फिल्म समीक्षा : हिचकी
फिल्म समीक्षा
रानी की मुनासिब कोशिश
हिचकी
-अजय ब्रह्मात्मज
शुक्रिया रानी मुखर्जी। आप
अभी जिस ओहदे और शौकत में हैं,वहां आप के लिए किसी भी विषय
पर फिल्म बनाई जा सकती है। देश के धुरंधर फिल्मकार आप के लिए भूमिकाएं लिख सकते
हैं। फिर भी आप ने ‘हिचकी’ चुनी। पूरी
तल्लीनता के साथ उसमें काम किया और एक मुश्किल विषय को दर्शकों के लिए पेश किया।
कहा जा सकता है कि आप की वजह से यह ‘हिचकी’ बन सकी। मुनीष शर्मा और सिद्धार्थ पी मल्होत्रा की यह कोशिश देखने लायक
है।
‘हिचकी’ की कहानी दो स्तर पर चलती है। एक स्तर पर तो यह नैना माथुर(रानी
मुखर्जी) की कहानी है। दूसरे स्तर पर यह उन उदंड किशोरों की भी कहानी है,जो सभ्य समाज में अनके वंचनाओं के कारण अवांछित हैं। नैना माथुर टॉरेट सिनड्राम से ग्रस्त हैं। इसमें खूब हिचकियां आती हैं
और बार-बार आती हैं। इस सिंड्रोम की वजह से उन्हें 12 स्कूल बदलने पड़े हैं। स्नातक
होने के बाद पिछले पांच सालों मेंउन्हें 18 बार नौकरियों से रिजेक्ट किया गया
है। उन्होंने ठान लिया है कि उन्हें टीचर ही बनना है। स्क्रिप्ट का विधान ऐसा
बनता है कि उन्हें अपने ही आखिरी स्कूल में नौकरी मिलती है। यहीं के शिक्षक खान
ने कभी उनकी झिझक और हीनभावना से उन्हें आजाद किया था। उन्हें सामान्य और
नियमित छात्र होने का सम्मान दिया था। उन्हें एक मजबूरी की वजह से स्कूल में
नौकरी मिल जाती है। दरअसन,उस स्कूल के 9एफ के बच्चे किसी
टीचर को टिकने ही नहीं देते। उन बच्चों को उस स्कूल में ‘शिक्षा
के अधिकार’ के तहत एडमिशन तो मिल गया है,लेकिन स्कूल के दूसरे शिक्षक उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं। उन्हें
खाज की तरह लेते हैं। नैना का संघर्ष दोहरा है। उन्हें खुद को योग्य और समर्थ
साबित करने के साथ उन किशोरों के पक्ष में भी खड़ा होना है। उन्हें योग्य बनाना
है। उन्हें मुख्यधारा में लाना है।
नैना के सख्त विरोधी
आभिजात्य वाडिया हैं। वे नैना को खुली चुनौती देते हैं कि 9एफ के छात्रों का कुछ
नहीं हो सकता। नैना माथुर को अपनी नौकरी और विश्वास के लिए हर युक्ति का सहारा
लेना है। फिल्मी परिपाटी के मुताबिक पहले वह हारती हैं। ऐसा लगता है कि उनके
किशोर छात्र ही उनकी राह के कांटे हैं। सहकर्मी वाडिया और स्वयं नैना के पिता को
लगता है की वह व्यर्थ कोशिशों में अपना समय बर्बाद कर रही है। पिता तो नैना के
टॉरेंट सिंड्रोम की वजह से शर्मिंदगी महसूस करते हैं। अपनी रूचि और इच्छाएं लादते
रहते हैं। भाई और माँ नैना के सपोर्ट में हैं। स्कूल के प्रिंसिपल भी चाहते हैं कि
नैना अपने करियर और मिशन में सफल हो। फिल्म अनेक अतार्किक और घिसे-पिटे प्रसंगो से
होकर अपेक्षित निष्कर्ष तक पहुँचती है।
इस फिल्म को देखते हुए
प्रकाश झा की 'हिप हिप हुर्रे' और
सुमित्रा भावे व सुनील सुखान्तकर की 'दसवीं फ ' की याद आती रही। नेक इरादे के साथ बनी यह फिल्म अपने विषय के निरूपण में
पतली और कमज़ोर हो गयी है। लेखकों के पास घटनाएं नहीं हैं। तनाव और द्वंद्व की
सम्भावना बनती है,लेकिन शोध और समझ के अभाव में 'हिचकीः समस्याओं को सहला कर निकल जाती है। फिल्म की थीम को दो गीतों में
ज़्यादा दमदार तरीके से पिरोया गया है। इस फिल्म को मुंबई से दूर किसी और शहर या
कस्बे में रोपा जाता तो विषय का निर्वाह बेहतर होता।
हाँ, रानी मुखर्जी ने रोचक चरित्र को जरूरी अंदाज से निभाया है। नीरज कबि तो इस
पीढ़ी के बहुरुपिया हैं। हर किरदार के साथ उनका अलग रंग
और आयाम दिखता है। किशोर कलाकारों ने प्रभावकारी काम किया है। हर्ष मयार परिचित चेहरा हैं। उन्होंने अपने किरदार को तेवर दिया है। बाकी
किशोर कलाकारों भी योगदान उल्लेखनीय है।
अवधि 118 मिनट
तीन स्टार
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