संडे नवजीवन : कमाई और कामयाबी है बायोपिक में
संडे नवजीवन
कमाई और कामयाबी है बायोपिक में
-अजय ब्रह्मात्मज
हर हफ्ते नहीं तो हर महीने कम से कम दो बायोपिक
की घोषणा हो रही है.उनमें से एक में कोई लोकप्रिय स्टार होता है.बायोपिक
निर्माताओं में फिल्म इंडस्ट्री के बड़े बैनर होते हैं.दरअसल,बायोपिक का निर्माण
निवेशित धन की वापसी और कमाई का सुरक्षित जरिया बन चुका है.पिछले कुछ सालों में आई
बायोपिक में से कुछ की कामयाबी ने निर्माताओं का विश्वास और उत्साह भी बढ़ा दिया
है.वे बायोपिक की तलाश में रहते हैं.लेखक किताबें छान रहे हैं.स्टार कान लगाये
बैठे हैं.और निर्माता तो दुकान खोले बैठा है.अभी कम से कम 40 बायोपिक फ़िल्में निर्माण
की किसी न किसी अवस्था में हैं.हाल ही में गणितज्ञ शकुंतला देवी पर बायोपिक की
घोषणा हुई है,जिसका निर्देशन अनु मेनन करेंगी.विद्या बालन परदे पर शकुंतला देवी के
रूप में नज़र आएंगी.कुछ बायोपिक फिल्मे इस साल के आखिर तक रिलीज होंगीं,जिनमें ‘उधम
सिंह’ और ‘तानाजी’ पर सभी की नज़र है.
हिंदी फिल्मों के अतीत में झांक कर देखें तो
शुरुआत से ही चरित कथाएं बनती रही है. मिथक और इतिहास के प्रेरक चुनिंदा चरित्रों
को फिल्मों का विषय बनाया जाता रहा है. तब इनके लिए बायोपिक शब्द का इस्तेमाल नहीं
होता था. उनकी कोई भी विधात्मक पहचान नहीं थी. रिचर्ड एटनबरो की ‘गांधी’ को भी हम
बायोपिक के तौर पर नहीं जानते. वह हमारे लिए महज महात्मा गांधी के जीवन पर बनी प्रमाणिक
फिल्म मानी जाती है.
मूक फिल्मों के दौर से ऐतिहासिक और मिथकीय चरित्रों की शौर्य गाथा
और कथा फिल्मकारों को आकर्षित और प्रेरित करती रही है. कह सकते हैं कि हॉलीवुड और
विदेशी फिल्मों के प्रभाव से यह आरंभ हुआ होगा, लेकिन रामचरितमानस और रामलीला के
देश में चरित्र चर्चा और कथा कहने और प्रदर्शन की सदियों पुरानी परंपरा को
नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, संभव है, प्रेरणा बाहर से मिली हो, लेकिन प्रयास तो
भारतीय रहे. देश के फिल्मकारों ने भारतीय चरित्रों को ही परदे पर पेश किया. राजा
हरिश्चंद्र पर जीवन के प्रसंग पर बनी दादा साहेब फाल्के की पहली भारतीय फिल्म ‘राजा
हरिशचंद्र से लेकर बोलती फिल्मों के आरंभिक दौर तक में ऐसे किरदारों को जगह मिलती
रही. लोकगाथा और लोकश्रुति से नायक लिए गए. उन्हें कल्पना के सहारे फिल्मों में
प्रभावशाली तरीके से पेश किया गया. आजादी के पहले के अधिकांश चरित्र नायक
स्वतंत्रता की चेतना से आलोड़ित होते थे. ब्रिटिश सेंसरशिप की वजह से फिल्मकार
अप्रत्यक्ष तरीके से देशभक्ति, राष्ट्रवाद और मुक्ति/आजादी की बातें करते थे. फिर
भी उन्हें वास दफा सेंसरशिप का सामना करना पड़ा
आजादी के आसपास वी शांताराम ने ख्वाजा अहमद अब्बास की मदद से ‘डॉ
कोटनीस की अमर कहानी’ का निर्माण और निर्देशन किया. डॉ कोटनीस चीनी क्रांति में
मदद करने के लिए भारत से गए डॉक्टर थे, जो चीनी क्रांतिकारियों की सेवा करते हुए दिवंगत
हुए चीन में आज भी उनका नाम आदर से याद किया जाता है. वी शांताराम की यह फिल्म तो
अधिक नहीं चल पाई थी, लेकिन इससे समकालीन किरदारों पर फिल्म बनाने की शुरुआत हो गई.
