फिल्म लॉन्ड्री : आज़ादी के पहले की बोलती ऐतिहासिक फ़िल्में
फिल्म लॉन्ड्री
ऐतिहासिक फ़िल्में
आज़ादी के पहले की बोलती फ़िल्में
-अजय ब्रह्मात्मज
ऐतिहासिक फिल्मों को इतिहास के तथ्यात्मक साक्ष्य के रूप में नहीं
देखा जा सकता.इतिहासकारों की राय में ऐतिहासिक फिल्मे किस्सों और किंवदंतियों के
आधार पर रची जाती हैं.उनकी राय में ऐतिहासिक फ़िल्में व्यक्तियों,घटनाओं और प्रसंगों को कहानी बना कर पेश करती
हैं. उनमें ऐतिहासिक प्रमाणिकता खोजना
व्यर्थ है. ऐतिहासिक फिल्मों के लेखक विभिन्न स्रोतों से वर्तमान के लिए उपयोगी
सामग्री जुटते हैं. फिल्मों में वर्णित इतिहास अनधिकृत होता है.फ़िल्मकार इतिहास को
अपने हिसाब से ट्रिविअलाइज और रोमांटिसाइज करके उसे नास्टैल्जिया की तरह पेश करते
हैं. कुछ फ़िल्मकार पुरानी कहानियों की वर्तमान प्रासंगिकता पर ध्यान देते हैं.बाकी
के लिए यह रिश्तों और संबंधों का ‘ओवर द टॉप’
चित्रण होता है,जिसमें वे युद्ध और संघर्ष का भव्य फिल्मांकन करते हैं.इतिहास की
काल्पनिकता का बेहतरीन उदहारण ‘बाहुबली’
है. हाल ही में करण जौहर ने ‘तख़्त’ के
बारे में संकेत दिया कि यह एक तरह से ‘कभी ख़ुशी कभी ग़म’ का ही ऐतिहासिक परिवेश में रूपांतरण
होगा.फिल्मकारों की सोच और मानसिकता को ध्यान में रखें तो ऐतिहासिक फिल्मों को
लेकर होने वाले विवादों की व्यर्थता समझ में आ जाती है.बहरहाल,इस बार हम बोलती फिल्मों के दौर की ऐतिहासिक
फिल्मों की बातें करेंगे.
आर्देशिर ईरानी की ‘आलम आरा’ हिंदी की पहली बोलती(टॉकी} फिल्म थी.इसका निर्माण इम्पीरियल फिल्म् कंपनी
ने किया था.कंपनी के मालिक आर्देशिर ईरानी कुछ नया करने के लिए हमेशा सक्रिय रहते
थे.उन्होंने ही पहली रंगीन फिल्म ‘किसान कन्या’ भी
बनायीं थी,जिसे सआदत हसन मंटो ने लिखा था.उन्हीं
की प्रोडक्शन कंपनी ने एज्रा मीर के निर्देशन में पहली बोलती ऐतिहासिक फिल्म ‘नूर
जहां’ का निर्माण किया. यह चुथी बोलती फिल्म
थी.जहाँगीर और नूर जहां के ऐतिहासिक प्रेम की कहानी मुग़ल साम्राज्य की प्रेम
किंवदतियों में काफी मशहूर है.सलीम-अनारकली की कल्पित कहानी से अलग इसका ऐतिहासिक
आधार है.एजरा मीर की यह फिल्म मूक फिल्म के तौर पर शुरू हुई थी,लेकिन टॉकी की तकनीक आ जाने से इसे बोलती फिल्म
में तब्दील कर दिया गया.यह हिंदी और अंग्रेजी में एक साथ बनी थी.एक साल पहले ही
जहाँगीर के विख्यात न्याय पर ‘आदिल-ए-जहाँगीर’
मूक फिल्म आ चुकी थी.
