सिस्टम की खामियों की पड़ताल
-अमित कर्ण
हिंदी सिने जगत पर स्टार कल्चर को हावी न होने देने
वाले में राम गोपाल वर्मा की भी अहम भूमिका रही है। वह भी तब, जब नौवें दशक में डॉलर
सिनेमा उफान पर था। विदेशी लोकेशनों से अटी फील गुड, लकदक फिल्मों का जोर था।
बेसिर-पैर की कॉमेडी भी खूब पसंद की जाती थी। उसके बावजूद तत्कालीन दौर में राम
गोपाल वर्मा ने ‘शूल’, ‘सत्या’, ‘कंपनी’, ‘रक्तचरित्र’ और ‘सरकार’ जैसी मीनिंगफुल व
मनोरंजक फिल्में दीं। ‘कौन’ व ‘भूत’ सिने इतिहास की उम्दा हॉरर फिल्में बनीं। इतना
ही नहीं उन्होंने आम चेहरे –मोहरे वालों, मगर अति प्रतिभाशाली कलाकारों को मुकम्मल
मंच प्रदान किया। उनकी कैंप से ढेर सारे विलक्षण फिल्मकार व लेखक भी सिने जगत को
मिले। बहरहाल, हाल के दिनों में राम गोपाल वर्मा ट्रैक से भटके हुए लगे। उनकी
लगातार कई फिल्में नहीं चलीं। लिहाजा उन्होंने ‘सत्या2’ के बाद काम से ब्रेक
लिया। दो साल तक आत्मनिरीक्षण किया। अब उनकी ‘वीरप्पन’ आ रही है। पेश से उनसे हुई
बातचीत के प्रमुख अंश:
-आप लंबे अंतराल बाद आ रहे हैं। आत्मनिरीक्षण के बाद
क्या कुछ महसूस हुआ।
यही कि मेरे सर पर मेरी उपलब्धियां हावी हो गई थीं।
मैं खुद को त्रुटिहीन मान बैठा था। अब मैं अपने हर कदम फूंक- फूंक कर रखूंगा। विषय
विशेष पर फिल्म बनाने से पहले मैं अपनी टीम से मशविरा लूंगा। यह जानने की कोशिश रहेगी
कि उस विषय पर यहां या हॉलीवुड में फिल्में बन चुकी हैं कि नहीं। उसके बाद भी मैं
फिल्म बनाऊं तो वह उनसे उत्कृष्ट होगी कि नहीं। टीम का असहमति में एक भी तर्क
मुझे जंचा तो मैं उस विषय पर हाथ नहीं लगाऊंगा। मैंने अपने निरंकुशवादी रवैये का
परित्याग कर दिया है। अब से फिल्म निर्माण का फैसला मैं अकेले नहीं लिया करूंगा।
मैं किसी व्यक्ति की जगह सिसट्म के प्रति जवाबदेह रहूंगा।
-‘वीप्पन’ या इससे पहले जिन दुर्दांत लोगों को आप या
बाकी फिल्मकार सनकी दिखाते रहे हैं। असल में जबकि बड़े कांड करने के लिए ठंडे
दिमाग से सोचना पड़ता है।
आप का लॉजिक सही है, पर दरअसल ज्यादातर अपराधी अपने
फैसलों को सही ही मानते हैं। वह भले कानून की नजर में गलत है। बड़ी दिलचस्प बात है
कि बुरा काम खुद को अच्छा मानकर ही किया जाता है। दूसरी चीज यह भी है कि अधिकांश
अपराधियों के पास दिमाग होता भी नहीं है। वे सनकी व आवेगशील होते हैं। उनके पास
सही-गलत करने की ठोस वजह नहीं होती। तभी फिल्मों में हमें उन्हें बतौर सायको
दिखाना पड़ता है। हालांकि ‘कंपनी’ में अजय देवगन व ‘सरकार’ में ऐसा नहीं था।
-आप की अपराध जगत वाली फिल्मों में सिर्फ गैंगस्टर व
अंडरवर्ल्ड ही क्यों रहते हैं। आतंकी संगठनों व उनके कुकृत्यों पर फिल्में क्यों
नहीं बनाते।
वह बड़ा पेचीदा मसला है। उन संगठनों की कार्यप्रणाली व
मकसद दोनों बड़े गहरे आरोपित यानी डीप रूटेड होते हैं। वह चाहे धर्म के नाम पर
मचाया जाने वाला आतंक हो या अपने हक, अपनी जमीन व जंगल के लिए छेड़ा गया जिहाद।
अगर मैं सिर्फ यह दिखाऊं कि फलां आतंकी संगठन ने सैकड़ों जानें ली तो वह नाकाफी
होगा। कोई इंसान सुसाइड बॉम्बर क्यों बना, उसकी तह में जाना भी जरूरी है। वरना हर
किस्म के आतंकियों व आंदोलनकारियों को हम विलेन ही बना देंगे। जबकि हर हाल में ऐसा
नहीं होता।
-ओसामा बिन लादेन अमेरिकी विस्तारवादी नीति की पैदाइश
थी। वीरप्पन के साथ ऐसा था।
मेरे ख्याल से हर हुकूमत अपने निहित स्वार्थों को
पूरा करने के लिए भ्स्मासुर पैदा करती रही हैं। मसलन, इंदिरा गांधी ने
भिंडरावालां क्रिएट किया था। अमेरिका ने ओसामा गढ़ा। वीरप्पन के साथ पूर्णत: ऐसा
नहीं था। वह इसलिए कि उसका कार्यक्षेत्र जंगल था, जहां आबादी व वोटबैंक नहीं था। वह