बाद के दशकों में देश के स्वतंत्रता सेनानियों और राष्ट्रीय नेताओं पर भी फिल्में बनीं,
किन्तु रिचर्ड एटनबरो की ‘गांधी’ के अलावा कोई दूसरी फिल्म जनमानस(दर्शकों) के बीच
लोकप्रिय नहीं हो पाई. निर्देशकों के लिए अकेली सचमुच विधात्मक और शिल्पगत चुनौती
रही है कि किसी भी हस्ती के दशकों की जिंदगी को कैसे दो-तीन घंटों में समेटकर
मनोरंजक तरीके से पेश किया जाए. कोशिश यह भी रहती है कि वह डॉक्यूमेंट्री ना बन
जाए. हिंदी में राष्ट्रीय नेताओं पर बनी फिल्मों का शैक्षणिक महत्व हो सकता है.
उनका मनोरंजक पक्ष कमजोर रहा है.यही कारन है कि अनगिनत चरित्रों में से कुछ खास ही
रुपहले परदे पर नज़र आये,
लंबे अंतराल के बाद शेखर कपूर की फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ ने फिल्मकारों
के लिए नया वितान खोल दिया. दस्यु सुंदरी फूलन देवी के जीवन पर आधारित ‘बैंडिट
क्वीन’ रियलिस्टिक फिल्म थी’ हिंदी में किसी जीवित व्यक्ति पर बनी संभवत यह पहली
फिल्म थी. फिल्म को अच्छी सराहना और चर्चा मिली.फिर मणिरत्नम की धीरूभाई अंबानी के
जीवन से प्रेरणा लेकर गुरु का निर्माण और निर्देशन किया. मजेदार तथ्य है कि यह कभी
लिखा और बताया नहीं गया कि ‘गुरु’ धीरूभाई अंबानी के जीवन पर आधारित फिल्म है,
लेकिन सभी ने इसे उनके बायोपिक की तरह ही देखा. और फिर तिग्मांशु धूलिया के
निर्देशन में आई ‘पान सिंह तोमर’ ने बायोपिक निर्माण में नया जोश दिया. इसे गहरे
शोध के बाद संजय चौहान ने लिखा था. इस फिल्म की भाषा बुंदेली रखी गई थी. इरफान ने
सैनिक और खिलाड़ी से भागी बने पान सिंह तोमर को पर्दे पर बखूबी चरितार्थ किया था.
अब इस फिल्म के निर्माता भले ही ‘पान सिंह तोमर’ से आरंभ हुए बायोपिक ट्रेंड का
क्रेडिट लेते रहें. कुछ नया दिखाने और करने पर गर्वित महसूस करते रहें. सच्चाई यह
है कि बनने के बाद यह फिल्म एक अरसे तक रिलीज नहीं की गई. कहा नहीं गया,लेकिन
निर्माताओं के लिए यह मेंनस्ट्रीम फिल्म नहीं थी. इसमें मनोरंजन भी नहीं था. जैसे-तैसे
फिल्म रिलीज हुई तो दर्शकों ने इसे हाथोंहाथ लिया और सराहा. उसके बाद राकेश
ओमप्रकाश मेहरा के निर्माण-निर्देशन में आई ‘भाग मिल्खा भाग’ ने कामयाबी का नया मंत्र
देकर ट्रेंड स्थापित कर दिया. मुंबई के निर्माताओं को बायोपिक में कमाई के संभावना
दिखी और वे टूट पड़े.
बायोपिक निर्माण के लिहाज से आसान प्रस्ताव हो गया है.निर्माता
किसी भी लोकप्रिय कलाकार को सिर्फ मशहूर व्यक्ति का नाम बताता है और वह तैयार हो
जाता है.प्रोजेक्ट और कहानी के लिए अधिक माथापच्ची नहीं करनी पड़ती. बायोपिक तैयार
करने में समबन्धित व्यक्ति से आवश्यक इनपुट मिलने से फिल्म प्रमाणिक बन जाती
है.फिल्म के प्रचार में भी मदद मिलती है. दर्शकों को अधिक कुछ बताना नहीं होता.उस
मशहूर हस्ती से दर्शकों का पुराना परिचय रहता है.कई बार वे स्वयं प्रचार के लिए
उपलब्ध रहते हैं.पिछले साल की ‘संजू’ का उदहारण सामने है.मज़ा तो तब है,जब किसी
गुमनाम व्यक्ति पर बायोपिक बने और फिल्म की वजह से दर्शक और देश उस व्यक्ति को
जाने.ऐसी कोशिश कम निर्माता करते हैं.ज्यादातर निर्माता खिलाडियों और सोशल वर्कर
पर बायोपिक बनाना पसंद कर रहे हैं राजनीतिक और ऐतिहासिक चरितों को छूना बर्रे के
छत्ते में हाथ लगाना माना जाता है.कोई न कोई समूह और समुदाय विरोध और तोड़फोड़ के
लिए खड़ा हो जाता है.