मूक फिल्मों के दौर की तरह ही बोलती फिल्मों के दौर में भी मुग़ल
साम्राज्य,हिन्दू राजाओं,संत कवियों और मराठा वीरों की कहानियां
ऐतिहासिक फिल्मों का विषय बनती रहीं.छिटपुट रूप से मिथकों के सहारे भी ऐतिहासिक
फिल्मों के रूपक रचे गए.राजा,महल,दरबार और वन-उपवन के दृश्यों से प्रेम की
साधारण कहानियों में भी भव्यता और रम्यता आ जाती थी.कुछ निर्माताओं ने पॉपुलर रहीं
मूक ऐतिहासिक फिल्मों का बोलती फिल्मों के रूप में भी रीमेक किया.उदहारण के लिए1930 की ‘आदिल-ए-जहाँगीर’ के सरदार के निर्देशन में 1934 में फिर से
बनी.रोचक तथ्य है कि 1955 में जी पी सिप्पी ने प्रदीप कुमार और मीना कुमारी के साथ
इसका पुनर्निर्माण किया.यह उनकी पहली निर्देशित फिल्म थी.
आज़ादी के पहले फिल्मों के निर्माण का प्रमुख केंद्र मुंबई और आसपास
के शहरों पुणे व् कोल्हापुर में स्थित था.फिल्मों में मराठीभाषी फिल्मकारों ने
मराठा इतिहास और समाज के चरित्रों को प्रमुखता दी.उन्होंने मराठी के साथ हिंदी में
भी इन फिल्मों का निर्माण किया. इन फिल्मकारों में वी शांताराम,दामले और जयंत देसाई प्रमुख थे.उन्होंने
पेशवाओं, उनके सेनापतियों और अन्य विख्यात व्यक्तियों पर फ़िल्में बनायीं. मराठी और
हिंदी में बनायीं जा रही ऐतिहासिक फ़िल्में एक स्तर ओअर अंग्रेजी शासन में
राष्ट्रीय अस्मिता,पहचान और गौरव के रूप में भी प्रकट हो
रही थीं. फ़िल्मकार राष्ट्रीय चेतना का संचार कर रहे थे. फ़िल्में केवल मनोरंजन और
मुनाफे का धंधा नहीं बनी थीं.
इसी दौर में लाहौर से कोलकाता शिफ्ट कर चुके ए आर कारदार ने मौर्य
वंश के प्रसिद्ध सम्राट चन्द्रगुप्त पर ‘चन्द्रगुप्त’ नामक फिल्म निर्देशित की.इसका निर्माण ईस्ट
इंडिया कंपनी ने किया था.के सी डे के संगीत से रची इस फिल्म में गुल हामिद,सबिता देवी और नज़ीर अहमद खान ने मुख्या
भूमिकाएं निभाई थीं.इस फिल्म की सफलता ने ए आर कारदार को कोलकाता में स्थापित कर
दिया था.कोलकाता में न्यू थिएटर में के एल सहगल आ चुके थे. उनके और पहाड़ी सान्याल
के साथ प्रेमांकुर एटोर्थी ने मशहूर फिल्म ‘यहूदी की लड़की’ का निर्देशन किया.यह फिल्म आगा हश्र कश्मीरी
के नाटक पर आधारित था.इस फिल्म मे रत्तनबाई ने भी एक किरदार निभाया था.कम लोग
जानते हैं कि वह पटना की पैदाइश थीं.1933 में हिमांशु राय और देविका रानी की
‘कर्मा’,जे बी एच वाडिया की ‘लाल-ए-यमन’,देबकी बोस की ‘पूरण भगत’ और ‘मीरा बाई’ फ़िल्में भी आईं.इन फिल्मों की थीम देशी-विदेशी राज परिवारों से
सबंधित थी.पी सी बरुआ की ‘रूप लेखा’
में के एल सहगल ने सम्राट अशोक की भूमिका निभाई थी.इस दौर में कोलकाता और मुंबई के
फ़िल्मकार संतों पर भी फ़िल्में बना रहे थे. संत रविदास,संत तुलसी दास,सूरदास,मीरा बाई.संत तुकाराम.चंडीदास.संत ध्यानेश्वर आदि पर कुछ
फ़िल्में बनीं.इन फिल्मों के निर्माण की एक वजह यह भी हो सकती है कि निर्देशकों को
संत कवियों के लोकप्रिय गीत और भजन के उपयोग से दर्शकों को थिएटर में लाने की
युक्ति मिल गयी होगी.संतों के आदर्श श्रद्धालु दर्शकों को अलग से आकर्षित करते
होंगे.अंग्रेजों के दमन और शासन भुगत रहे लोगों को नैतिक संबल मिलता होगा.
