सिनेमालोक : फनीश्वरनाथ रेणु और 'तीसरी कसम'
सिनेमालोक
फनीश्वरनाथ रेणु और 'तीसरी कसम'
-अजय ब्रह्मात्मज
कल 4 मार्च को फनीश्वरनाथ रेणु का जन्मदिन है. यह साल उनकी जन्मशती का साल भी है. जाहिर सी
बात है कि देशभर में उन्हें केंद्र में रखकर गोष्ठियां होंगी. विमर्श होंगे. नई
व्याख्यायें भी हो सकती हैं. कोई और वक्त होता तो शायद बिहार में उनकी जन्मशती पर
विशेष कार्यक्रमों का आयोजन होता. उन्हें याद किया जाता है. उनकी प्रासंगिकता को
रेखांकित किया जाता. फिलहाल सरकार और संस्थाओं को इतनी फुर्सत नहीं है. उनकी मंशा
भी नहीं रहती कि साहित्य और साहित्यकारों पर केंद्रित आयोजन और अभियान चलाए जाएं.
साहित्य स्वभाव से ही जनपक्षधर रोता है. साहित्य विमर्श में वर्तमान राजनीति में
पचलित जनविरोधी गतिविधियां उजागर होने लगती हैं, इसलिए खामोशी ही बेहतर है.
हालांकि अभी देश भर में लिटररी फेस्टिवल चल रहे हैं, लेकिन आप गौर करेंगे कि इन
आयोजनों में आयोजकों और प्रकाशकों की मिलीभगत से केवल ताजा प्रकाशित किताबों और
लेखकों की चर्चा होती है.
फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म पूर्णिया जिले के औराही हिंगना गांव
में 4 मार्च 1921 को हुआ था. स्कूल के दिनों से ही जागरूक और राजनीतिक रूप से
सक्रिय रेणु ने अपने समय के आंदोलनों में हिस्सा लिया. 1942 के
भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की वजह से जेल भी गए. उन्होंने नेपाल की
सशस्त्र क्रांति में भी हिस्सा लिया था, रेणु हमेशा दमन, शोषण और असमानता की
विरोधी रहे. उनके लेखन में विरोध का स्थायी स्वर प्रखर है. कहानी, उपन्यास और रिपोर्ताज
में भी अपने इलाके के दुख-दर्द को शब्दांकित करते रहे. उन्होंने गंवई चरित्रों के
मर्म को समझा. उन्हें अपने लेखन में आदर और प्यार के साथ ले आए. उनके चरित्र
ग्रामीण मासूमियत और ईमानदारी की मूर्ति हैं. साहित्य में अपनी सहिली और शिल्प की
विशेषता और भाषा की स्थानीयता के कारण उन्होंने ‘मैला आंचल’ को आंचलिक कथा कहा.
बाद में वे हिंदी साहित्य के आंचलिक कथाकार के रूप में विख्यात हुए. उनकी यह
विशेषता उनकी ख्याति की सीमा भी बन गयी. प्रेमचंद के बाद भारतीय गांव-समाज के इस
चितेरे लेखक को साहित्य में योगदान के अनुरूप स्थान नहीं मिला. उन्होंने ग्रामीण
यथार्थ की रोमानी,कारुणिक और कोमल कथाएं लिखी हैं.
इस स्तम्भ में फनीश्वरनाथ रेणु के जन्मदिन और जन्मशती के
उल्लेख का खास कारण है. सभी जानते हैं कि उनकी कहानी ‘मारे गए गुलफाम और तीसरी कसम’
पर शैलेंद्र ने ‘तीसरी कसम’ का निर्माण किया था. ‘तीसरी कसम’ निर्माता शैलेंद्र के
नाम से ही जानी जाती है. मुमकिन है कि फिल्म के निर्देशक बासु भट्टाचार्य का ख्याल
ना आए. दरअसल, ‘तीसरी कसम’ के निर्माण और महत्व की कहानी शैलेंद्र के जरिए ही बताई
और समझी जा सकती है. हिंदी फिल्मों के सुप्रसिद्ध गीतकार शैलेंद्र को रेणु की
कहानियां नबेंदु घोष के सौजन्य से मिली थीं. पांच कहानियों के संग्रह में ‘मारे गए
गुलफाम उर्फ़ तीसरी कसम’ ने शैलेंद्र को अभिभूत किया था. इस कहानी पर वह फिल्म
बनाना चाहते थे. उन्होंने फिल्म भी बनाई. ‘तीसरी कसम’ साहित्य पर बनी ऐसी अनोखी और
अकेली फि ल्म है,जिसके रचनाकार ने कहानी के फिल्मांकन से पूरी संतुष्टि जाहिर की.
आम तौर पर साहित्यकारों की शिकायत रहती है कि उनकी कहानियों और कृतियों की आत्मा
फिल्मों में नहीं आ पाती. रेणुने दबे स्वर में भी ‘तीसरी कसम’ में कभी कोई मीन-मेख
नहीं निकाला. ‘तीसरी कसम’ उदाहरण है कि कैसे शब्दों को दृश्यों में बदला जा सकता
है. सिनेमाई छूट और विस्तार के साथ कहानी के प्रभाव को बढ़ाया जा सकता है.
‘तीसरी कसम’ में ग्रामीण अंचल और किरदारों का सजीव चित्रण हुआ
है. प्रसंगो, दृश्यबंधों और पटकथा में उन किरदारों को हम साक्षात देख सकते हैं.
सक्षम और समर्थ कलाकारों का योगदान कहानी में वर्णित प्रेम और करुणा को बढ़ाता है.
‘तीसरी कसम’ की अनेक खूबियों में सबसे बड़ी खूबी है कि यह मनोरंजन की लोकशैलियों को
बहुत खूबसूरती के साथ फिल्म में समाहित कर उनका दस्तावेजीकरण करती है. पांच-छह दशक पहले तक प्रचलित नौटंकी और मेलों को समझने
और देखने के लिए तीसरी कसम सार्थक संदर्भ सामग्री है. ‘तीसरी कसम; साहित्य और सिनेमा का अद्भुत
योग है. साहित्य से सिनेमा को संजीवनी मिली और सिनेमा ने साहित्य की उम्र बढ़ा दी.
रेणु की तमाम रचनाओं में से ‘तीसरी कसम’ की सर्वाधिक चर्चा सिनेमा जैसे लोकप्रिय
माध्यम की वजह से है. रेणु की अनेक कहानियां वर्णन, चित्रण और लेखन में ‘तीसरी कसम’
के समकक्ष हैं.
उनकी जन्मशती के साल में हमें उनकी रचनाओं से गुजरना चाहिए और ‘तीसरी
कसम’ को बारीकी से देख कर समझना चाहिए.
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