निर्माणाधीन बायोपिक
साइना नेहवाल: अमोल गुप्ते के निर्देशन में बन रही बैडमिंटन
खिलाड़ी साइना के जीवन पर और खेल पर आधारित है यह फिल्म. इस फिल्म में साइना की
भूमिका पहले श्रद्धा कपूर निभा रही थीं. अब उनकी जगह परिणीति चोपड़ा आ गई है.
अभिनव बिंद्रा : इस फिल्म में अभिनव बिंद्रा की भूमिका
हर्षवर्धन कपूर निभा रहे हैं. दो साल पहले इस फिल्म
की घोषणा हुई थी, लेकिन अभी तक फिल्म निर्माण शुरू नहीं हुआ है, पहले विशाल
भारद्वाज इसके निर्माता थे. अभी अनिल कपूर स्वयं बेटे की फिल्म प्रोड्यूस करेंगे.
मिताली राज : महिला क्रिकेट टीम की रिकॉर्ड होल्डर कप्तान
मिताली राज की उपलब्धियों को समेटती इस फिल्म के अधिकार वायकॉम 18 के पास हैं.
तापसी पन्नू मिताली राज की भूमिका निभाने के लिए उत्सुक हैं.
पुलेला गोपीचंद : बैडमिंटन खिलाडी पुलेला की इस बायोपिक में
तेलुगू फिल्मों के अभिनेता सुधीर बाबू उनकी भूमिका निभाएंगे, वे कभी पुलेका के कोर्ट
पार्टनर भी रहे हैं. यह फिल्म तेलुगू के साथ हिंदी और अंग्रेजी में भी बनेगी.
सैयद अब्दुल रहीम ; फुटबॉल कोच सैयद अब्दुल रहीम पर बन रही
बायोपिक में अजय देवगन उनकी भूमिका निभाएंगे. इसके निर्माता बोनी कपूर हैं. ‘बधाई
हो’ की कामयाबी के बाद अमित शर्मा का यह अगला निर्देशन होगा. जून महीने से इसकी
शूटिंग आरंभ हो जाएगी.
अरुणिमा सिन्हा : अरुणिमा अपांग पर्वतारोही हैं. एक दुर्घटना के
शिकार होने के बाद वॉलीबॉल खिलाड़ी अरुणिमा सिन्हा ने खुद को बटोरा था. और फिर एक
मुश्किल उपलब्धि हासिल की थी. पहले इस फिल्म में कंगना रनोट के होने की खबर आई थी,
लेकिन अभी यह भूमिका आलिया भट्ट निभा रही हैं. इसके निर्माता करण जोहार हैं.
बिरसा मुंडा : दक्षिण के निर्देशक पा रंजीत बिरसा मुंडा पर
बायोपिक बना रहे हैं. वर्तमान झारखंड के क्रांतिकारी बिरसा मुंडा का प्रेरक जीवन ‘जल,जंगल,ज़मीं;
की लडाई के लिए आज भी प्रासंगिक है. पा रंजीत ने महाश्वेता देवी के उपन्यास जंगल
के दावेदार का अधिकार लिया है. निश्चित ही महाश्वेता देवी का नजरिया फिल्म में
देखने को मिलेगा. इस फिल्म में ईशान खट्टर के चुने जाने की बात की जा रही है.