1939 में आई सोहराब मोदी की ‘पुकार’ ऐतिहासिक फिल्मों की परंपरा में बड़ी घटना है.इस फिल्म की कहानी भी
जहाँगीर के न्याय पर आधारित थी.कहते हैं,मंगल अपने प्यार कँवर को पाने के लिए उसके
भाई और पिता की हत्या कर देता है,बादशाह
के वफादार मंगल के पिता संग्राम सिंह उसे गिरफ्तार कर दरबार में हाज़िर करते
हैं.जहाँगीर उसे मौत की सजा देते हैं.कुछ समय के बाद एक धोबिन नूरजहाँ को अपने पति
का कातिल ठहरती है,जो शिकार के समय रानी के हाथों मारा
गया था.अपने न्याय के लिए मशहूर न्यायप्रिय जहाँगीर सजा के तौर खुद की जान पेश
करते हैं.बादशाह के न्याय से प्रभावित धोबिन उन्हें माफ़ कर देती है. इस फिल्म की
कहानी कमाल अमरोही ने लिखी थी.फिल्म में संवाद और गीत भी उनके ही लिखे हुए थे.
‘पुकार’ में नूरजहाँ की भूमिका नसीम बानो ने
निभाई थी. इस फिल्म की जबरदस्त कामयाबी ने सोहराब मोदी को आगे भी ऐतिहासिक फ़िल्में
बनाने का उत्साह दिया.उनकी कंपनी मिनर्वा मूवीटोन बड़ी ऐतिहासिक फिल्मों के निर्माण
के लिए विख्यात हुई. उन्होंने मिनर्वा मूवीटोन के बैनर में ‘सिकंदर’,’पृथ्वी वल्लभ’.’एक दिन का सुलतान’ जैसी फ़िल्में आज़ादी के पहले बनायीं.इनमें ‘एक
दिन का सुलतान’ को दर्शकों ने नापसंद किया. उनकी
‘झाँसी की रानी’ और ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ का ज़िक्र आज़ादी के बाद की ऐतिहासिक फिल्मों की
कड़ी में करेंगे.
सोहराब मोदी ने अपनी महँगी,भव्य,संवादों से पूर्ण फिल्मों से ऐतिहासिक फिल्मों
का नया मानदंड स्थापित कर दिया.इस फिल्मों की ऐतिहासिकता पर सवाल उठाये जा सकते
हैं.सोहराब मोदी का कंसर्न इतिहास से अधिक ड्रामा था,जिनके जरिए वे दर्शकों को मनोरंजन और आनंद दे
रहे थे.’सिकंदर’ उनकी अत्यंत सफल फिल्म थी.पृथ्वीराज
कपूर ने इसमें सिकंदर की भूमिका निभाई थी और सोहराब मोदी पोरस बने थे. इस फिल्म
में लाहौर से आई खुर्शीद उर्फ़ मीना ने एक खास किरदार निभाया था.मीना बाद में मीना
शोरी के नाम से मशहूर हुईं. कॉमिक भूमिकाओं में मोतीलाल के साथ उनकी जोड़ी बनी.
आज़ादी के पहले की ऐतिहासिक फिल्मों में मुग़ल साम्राज्य जहाँगीर के
अलावा बाबर,हुमायूँ,अकबर और शाहजहाँ के जीवन की घटनाओं पर भी फ़िल्में बनीं. किसी ने
सत्ता के लिए औरंगजेब और दाराशिकोह के संघर्ष को नहीं छुआ. इन सभी फिल्मों में बादशाहों
की न्यायप्रियता,उदारता और दयानतदारी का चित्रण किया गया.आजादी के पहले भारतीय
इतिहास को देखने-दिखाने का नजरिया अलग था.दर्शकों के अन्दर यह एहसास भी भरा जाता
था कि हमारा इतिहास गौरवपूर्ण था,जिसमें
प्रजा की बातें और शिकायतें भी सुनी जाती थीं.कहीं न कहीं फिल्मकारों की यह भावना
भी रहती थी कि वे वर्तमान शासक अंग्रेजों के खिलाफ आम दर्शकों को प्रेरित करें.कई
बार ब्रिटिश राज के सेंसर से इन फिल्मकारों को जूझना पड़ता था.कुछ फिल्मों के टाइटल
और गीत भी बदले गए थे.याद करें तो यह राष्ट्रीय भावना के उबाल का भी समय था.हमारे
फ़िल्मकार कैसे अलग-थलग रह सकते थे.आज़ादी के पहले के ऐतिहासिक फिल्मों के
निर्देशकों में वजाहत मिर्ज़ा(बाबर),कमल रॉय(शहनशा अकबर),महबूब खान(हुमायूँ),ए आर
कारदार(शाहजहाँ),जयंत देसाईं(तानसेन,चन्द्रगुप्त)
का नाम लिया जाना चाहिए.इसी दौर में 1944
में आई ‘रामशास्त्री’
महत्वपूर्ण फिल्म है.इसे गजानन जागीरदार,विश्राम
बेडेकर और रजा नेने ने मिल कर निर्देशित किया था. गजानन जागीरदार ने जज रामशास्त्री
की भूमिका निभाई थी.रामशास्त्री ने एक मामले में अपने भतीजे के हत्या के जुर्म में
पेशवा को ही सजा सुनाई थी.
