फिल्म समीक्षा : मुक्काबाज़
सामाजिक विसंगतियों पर जोरदार मुक्का
-अजय ब्रह्मात्मज
‘मुक्काबाज़’ रिलीज हो चुकी है। देखने वालों में
से अधिकांश ने देख भी ली होगी। फिल्म पर आ रही समीक्षकों की प्रतिक्रियाएं
सकारात्मक हैं। फिल्म में वे बहुत कुछ पा रहे हैं। कुछ बातों से वे हैरान हैं।
और कुछ बातों से परेशान भी हैं। हिंदी फिल्मों में धर्म,जाति,वर्ण व्यवस्था
और भेदभाव की मानसिकता कहानी का हिस्सा बन कर कम ही आती है। एक दौर था,जब श्याम
बेनेगल के नेतृत्व में तमाम फिल्मकार सामजिक विसंगतियों पर जरूरी फिल्में बना
रहे थे। उसमें स्पष्ट प्रतिबद्धता दिखती थे। नारे और सामाजिक बदलाव की आकांक्षा
की अनुगूंज सुनाई पड़ती थी। ऐसी कोशिशों में फिल्म की भारतीय मनोरंजक परंपरा और
दर्शकों की आह्लादित संतुष्टि कहीं छूट जाती थी। कई बार लगता था कि सब कुछ किताबी
हो रहा है। तब वक्त था। हम सिद्धातों से शरमाते नहीं थे। यह 21 वीं सदी है। पिछले
तीन सालों से देश में दक्षिणपंथी सोच की सरकार है। उनके अघोषित मूक संरक्षण में अंधराष्ट्रवाद
और भगवा सोच का जोर बढ़ा है। ऐसे परिदृश्य में मुखर ‘मुक्काबाज़’ का आना साहसी
बात है। अनुराग कश्यप और आनंद एल राय दोनों की ही तारीफ होनी चाहिए कि उन्होंने
ज्वलंत मुद्दों को नंगे हाथों से छूने की कोशिश की है।
बरेली से बनारस के बीच घूमती इस फिल्म की कहानी
उत्तर प्रदेश से बाहर नहीं निकलती,लेकिन सामाजिक अंतर्विरोधों को दिखाने में यह
पूरे हिंदी प्रदेश को समेंट लेती है। पिछले बीस से अधिक सालों में हिंदी प्रदेश में
राजनीतिक कारणों से बदलते जातीय समीकरण से उभरे द्वेष और क्लेश को इस फिल्म के
चरित्र अच्छी तरह जाहिर करते हैं। हिंदी प्रदेश में व्याप्त पूर्वाग्रहों और
धारणाओं से संचालित ये चरित्र वर्तमान समाज के प्रतिनिधि हैं। देश में गौरक्षा के नाम पर चल रहे आतंक को संकेतों से टच करती यह फिल्म अपने समय की
जोरदार बानगी है। देश के धुरंधर और कामयाब फिल्मकारों को सीखना चाहिए कि कैसे वे
अपनी जमीन की कहानी कह सकते हैं। अनुराग कश्याप की युक्ति असरदार है। कुछ दृश्यों
में दोहराव सा लगता है,लेकिन परिस्थिति से घबराया व्यक्त्िा यूं ही जुनूं में
खुद को दोहराता है। उसे लगता है कि अनसुनी का ढोंग कर रहा समाज शायद दूसरी बार रो
या चिल्ला कर कहने पर उसकी बात सुन ले। इस फिल्म को दोबारा-तिबारा देखने की
जरूरत है। हर बार अर्थ की नई गांठें खुलेंगी। दरअसल,अनुराग एक साथ अनेक मुद्दों और
बातों को फिल्मों में लाने की कोशिश करते हैं। इस कोशिश में बहुत कुछ आता,कुछ छूटता और कुछ
फिसल जाता है।
अनुराग कश्यप की ऐसी फिल्मों में राजनीति का