साथ ही किसी कॉज के लिए नहीं लड़ रह था। वह विशुद्ध क्रिमिनल ही था।
-गर उसे राजनीतिक संरक्षण हासिल नहीं था तो क्या यह
मुमकिन है कि स्टेट को महज एक अपराधी को ठिकाने लगाने में दो दशक लगें।
जंगल उसका घर था, जिसके चप्पे-चप्पे से वह वाकिफ था।
वह भेडि़या सरीखा था। उसका दस-बीस लोगों का ही दल था, जो अलग-अलग इलाकों में छितरे
हुए थे। जंगल इतना घना था कि आप 25 मीटर की दूरी पर ख्ड़े बड़े जानवर तक को नहीं
देख सकते। उन सब चीजों की वजह से वह बचता रहा। उसे पकड़ने के लिए जो एटीएस फोर्स
गठित की गई, उनके जवानों को खासतौर पर जंगल जैसी परिस्थितियों में दुश्मनों को
मार गिराने की खास तौर पर ट्रेनिंग दी गई। उस फोर्स में भी समन्वय का अभाव रहा, क्योंकि
वह लोकल पुलिस, फॉरेस्ट ऑफिसर, बीएसएफ के जवानों को मिलाकर बनाया गया था। फिर
वीरप्पन को स्थानीय गांव वालों का भी समर्थन हासिल था, जिनके लिए वह रॉबिनहुड था।
-आप शुरू में वीरप्पन की धड़-पकड़ की ऑपरेशन पर फिल्म
बनाने वाले थे, पर उसकी मौत के बाद कहानी को वृहद रूप दे दिया।
यह सच नहीं है। हम ‘लेट्स कैच वीरप्पन’ बनाने को थे।
उसकी कहानी उन तीन मुखबिरों पर केंद्रित थी, जो वीरप्पन को पकड़वा इनामी रकम हासिल
करना चाहते थे। जब तक उन तीनों से बात-वात कर हम फिल्म शुरू करते, अगले दिन
वीरप्पन का एनकाउंटर हो गया। लिहाजा मैंने वीरप्पन की जिंदगी के निर्णायक क्षण,
उसके उदय व अस्त के साथ-साथ उसके धड़-पकड़ के ऑपरेशन कोकून पर कहानी केंद्रित की।
-रिसर्च के लिए आप ने किन लोगों की मदद ली। उससे क्या
पता चला, वीरप्पन में जरा भी इंसानियत नहीं थी।
मैं उसके गैंग के पुराने सद्सयों से मिला। ऑपरेशन
कोकून में संलिप्त पुलिस अधिकारियों से मिला। उसकी पत्नी मुत्तुलक्ष्मी व उन
लोगों से काफी जानकारी मिली, जो बरसों उसके संपर्क में थे। उसकी पत्नी मुत्तुलक्ष्मी
व उसकी प्रेम कहानी बड़ी रोचक है। शादी से पहले मु्त्तुलक्ष्मी एक बार जंगल में
लकडि़यां बीन रही थीं। तभी उसके सिर पर बंदूक ताने वीरप्पन खड़ा मिला। उसने बिना
लाग लपेट के उससे पूछा कि मुझसे शादी करेगी। लड़की ने पहले ना और बाद में डर से
हां में सिर हिलाया। वीरप्पन को लगा कि वह मान गई। बाद में उसके घर जा उसके पिता
से उसका हाथ मांगा। अब उसे मना करने वाला भला कौन हो सकता है। बाद में उसने अपनी
बीवी को कभी कोई कष्ट नहीं होने दिया। रहा सवाल इंसानियत का तो उसने अपनी बच्ची
को सिर्फ इस वजह से मार दिया कि उसकी रोने की आवाज सुन पुलिस वाले उसके अड्डे पर आ
उसके गैंग के सद्सयों को मार सकते थे।
-ऐसी फिल्मों में अपराधियों के महिमामंडन की काफी
गुंजाइश रह जाती है।
महिमामंडन तो नहीं कहूंगा। वह इसलिए कि हिटलर को
मरवाने वालों में जिन मित्र राष्ट्र के नेताओं व अधिकारियों का हाथ था, उनके बारे
में कोई नहीं जानता। सब हिटलर को ही जानते हैं। तकनीकी तौर पर हिटलर विलेन था व
अमेरिकी व ब्रितानी नेता हीरो, मगर चर्चित हिटलर रहा। उसने हैवानियत की गहरी छाप
छोड़ी। वीरप्पन भी वैसा ही था। उसने भी जिन पुलिस अधिकारियों व मासूमों को मारा,
उनका नाम इतिहास ने भुला दिया। हम ऐसे तो समाज में जी रहे हैं। आम लोगों को जुल्म
के खिलाफ लड़ने वालों में पता नहीं क्यों दिलचस्पी नहीं है। इसलिए मैं महिमामंडन
नहीं कहूंगा, बल्कि ऐसी फिल्में सिस्टम को अपनी खामियों की पडताल करने को कहती
हैं।
-दाउद इब्राहिम को आप ने जिस तरीके से पोट्रे किया, उस
पर उसकी गैंग से तारीफ, उलाहना या धमकी भरे कॉल्स आए।
मैं नाम तो नहीं लूंगा, पर दाउद की गैंग के सिरमौर
लोगों के कॉल्स मुझे आए। उन्होंने कहा कि भाई को ‘कंपनी’ पसंद आई थी।
-अमित कर्ण
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