फिल्म समीक्षा : मंटो
फिल्म समीक्षा
मंटो
-अजय ब्रह्मात्मज
नंदिता दास की ‘मंटो' 1936-37 के आसपास मुंबई में शुरू होती है. अपने बाप द्वारा सेठों के मनोरंजन के लिए उनके हवाले की गयी बेटी चौपाटी जाते समय गाड़ी में देविका रानी और अशोक कुमार की ‘अछूत कन्या' का मशहूर गीत ‘मैं बन की चिड़िया’ गुनगुना रही है.यह फिल्म का आरंभिक दृश्यबंध है. ‘अछूत कन्या' 1936 में रिलीज हुई थी. 1937 में सआदत हसन मंटो की पहली फिल्म ‘किसान कन्या’ रिलीज हुई थी. मंटो अगले 10 सालों तक मुंबई के दिनों में साहित्यिक रचनाओं के साथ फिल्मों में लेखन करते रहे. उस जमाने के पोपुलर स्टार अशोक कुमार और श्याम उनके खास दोस्त थे. अपने बेबाक नजरिए और लेखन से खास पहचान बना चुके मंटो ने आसान जिंदगी नहीं चुनी. जिंदगी की कड़वी सच्चाइयां उन्हें कड़वाहट से भर देती थीं. वे उन कड़वाहटों को अपने अफसानों में परोस देते थे.इसके लिए उनकी लानत-मलामत की जाती थी. कुछ मुक़दमे भी हुए.
नंदिता दास ने ‘मंटो’ में उनकी जिंदगी की कुछ घटनाओं और कहानियों को मिलाकर एक मोनोग्राफ प्रस्तुत किया है. इस मोनोग्राफ में मंटो की जिंदगी और राइटिंग की झलक मात्र है. इस फिल्म को मंटो के बायोपिक की तरह नहीं लिया जा सकता. मुख्य रूप से मंटो की जिंदगी के आखरी 5 सालों को नंदिता ने इस फिल्म में रखा है. देश के विभाजन की घोषणा के साथ लाखों मुसलमानों ने पाकिस्तान का रुख किया, उनमें से एक मंटो भी थे. फर्क इतना है कि मंटो ने नाउम्मीदी में यह फैसला लिया था. औरों की तरह पाकिस्तान जाने की उनकी वजह मजहबी और उम्मीदों से भरी नहीं थी. उनका भरोसा टूटा था. उन्होंने खुद को बेहद असहाय महसूस किया था. यूं लगता है कि उनके लेखक और फिल्मी दोस्त भी उन्हें आश्वस्त नहीं कर पाए थे कि वह मुंबई में सुरक्षित रहेंगे. मंटो का पाकिस्तान जाना एक असुरक्षित संवेदनशील लेखक का पलायन था. फिल्म मैं श्याम के साथ के दो दृश्यों में संकेत मिलता है कि उन्होंने अचानक पाकिस्तान जाने का फैसला क्यों लिया?
मंटो - वो हड्डियाँ कहाँ जलाई या दफनाई जाएँगी,जिन पर से मजहब का गोष्ट चीलें नोच-नोच कर खा…
श्याम - भगवन के लिए अपनी ये डायलॉगबजी बंद करो. वो लोग तुम्हारी किसी कहानी के किरदार नहीं हैं.वो मेरे अपने लोग हैं.जीते-जागते असली लोग.
मंटो - पर या तो सब की ज़िन्दगी है श्याम या फिर किसी की भी नहीं.
श्याम - ये सब तुम्हारे लिए कहना-लिखना आसन है.
श्याम - साले मुसलमानों की टोल है…
मंटो - मैं भी तो मुसलमान हूँ श्याम. अगर यहाँ फसाद हो जाये तो मुमकिन है तुम मुझे ही मार डालो.
श्याम - हाँ,मुमकिन है मैं तुम्हें भी मार डालूँगा.
मंटो पाकिस्तान जाने की तयारी करने लगते हैं.श्याम उन्हें रोकते हैं और कहते हैं कि वैसे भी तुम कौन से बड़े मुसलमान हो?
मंटो जवाब देते हैं...इतना तो हूँ कि मारा जा सकू.
फिल्म देखते समय मेरी रूचि और जिज्ञासा यह जानने में थी कि मंटो पाकिस्तान क्यों गए? उनके ज्यादातर फ़िल्मी और अदबी दोस्त मुंबई में ही रहे. इस एक प्रसंग से पता चलता है कि मंटो खुद की सुरक्षा के साथ बीवी और बेटी के लिए भी परेशान हुए होंगे. उत्तेजना और असमंजस की उस घडी में मंटो को मजबूत भरोसा मिल गया होता तो शायद उनके पाकिस्तान जाने की नौबत नहीं आती.संवेदनशील मंटो अपने समाज के अंतर्विरोधों और विसंगतियों को समझने के बावजूद पाकिस्तान जाने का अहम फैसला लेते हैं.याद दिलाने पर भी वे एक रुपये की उधारी नहीं चुकाना चाहते.वे चाहते थे कि वे ज़िन्दगी भर मुंबई शहर का कर्ज़दार रहें.एक तरह से इसी कर्जदारी में उन्होंने ज़िनदगी बिता दि और मौत का आलिंगन किया.बंटवारे को वे कभी स्वीकार नहीं कर सके.इस दर्द के बवजू यह भी सच है कि वे पाकिस्तान गए. मंटो ने इस पर कभी विस्तार से नहीं लिखा और न किसी ने उनसे कभी पूछा.नंदिता उनकी पत्नी से मिल पाई होतीं तो शायद ठोस इशारा मिलता. नंदिता और किसी हवाले से भी इस जिज्ञासा को नहीं छू पातीं.
मंटो प्रासंगिक हैं. यह फिल्म उनके किरदारों के साथ उनकी ज़िन्दगी में उतरती है. नंदिता का यह शिल्प घटनाओं के अभाव को तो भर देता है,लेकी उनकी ज़िन्दगी के भाव को कम कर देता है.हालाँकि यह निर्देशक और लेखक का चुनाव है कि वे फिल्म के लिए क्या चुनें और छोड़ें. ‘मंटो' बतौर फिल्म संतुष्ट नहीं करती यह एक अधूरी कहानी है. नंदिता मंटो के मानस की परतों को उघेड़ने का प्रयास नहीं करतीं. इस मायने में पाकिस्तान में बनी समाद खूसट की फिल्म ‘मंटो' अधिक गहरे उतरती है.
फिल्म का तकनिकी और अभिनय पक्ष सटीक और खूबसूरत है. नंदिता दास की टीम पीरियड और परिवेश को फिल्म के काल के मुताबिक रचती है. मुख्य न्हूमिका में नाज़ज़ुद्दीन सिद्दीकी मंटो की झल्लाहट और उकताहट हो को अपनी चाल-ढाल और बोलचाल में उतारते हैं.वे मंटो की तकलीफ बगैर नाटकीयता के उभरते हैं. बाकि कलाकारों ने बराबर सहयोग दिया है. फिल्म इंडस्ट्री की कुछ बड़ी हस्तियाँ महज फिल्म की शोभा बढाती है. वे कुछ जोडती नहीं हैं.कलाकारों के संवादों में उछारण और अदायगी की अस्पष्टता खलती है.
अवधि - 116 मिनट
***1/2
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