एहसास रहता है,लेकिन खुद को अराजनीतिक घोषित कर चुके अनुराग राजनीतिक रूप से स्पष्ट
और सजग नहीं हैं। उनकी सोच आधुनिक और प्रगतिशील है,इसलिए वे हमेशा समाज और सत्ता
के विरोध में खड़े दिखते हैं....अपनी फिल्मों और जीवन दोनों में। बतौर जागरूक
फिल्मकार अनुराग का राजनीतिक पाठ गहरा और ठोस हो तो वे दुनिया के अग्रिम फिल्मकारों
में शुमार होंगे। ‘मुक्काबाज़’ में वे उस दिशा में कदम बढ़ाते दिख रहे हैं। उन्होंने
संजीदगी से दैनिक जीवन में आ चुके राजनीतिक व्यवहार को दर्शाया है। वे बगैर
मुट्ठी ताने और दांत भींचे ही अपना गुस्सा चरित्रों के साथ उनके संवादों में व्यक्त
करते हैं। उन्हें अपने अभिनेताओं और तकनीकी टीम से भरपूर मदद मिली है।
फिल्म के सभी किरदारों पर अलग से बात की जा सकती
है। समय बीतने के साथ विश्लेषणात्मक लेख आएंगे। श्रवण सिंह,भगवान दास मिश्रा,संजय
कुमार और सुनयना हमारे आसपास के चरित्र हैं। हिंदी प्रदेश के दर्शक/नागरिक स्वयं ये
चरित्र हैं या ऐसे चरित्रों के साथ जीते हैं। श्रवण सिंह का विद्रोह सिर्फ बाहर के
भगवान दास मिश्रा से नहीं है। घर में पिता से रोज की खटपट से भी वह छलनी होता है।
न चाहते हुए भी पिता पर बिफरना और भगवान दास पर हाथ उठा देना उसके मर्माहत व्यक्तित्व
की मनोदशा है। ब्राह्मण होने के दर्प में चूर भगवान दास को एहसास ही नहीं है कि वह
अमानवीय हो चुका है। सत्ता और वर्चस्वधारी व्यक्तियों से उनकी समीपता उनके
अहंकार को खौलाती रहती है। संजय कुमार की आंखें में स्थायी अवसाद है। विवश होने
के बावजूद वह टूटे नहीं हैं। वे जिस तरह से तन कर चलते हैं और श्रावण को उम्मीद
के साथ प्रशिक्षित करते हैं। वास्तव में यही उनका अहिंसक बदला है। सुनयना हिंदी
समाज की वह मूक लड़की है,जो सब कुछ देखती और सुनती है,लेकिन कुछ भी बोलने का
अधिकार नहीं रखती। कहने की आवश्यकता नहीं कि सभी कलाकारों ने अपने किरदारों में
जान भर दी है। वे अनुराग कश्यप के अपेक्षित भावों को अपना स्वभाव बना लेते हैं।
विनीत कुमार सिंह की मेहनत और निर्देशक पर उनके अटूट विश्वास पर तो पूरा अध्याय
लिखा जो सकती है। जोया हुसैन भावप्रवण कलाकार हैं। उन्होंने किरदार की सीमाओं को
निभाने में अभिनय की सीमा बढ़ा दी है। अनुभवी अभिनेता जिमी शेरगिल और रवि किशन ने
अपनी कलाकारी से कथ्य को मजबूत किया है। फिल्म में चल रहे कार्य-व्यापार घर,परिवार और समाज की धड़कने सुनाई पड़ती हैं!
इस फिल्म के गीतों को पढ़ने की जरूरत है। फिल्म
में सुनने पर गीत के शब्दों में निहित भाव कई बार ढंग से सुनाई नहीं पड़ते। हुसैन
हैदरी और अन्य गीतकारों के गीत कथ्य को ही गाढ़ा करते हैं।
अवधि- 155 मिनट
चार स्टार ****
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