शकुंतला देवी : विक्रम मल्होत्रा की फिल्म शकुंतला देवी में
विद्या बालन शीर्षक भूमिका निभाएंगी. इस फिल्म का निर्देशन अनु मेनन कर रही हैं
संजय चौहान का इंटरव्यू
बहुचर्चित बायोपिक के लेखक संजय चौहान को यह
श्रेय मिलता है कि उनकी लिखी ‘पान सिंह तोमर’ की सफलता और सराहना ने फिल्मकारों को
इस विधा के प्रति उत्साह और भरोसा दिया.लकीर की फ़क़ीर फिल्म इंडस्ट्री को तो
कामयाबी का संकेत भर मिलना चाहिए.वे टूट पड़ते हैं.पेश है बायोपिक बनाने की होड़ के
सन्दर्भ में संजय चौहान से हुई बातचीत के अंश.
-‘पान सिंह तोमर’ लिखे जाने के समय का क्या माहौल
था?
० स्पष्ट कर दूं कि ‘लेट्स मेक अ बायोपिक’ के
अंदाज में हम ने इसके बारे में नहीं सोचा था.हमारे लिए पान सिंह तोमर एक किरदार
था. उसकी जर्नी रोचक थी. दर्शकों ने उसे पसंद किया. फिल्म चल गयी. फिर सभी का
ध्यान गया कि यह भी एक जोनर हो सकता है.आप देखें कि उसके पहले हिंदी में छिटपुट
बायोपिक बने हैं,लेकिन उन्हें वैसी कामयाबी नहीं मिली थी.’पान सिंह तोमर’ के बाद
ट्रेंड चल पड़ा.
-बायोपिक में किसी व्यक्ति की पूरी ज़िन्दगी नहीं
होती?
० हो भी नहीं सकती. फ़िल्में बायोग्राफी नहीं
होतीं,इसीलिए बायोपिक शब्द बना होगा. बायोग्राफी तो फिर डोक्युमेंटऋ जैसी हो
जाएगी. उसमे दर्शकों का इंटरेस्ट नहीं रहेगा.दर्शक किसी व्यक्ति की कहानी देखते
हुए एंटरटेन भी होना चाहते हैं.
-इन दिनों हर बैनर और डायरेक्टर बायोपिक बनाने
में लगा है.यह भेडचाल क्यों?
० आसान सा लगता है.किसी मशहूर व्यक्ति या अचीवर
से अधिकार ले लो. किसी व्यक्ति की दशकों की ज़िन्दगी को दो घंटे में कहने के लिए
रियल मसाले मिल जाते हैं. कल्पना की ज़रुरत नहीं पड़ती.सच्ची बात यह है कि लेखक के
तौर पर मेरे लिए चुनौती होती है.किसी की ज़िन्दगी को मुकम्मल कहानी की तरह पेश करना
होता है,होड़ जो लगी है,वह कामयाबी की है.एक और चीज देख रहा हूँ कि स्टार भी
बायोपिक में इंटरेस्ट दिखा रहे हैं.उन्हें सिर्फ नाम बता दो तो आरंभिक सहमती हो
जाती है.
-मिल्खा सिंह पर आये बायोपिक के बाद जीवित
व्यक्तियों पर फिल्म बनाने का रुझान बढ़ा है...और खिलाडियों या दूसरे किस्म के
लोगों पर ही फोकस है. राजनीतिज्ञ गायब हैं..
० राजनीतिज्ञों को कोई टच नहीं करना चाहता.वह
थोडा मुश्किल भी.विवाद और आपत्ति की सम्भावना रहती है.मैं’मोदी’ जैसे बायोपिक की
बात नहीं कर रहा हूँ.उसमें उन्हें निराधार हीरो बनाने की कोशिश है.कश्मीर में झंडा
फहराने तो मुरली मनोहर जोशी गए थे.यहाँ मोदी बता रहे हैं.वे उस समूह का हिस्सा रहे
होंगे.निर्माता को दर रहता है कि उसकी फिल्म न फँस जाए.दक्षिण में कोशिशें हो रही
हैं. एनटीआर पर आ रही है. जयललिता पर बन रही है,
-अगर अभी आप को कोई बायोपिक लिखनी हो तो किसे
चुनेंगे?
० मैं अंजान व्यक्ति की बायोपिक लिखना चाहूँगा.
मैंने एक बायोपिक लिखी है,लेकिन वे मशहूर व्यक्ति हैं.मुझे अफ़सोस हुआ कि मुझे
रेशमा पठान क्यों नहीं नज़र आयीं? ‘शोले’ की इस स्टंट गर्ल पर अच्छी फिल्म बनानी
चाहिए थी. वह अफ्ली स्टंट गर्ल हैं.
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