आज़ादी के पहले के चौथे और पांचवे दशक में फिल्मों के विषय और उनके
निर्वाह में मूक फिल्मों के दौर से अधिक फ़र्क नहीं आया था.उस दौर की फिल्मों के
जानकारों के मुताबिक तकनीकी आविष्कारों की वजह से फिल्मों के निर्माण में अवश्य निखार
आता रहा.कुछ बड़ी और भव्य फ़िल्में महंगे बजट में बनीं.ऐतिहासिक फिल्मों से
फिल्मकारों को आज ही की तरह युद्ध और द्वंद्व के दृश्य दिखने का बहाना मिल जाता
था.इन दो दशकों में फिल्मों के आर्ट डायरेक्शन में काफी बदलाव आया.ए आर कारदार ने
‘शाहजहाँ’ में मशहूर पेंटर एम आर आचरेकर को आर्ट डायरेक्शन का मौका देकर भविष्य की
फिल्मों की साज-सज्जा ही बदल दी. ऐतिहासिक और मिथकीय चरित्रिन को गढ़ने में
फ़िल्मकार और आर्ट डायरेक्टर कैलेंडर आर्ट के प्रभाव में लुक और कॉस्टयूम गढ़ते रहे.
आज़ादी के पहले की ऐतिहासिक फिल्मों ने मनोरंजन के साथ भारतीय इतिहास
का पॉपुलर ज्ञान दिया. ऐतिहासिक फ़िल्में डोक्युमेंट्री नहीं होतीं.उनमें सामान्य
बोध का उपयोग किया जाता है ताकि अधिकाधिक दर्शकों को संतुष्ट किया जा सके. एक तरह
से ऐतिहासिक फिल्मे सच्ची घटनाओं की काल्पनिक कहानियां ही होती हैं.
प्रसंग- सोहराब
मोदी की ‘सिकंदर’ की मीना का रोचक किस्सा यूँ है कि लाहौर से वाया कोलकाता मुंबई
पहुंची खुर्शीद फिल्मों में अभिनय करने के लिए बेताब थी.वह मुंबई आ चुकी थी,लेकिन
उसे कोई खूबसूरत मौका नहीं मिल पा रहा था.सोहराब मोदी ‘सिकंदर’ की
घोषणा और मुहूर्त के लिए बड़ा कार्यक्रम कर रहे थे.खुर्शीद ने कहीं से उस फंक्शन का
निमंत्रण हासिल कर लिया.उसके पास कार्यक्रम में जाने के लायक फैशनेबल कपडे नहीं
थे. उसने पैड्स की अफगानी महिला से मदद मांगी.उस उदार अफगानी महिला ने कपडे देने
के साथ खास मौके के लिए उसके बाल भी बना दिए.खुर्शीद जब कार्य्रम के लिए पहुंची तो
एकबारगी सबी की निगाहें उसकी ओर पलतीं.वह बाला की खूबसूरत लग रही थी.फोटोग्राफरों
को लगा कि हा न हो यही फिल्म की नयी हीरोइन हो. उनके फ़्लैश चमकाने लगे. अब सोहराब
मोदी चौंके.उस अंजन चेहरे से आकर्षित हुए.कार्यक्रम ख़त्म होने के बाद उन्होंने
खुर्शीद से बात की और अगले दिन आने के लिए कहा.सोहराब मोदी ने खुर्शीद को साइन कर लिया और उसे नया नाम दिया मीना.
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