सिनेमालोक : मातृभाषा में संवाद
सिनेमालोक
मातृभाषा में संवाद
अजय ब्रह्मात्मज
पिछले दिनों कलाकार क्लब द्वारा आयोजित ‘शॉर्ट
फिल्म प्रतियोगिता’ की जूरी में बैठने का संयोग बना. जूरी में मेरे अलावा निर्देशक
डॉ, चंद्रप्रकाश द्विवेदी और एडिटर अरुणाभ भट्टाचार्य थे. इस प्रतियोगिता में अनेक
भाषाओँ की फ़िल्में थीं. कई घंटो तक एक-एक कर फ़िल्में देखते हुए एक अलग एहसास घना
होता गया. कलाकारों की भाषा...उनकी संवाद अदायगी और उससे प्रभावित अभिनय.हिंदी
फिल्मों में हिंदी की बिगड़ती और भ्रष्ट हो रही हालत पर मैं लगातार लिखता रहता हूँ.
नियमित फ़िल्में देखते समय भी दिमाग का एक अन्टेना यह पकड़ रहा होता है की संवादों में
किस प्रकार का भाषादोष हो रहा है. हिंदीभाषी और हिंदी साहित्य का छात्र होने की
वजह से भी कान चौकन्ने रहते हैं.यूँ भी कह सकते हैं कि खामियां जल्दी सुनाई पड़ती
हैं. मैं अपनी समीक्षा और लेखों में आगाह और रेखांकित भी करता रहता हूँ.
कुछ हफ्ते पहले मैंने इसी कॉलम में उल्लेख किया
था कि इन दिनों के अधिकांश अभिनेता स्पष्ट उच्चारण के साथ हिंदी संवाद नहीं बोल
पते हैं.पहले के अभिनेता हिंदी में समर्थ नहीं होने पर अभ्यास करते थे. अभी भी
भाषा और उसके लहजे के अभ्यास की औपचारिकता पूरी की जाती है,लेकिन कलाकारों का ध्यान
भाषा सीखने से अधिक उसे निबटाने पर होता है. ज्यादातर यही सुनाई पड़ता है कि डबिंग
में सुधार लेंगे. ठीक कर लेंगे,क्योंकि डबिंग करते समय एक भाषा इन्स्ट्रक्टर रहता
है. इस सुविधा से कलाकारों में लापरवाही आ जाती है.
बहरहाल,उस दिन मैंने यह बात रखी कि कैसे हिंदीतर
भाषाओँ की फिल्मों के कलाकार अपने संवादों को बोलते समय एक्सप्रेसिव दिखते हैं.
ऐसा लगता है कि संवाद और भाव घुल गए हैं. हिंदी की फिल्मों में संवादों की अदायगी क्यों
कृत्रिम और बनावटी लगती है? डॉ. द्विवेदी ने सहमति के साथ इस वजह की व्याख्या की.
निर्देशन के अपने अनुभवों से उन्होंने बताया कि हिंदी फिल्मों के जिन कलाकारों की
मातृभाषा हिंदी रही है या जो हिंदी संस्कार से आये हैं,उन सभी के साथ यह दिक्कत
नहीं होती है. जिनकी पहली भाषा हिंदी नहीं है या जिनके व्यवहार में हिंदी नहीं
है,वे सभी सही लहजे और पॉज के साथ हिंदी नहीं बोल पाते हैं. इनमें से कुछ हिंदी पढ़
लेते हैं,लेकिन धाराप्रवाह या भाव के साथ संवाद बोल पाना उनके लिए संभव नहीं होता.
यही वजह है कि उनकी संवाद अदायगी और हिंदी में कृत्रिमता सुनाई पड़ती है. निर्देशक
और बाकी तकनीकी सहायकों की भी हिंदी कमज़ोर होती है,इसलिए वे समय पर सही सुधार नहीं
कर पाते. परिणाम परदे पर नज़र आता है. उनकी हिंदी संप्रेषणीय नहीं हो पाती.
यह समस्या हिंदी फिल्मों के साथ ही है. देश की
शेष भाषाओँ की फिल्मों में उसी भाषा के कलाकार होते हैं.बंगला,तेलुगू,तमिल और
मलयालम आदि भाषाओँ की फ़िल्में समान भाषा के कलाकारों की वजह से एक्सप्रेसिव और
भावपूर्ण सुनाई पड़ती है. अभी के लोकप्रिय कलाकारों की संवाद अदायगी पर गौर करें तो
वरुण धवन और राजकुमार राव की संवाद अदायगी के फर्क से इसे समझ सकते हैं. रणबीर कपूर
और रणवीर सिंह के उच्चारण और लहजे में भी अंतर है. भाषा संस्कार के साथ आये कलाकार
बोलते और अभिनय करते समय स्वाभाविक लगते हैं. यह स्वाभाविकता सीखी हुई भाषा में
गहन अभ्यास से आ सकती है.उसके लिए ज़रूरी है कि आप हिंदी सुन भी रहे हों.
लिखना-पढना तो आवश्यक है ही. आप देखें कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में हिंदी सिर्फ
संवादों की भाषा रह गयी है और वह भी रोमन में लिखी हिंदी. नतीजे में हिंदी फिल्मों
के अभिनय और एक्सप्रेशन में सामान रूप से कृत्रिमता बढती जा रही है. भाषा न बोल
पाने का असर चेहरे के भाव और आंगिक मुद्राओं पर भी आता है. दरअसल,निर्माण के दौरान
ढंग से परखने वाला कोई नहीं रहता.फिल्म की टीम की कप्तानी कर रहे निर्देशक खुद ही
हिंदी में तंग होते है. संवाद अंग्रेजी में लिखे और सोचे जाते हैं और फिर कोई और
उन्हें हिंदी में अनूदित करता है. अभी से ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले सालों
में भाषा और अभिनय की स्थिति और बदतर होगी.
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