सिनेमालोक : उभरे कलाकार की फीस
सिनेमालोक
उभरे कलाकार की फीस
अजय ब्रह्मात्मज
पिछले दिनों एक प्रोडक्शन हाउस में बैठा हुआ था. उनकी नई फिल्म
की योजना बन रही है. इस फिल्म में एक जबरदस्त भूमिका पंकज त्रिपाठी को ध्यान में
रखकर लिखी गई है. चलन के मुताबिक वे लीड में नहीं है, लेकिन उनका रोल हीरो के पैरेलल
है. उनके होने से फिल्म के दर्शनीयता बढ़ जाएगी. पंकज अपनी फिल्मों में एक रिलीफ
के तौर पर देखे जाते हैं. उनकी मौजूदगी दर्शकों का इंटरेस्ट बढ़ा देती है. कई बार
अनकहा दारोमदार उनके ऊपर होता है. जाहिर सी बात है कि उभरी पहचान और जरूरत से उनकी
मांग बढ़ी है. हफ्ते के सात दिन और दिन के चौबीस घंटों में ही उन्हें फिल्मों के साथ अपनी तकलीफ ,तफरीह और परिवार
के लिए भी जरूरी समय निकालना पड़ता है. मांग और आपूर्ति के पुराने आर्थिक नियम से पंकज
त्रिपाठी के भाव बढ़ गए हैं. पंकज के भाव का बढ़ना ही इस प्रोडक्शन हाउस की
मुश्किलों का सबब बन गया है.
बात चली कि आप तो उन्हें जानते हैं? हां में सिर हिलाने के बाद
आग्रह होता है, उनसे एक बार बात कीजिए ना! बताइए उन्हें हमारे बारे में और फिल्म के
बारे में. निजी तौर पर मैं इस तरह की बैठकोण और मुलाकातों को प्रश्रय नहीं देता,
लेकिन फिल्म बिरादरी से संपर्क और मेलजोल की वजह से कई बार निर्माता और निर्देशक
नए कलाकारों, लेखकों और तकनीशियनों के बारे में पूछते रहते हैं. उस समय जिस किसी
में भी संभावना दिख रही होती है और अगर वह उत्तर भारत का होता है तो मैं सहज ही
बता देता हूं. स्पष्ट कर दूं कि कभी किसी की सिफारिश नहीं करता. जिनके बारे में कभी
बताया या संस्तुति की. उन्हें भी नहीं बताता. कई से तो परिचय भी नहीं रहता. मुझे
याद है कि कुछ जगहों पर पंकज त्रिपाठी का जिक्र करने पर नाक-भौं सिकोड़ने और उनकी
प्रतिभा को नजरअंदाज करने वाले मिल जाते थे. वे उनकी मार्किट वैल्यू की बातें करने
लगते थे. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का दस्तूर है. यहां पहला मौका देने की हिम्मत पारखी
ही कर पाते हैं. वे दांव लगाते हैं`. जरूरी नहीं कि उनके दांव हमेशा सही हों,लेकिन
वे नई प्रतिभाओं को परखने और अवसर देने का काम करते हैं. कभी महेश भट्ट ऐसा करते
थे. फिर रामगोपाल वर्मा आए और अभी अनुराग कश्यप हैं. और भी निर्माता-निर्देशक
होंगे. बड़ी संख्या उन निर्माता-निर्देशकों की है जो किसी प्रतिभा के चमकते ही लपकते
हैं. उसे अग्रिम राशि देकर साइन कर लेते हैं और मुनाफे का ध्यान रखकर प्रोजेक्ट
तैयार करते हैं. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में यही चलता रहता है. इसी प्रक्रिया में
कुछ नयी प्रतिभाएं आती हैं. कुछ टिकती हैं
और कुछ चार दिनों की चमक के बाद खो जाती हैं. पिछले कुछ सालों में उभरे कलाकारों
में रसिका दुग्गल, राधिका मदान, सीमा पाहवा, संजय मिश्रा, पंकज त्रिपाठी आदि का
नाम लिया जा सकता है.
इन दिनों पंकज त्रिपाठी का जलवा है. उनके साथ आए और संघर्ष के
दिनों के उनके साथी लेखक, निर्देशक और निर्माता बन रहे हैं. उन सभी की ख्वाहिश
रहती है कि लोकप्रियता में आगे बढ़ चुके पंकज त्रिपाठी सरीखे कलाकार उनकी फिल्मों
में आ जाएंगे तो उन्हें भी कुछ कर दिखाने का मौका मिल जाएगा. मैंने देखा है कि
ग्रामीण और कस्बाई पृष्ठभूमि से आई प्रतिभाएं अपने साथियों की तरक्की का ख्याल भी
करती हैं, लेकिन ज्यादातर मौकों पर पैसों को लेकर बात अटक जाती हैं. पुराने
साथियों को यही उम्मीद रहती है कि उभर रहा या उभर चुका कलाकार कम पैसों में उनके
साथ काम कर लेगा. उन्हें सहयोग देगा. लोलुप निर्माता भी चाहता है कि संघर्षशील
लेखक और निर्देशक अपने पुराने साथी को कम पैसों में काम करने के लिए राजी कर ले.वास्तव
में मुनाफाखोर निर्माता पुराने साथियों के भावनात्मक रिश्ते का आर्थिक दोहन करना
चाहता है. कुछ निर्माता इस उद्देश्य में सफल भी हो जाते हैं.
पहली फिल्म के बाद ‘इनसाइडर’ या कथित हीरो अपना पारिश्रमिक
बढ़ाए या पहली बड़ी कामयाबी के बाद पारिश्रमिक तिगुना कर दे तो भी कोई दिक्कत नहीं
होती. निर्माता ख़ुशी-ख़ुशी बढ़ी कीमत के लिए तैयार हो जाते हैं. पारिश्रमिक में ऐसी ही
बढ़ोतरी कोई ‘आउटसाइडर’ या सहयोगी कलाकार करे तो उसके बारे में कानाफूसी चालू हो
जाती है... भाव बढ़ गया है.. बदल गया है...ऐंठ आ गई है... उड़ रहा है. ऐसी टिप्पणियां करते समय सभी भूल जाते
हैं कि अपनी बढ़ती लोकप्रियता के अनुपात में उसकी मांग उचित है. हिंदी फिल्म
इंडस्ट्री में कोई स्टैंडर्ड रेट कार्ड तो है नहीं कि कलाकार किस दर से अपने पैसे
बढ़ाए और कितनी रकम उसके लिए उचित मानी जाए?
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