सिनेमालोक : आरके स्टुडियो का संताप
सिनेमा स्टुडियो का संताप
-अजय ब्रह्मात्मज
69 की उम्र में मेरी
चिता सज गई थी. उसके दो
सालों के बाद मेरे वारिसों ने मुझे किसी और के हवाले कर दिया. इसके एवज
में उन्हें कुछ पैसे मिल गए. देश और मुंबई शहर के एक बड़े बिल्डर ने मुझे खरीद
लिया. अभी पिछले शनिवार यानी 15 फरवरी को उस बिल्डर ने एक विज्ञापन के जरिये मेरे बारे में आप
सभी को बताया. मेरी सज-धज चल रही है. कायाकल्प हो गया है मेरा. कभी जहां राज कपूर,उनकी
नायिकाएं, उनके दोस्तों और फिल्म बिरादरी के दूसरे सदस्यों के ठहाके गूंजा करते थे.
बैठकी लगती थी. बोल लिखे जाते थे. धुनें सजती थीं. रात-रात भर शूटिंग होती थी. पार्टियाँ
चलती थीं. फिल्मकारों के सपने साकार होते थे. जल्द ही वहां तीन-चार कमरों के
आलीशान अपार्टमेंट रोशन हो जाएंगे. धड़कने वहां भी होंगी, लेकिन उनमें वे किस्से
और कहकहे नहीं होंगे. आह नहीं होगी.वाह नहीं होगी.
जी आपने सही समझा मैं आर के स्टुडियो हूँ. मैं अपने बारे में
आप सभी को बताना चाहता हूं. मैं राज कपूर का ख्वाब था. पहली फिल्म के निर्माण और
निर्देशन के समय ही आप सभी के राजू ने मेरे बारे में सोचा था. अपनी पीढ़ी का वह
अकेला नायक था,जो ऐसा कुछ सोच रहा था. उसके समकालीन दिलीप कुमार और देव आनंद ने
मुझ जैसी इबारत के बारे में नहीं सोचा. मेरे आका राज कपूर की फिल्म ’बरसात’ की
लोकप्रियता ने उन्हें इतना संपन्न किया कि उन्होंने मेरी ताबीर की. उन्होंने मुंबई
शहर की गहमागहमी से दूर चेंबूर में मेरा ठिकाना बनाया. 2.2 एकड़ जमीन ली और अपना
सुप्रसिद्ध कॉटेज बनाया. स्टुडियो फ्लोर बने और फिर शुरू हुआ सपनों के आकार लेने
का सफर. नरगिस, वैजयंती माला, निम्मी, सिमी ग्रेवाल, जीनत अमान, डिंपल कपाड़िया, पद्मिनी
कोल्हापुरे, मंदाकिनी और जेबा बख्तियार जैसी अभिनेत्रियों की चहचहाहट सुनी थी
मैंने. उनकी हंसी मेरे पेड़ों, दीवारों और अहाते में पैबस्त थीं. अब भी वह हंसी
बिखरी है अगर कोई सुन सके.
राज कपूर ने 1948 से मेरी स्थापना की. उसके बाद अपनी हर फिल्म की शूटिंग यहीं
की. देव आनंद ने भी ‘नवकेतन’ कंपनी बनाई थी, लेकिन उनकी फिल्में मुंबई की सड़कों
पर शूट होती थीं. एक तो उनकी जेब तंग थी और दूसरे उनकी फिल्मों की कहानियां ऐसी
होती थीं. राज कपूर का ख्याल और ख्वाब सचमुच सपनीले थे. उन्हें सेट बनाकर ही
फिल्मों में लाया जा सकता था. अजीब चितेरा था मेरा आरके. आपने मेरे आंगन में शूट
किए गए उनकी फिल्मों के गाने देखे होंगे. यह उनकी और उनके कला निर्देशकों की
कल्पना थी कि ऐसे गानों के बारे में सोचा गया. उन्होंने आठवें और नौवें दशक में
आरके की फिल्मों का प्रोडक्शन कम होने पर दूसरे निर्माताओं को भी आरके स्टूडियो
में शूटिंग का निमंत्रण दिया.
2017 में
लगी आग एक तरह से मेरी चिता ही थी. उसमें सब कुछ स्वाहा हो गया. फ्लोरर
जला. उस कमरे में आग लग गई, जहां राज कपूर की फिल्मों में इस्तेमाल की गई चीजें
यादों के लिए रखी गई थीं. कहें कि यादें ही धू-धू हो गयीं.थी उनकी संतानों को
फुर्सत नहीं थी कि पिता के सपनों के स्टूडियो को सुरक्षित और आबाद रखें. वे अपने
कैरियर और परिवारों में उलझे रहे और मुझे दूहते रहें. उन्हें मुझसे हो रही कमाई से
मतलब था. उन्होंने मेरी साफ-सफाई और रख-रखाव पर ध्यान दिया होता तो मैं आज भी धड़क
रहा होता. फिल्मों की गतिविधियां भीबाद में मुंबई शहर के पश्चिमी उपनगर में शिफ्ट हो गई थीं.
कलाकार भी उधर रहने लगे थे तो कोई मुझसे मिलने नहीं आता था. कभी कोई भूला-भटका
पहुंच जाता था तो मुझे चूमता और मेरे मालिक को याद करता था.
मेरे खरीदारों ने वादा किया है कि मेरी याद और शिनाख्त के लिए वे
मुख्य द्वार को वैसे ही रखेंगे. ‘बरसात; फिल्म से प्रेरित लोगो बचा रहेगा, लेकिन आरके
फिल्म्स एंड स्टुडियो से से सिर्फ स्टुडियो शब्द बचा रहेगा. यह स्टुडियो फिल्मों
के लिए नहीं... उन लग्जरी अपार्टमेंट्स के लिए इस्तेमाल होगा जो अगले कुछ महीनों
में यहाँ आबाद होगा. 20-25 सालों के बाद मेरे
आंगन में जवान और प्रौढ़ हुए बच्चे बताएंगे कि वे जहां रहते हैं, वहां कभी फिल्मों
का दीवाना और शोमैन राज कपूर रहा करता था. वह फिल्में बनाता था और गाता था ‘जीना
यहां. मरना यहां. इसके सिवा जाना कहां?’ मुमकिन होगा तो रहिवासी और प्रेमी खोजेंगे
कि राज कपूर अब कहां हैं?
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