिल्‍म समीक्षा : जब हैरी मेट सेजल

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फिल्‍म रिव्‍यू मुकम्‍मल सफर जब हैरी मेट सेजल -अजय ब्रह्मात्‍मज इम्तियाज अली की फिल्‍मों का कथ्‍य इरशाद कामिल के शब्‍दों में व्‍यक्‍त होता है। उनकी हर फिल्‍म में जो अव्‍यक्‍त और अस्‍पष्‍ट है,उसे इरशाद कामिल के गीतों में अभिव्‍यक्ति और स्‍पष्‍टता मिलती है। फिल्‍मों में सगीत और दृश्‍यों के बीच पॉपुलर स्टारों की मौजूदगी से गीत के बालों पर ध्‍यान नहीं जाता। हम दृश्‍यों और प्रसंगों में तालमेल बिठा कर किरदारों को समझने की कोशिश करते रहते हैं,जबकि इरशाद इम्तियाज के अपेक्षित भाव को शब्‍दों में रख चुके होते हैं। ‘ जब हैरी मेट सेजल ’ के पहले गीत में ही हरिन्‍दर सिंह नेहरा उर्फ हैरी अपने बारे में कहता है ... मैं तो लमहों में जीता चला जा रहा हूं मैं कहां पे जा रहा हूं कहां हूं ? .............. ............... जब से गांव से मैं शहर हुआ इतना कड़वा हो गया कि जहर हुआ इधर का ही हूं ना उधर का रहा सालों पहले पंजाब के गांवों से यूरोप पहुंचा हैरी निहायत अकेला और यादों में जीता व्‍यक्ति है। कुछ है जो उसे लौटने नहीं दे रहा और उसे लगातार खाली करता जा रहा है। उसका कोई स्‍थ

फिल्‍म समीक्षा : गुड़गांव

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फिल्‍म रिव्‍यू सटीक परिवेश और परफारमेंस गुड़गांव -अजय ब्रह्मात्‍मज हिंदी फिल्‍में संवादों पर इतनी ज्‍यादा निर्भर हो चुकी हैं और उनकी दर्शकों को ऐसी आदत पड़ गई है कि किसी फिल्‍म में निर्देशक भाव,संकेत और मुद्राओं से काम ले रहा हो तो उनकी बेचैनी बढ़ने लगती है। दर्श्‍क के तौर पर हमें चता नहीं चलता कि फिल्‍म हमें क्‍यो अच्‍छी नहीं लग रही है। दरअसल,हर फिल्‍म ध्‍यान खींचती है। एकाग्रता चाहिए। दर्शक्‍ और समीक्षक इस एकाग्रता के लिए तैयार नहीं हैं। उन्‍हें अपने मोबाइल पर नजर रखनी है या साथ आए दर्शक के साथ बातें भी करनी हैं। आम हिंदी फिल्‍मों में संवाद आप की अनावश्‍यक जरूरतों की भरपाई कर देते हैं। संवादों से समझ में आ रहा होता है कि फिल्‍म में क्‍या ड्रामा चल रहा है ? माफ करें, ‘ गुड़गांव ’ देखते समय आप को फोन बंद रखना होगा और पर्देपर चल रही गतिविधियों पर ध्‍यान देना होगा। नीम रोशनी में इस फिल्‍म के किरदारों की भाव-भंगिमाओं पर गौर नहीं किया तो यकीनन फिल्‍म पल्‍ले नहीं पड़ेगी। शंकर रमन की ‘ गुड़गांव ’ उत्‍कृष्‍ट फिल्‍म है। दिल्‍ली महानगर की कछार पर बसा गांव ‘ गुड़गांव ’ ज

फिल्‍म समीक्षा : बेगम जान

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फिल्‍म रिव्‍यू बेगम जान अहम मुद्दे पर बहकी फिल्‍म -अजय ब्रह्मात्‍मज फिल्‍म की शुरूआत 2016 की दिलली से होती है और फिल्‍म की समाप्ति भी उसी दृश्‍य से होती है। लगभग 70 सालों में बहुत कुछ बदलने के बाद भी कुछ-कुछ जस का तस है। खास कर और तों की स्थिति...फिल्‍म में बार-बार बेगम जान औरतों की बात ले आती है। आजादी के बाद भी उनके लिए कुछ नहीं बदलेगा। यही होता भी है। बाल विधवा हुई बेगम जान पहले रंडी बनती है और फिर तवायफ और अंत में पंजाब के एक राजा साहब की शह और सहाता से कोठा खड़ी करती है,जहां देश भर से आई लड़कियों को शरण मिलती है। दो बस्तियों के बीच बसा यह कोठा हमेशा गुलजार रहता है। इस कोठे में बेगम जान की हुकूमत चलती है। दुनिया से बिफरी बेगम जान हमेशा नाराज सी दिखती हैं। उनकी बातचीत में हमेशा सीख और सलाह रहती है। जीवन के कड़े व कड़वे अनुभवों का सार शब्‍दों और संवादों में जाहिर होता रहता है। कोइे की लड़कियों की भलाई और सुरक्षा के लिए परेशान बेगम जान सख्‍त और अनुशासित मुखिया है। आजादी मिलने के साथ सर सिरिल रेडक्लिफ की जल्‍दबाजी में खींची लकीर से पूर्व और पश्चिम में देश की विभाज

फिल्‍म समीक्षा : ओके जानू

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फिल्‍म रिव्‍यू ओके जानू -अजय ब्रह्मात्‍मज शाद अली तमिल के मशहूर निर्देशक मणि रत्‍नम के सहायक और शागिर्द हैं। इन दिनों उस्‍ताद और शाग्रिर्द की ऐसी जोड़ी कमू दिखाई देती है। शाइ अली अपने उस्‍ताद की फिल्‍मों और शैली से अभिभूत रहते हैं। उन्‍होंने निर्देशन की शुरूआत मणि रत्‍नम की ही तमिल फिल्‍म के रीमेक ‘ साथिया ’ से की थी। ‘ साथिया ’ में गुलजार का भी यागदान था। इस बार फिर से शाद अली ने अपने उस्‍ताद की फिल्‍म ‘ ओके कनमणि ’ को हिंदी में ‘ ओके जानू ’ शीर्षक से पेश किया है। इस बार भी गुलजार साथ हैं। मूल फिल्‍म देख चुके समीक्षकों की राय में शाद अली ने कुछ भी अपनी तरफ से नहीं जोड़ा है। उन्‍होंने मणि रत्‍नम की दृश्‍य संरचना का अनुपालन किया है। हिंदी रीमेक में कलाकार अलग हैं,लोकेशन में थोड़ी भिन्‍नता है,लेकिन सिचुएशन और इमोशन वही हैं। यों समझें कि एक ही नाटक का मंचन अलग स्‍टेज और सुविधाओं के साथ अलग कलाकारों ने किया है। कलाकरों की अपनी क्षमता से दृश्‍य कमजोर और प्रभावशाली हुए हैं। कई बार सधे निर्देशक साधारण कलाकारों से भी बेहतर अभिनय निकाल लेते हैं। उनकी स्क्रिप्‍ट कलाकारों

फिल्‍म समीक्षा : डियर जिंदगी

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फिल्‍म समीक्षा डियर जिंदगी -अजय ब्रह्मात्‍मज हम सभी की जिंदगी जितनी आसान दिखती है,उतनी होती नहीं है। हम सभी की उलझनें हैं,ग्रंथियां हैं,दिक्कतें हैं...हम सभी पूरी जिंदगी उन्‍हें सुलझाते रहते हैं। खुश रहने की कोशिश करते हैं। अनसुलझी गुत्थियों से एडजस्‍ट कर लेते हैं। बाहर से सब कुछ शांत,सुचारू और स्थिर लगता है,लेकिन अंदर ही अंदर खदबदाहट जारी रहती है। किसी नाजुक क्षण में सच का एहसास होता है तो बची जिंदगी खुशगवार हो जाती है। गौरी शिंदे की ‘ डियर जिंदगी ’ क्‍यारा उर्फ कोको की जिंदगी में झांकती है। क्‍यारा अकेली ऐसी लड़की नहीं है। अगर हम अपने आसपास देखें तो अनेक लड़कियां मिलेंगी। वे सभी जूझ रही हैं। अगर समय पर उनकी भी जिंदगी में जहांगीर खान जैसा ‘ दिमाग का डाक्‍टर ’ आ जाए तो शेष जिंदगी सुधर जाए। हिंदी फिल्‍मों की नायिकाएं अब काम करने लगी हैं। उनका एक प्रोफेशन होता है। क्‍यारा उभरती सिनेमैटोग्राफर है। वह स्‍वतंत्र रूप से फीचर फिल्‍म शूट करना चाहती है। उसे रघुवेंद्र से आश्‍वासन मिलता है। संयोग कुछ ऐसा बनता है कि वह स्‍वयं ही मुकर जाती है। मानसिक दुविधा में वह अनिच्‍छा के सा

फिल्‍म समीक्षा : मोह माया मनी

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फिल्‍म समीक्षा महानगरीय माया मोह माया मनी -अजय ब्रह्मात्‍मज मुनीष भारद्वाज ने महानगरीय समाज के एक युवा दंपति अमन और दिव्‍या को केंद्र में रख कर पारिवारिक और सामाजिक विसंगतियों को जाहिर किया है। अमन और दिव्‍या दिल्‍ली में रहते हैं। दिव्‍या के पास चैनल की अच्‍छी नौकरी है। वह जिम्‍मेदार पद पर है। अमन रियल एस्‍टेट एजेंट है। वह कमीशन और उलटफेर के धंधे में लिप्‍त है। उसे जल्‍दी से जल्‍दी अमीर होना है। दोनों अपनी जिंदगियों में व्‍यस्‍त है। शादी के बाद उनके पास एक-दूसरे के लिए समय नहीं है। समय के साथ मुश्किलें और जटिलताएं बढ़ती हैं। अमन दुष्‍चक्र में फंसता है और अपने अपराध में दिव्‍या को भी शामिल कर लेता है। देखें तो दोनों साथ रहने के बावजूद एक-दूसरे से अनभिज्ञ होते जा रहे हैं। महानगरीय परिवारों में ऐसे संबंध दिखाई पड़ने लगे हैं। कई बार वे शादी के कुछ सालों में ही तलाक में बदल जाते हैं या फिर विद्रूप तरीके से किसी कारण या स्‍वार्थ की वजह से चलते रहते हैं। मुनीष भारद्वाज ने वर्तमान उपभोक्‍ता समाज के दो महात्‍वाकांक्षी व्‍य‍क्तियों की एक सामान्‍य कहानी ली है। उन्‍होंने नए प्रसं