फिल्म समीक्षा : वन नाइट स्टैंड
क्षणिक सुख
अंतिम सच नहीं
मौजूदा युवा
वर्ग रिश्तों से जुड़े कठिन सवालों से चौतरफा घिरा हुआ है। वे प्यार चाहते हैं,
पर समर्पण एकतरफा रहने की अपेक्ष करते हैं। कई युवक-युवतियां प्यार, आकर्षण व
भटकाव के बीच विभेद नहीं कर पा रहे हैं। ढेर सारे लोग बेहद अलग इन तीनों भावनाओं
को एक ही चश्मे से देख रहे हैं। यह फिल्म उनके इस अपरिपक्व नजरिए व उससे उपजे
नतीजों को सबके समक्ष रखती है। यह साथ ही शादीशुदा रिश्ते के प्रति लोगों की वफादारी
में आ रही तब्दीली की वस्तुस्थिति से अवगत करवाती है। यह उनकी लम्हों में की गई
खता के परिणाम की तह में जाती है। हिंदी सिने इतिहास में ऐसा कम हुआ है, जब मर्द
की बेवफाई को औरत की नजर से पेश किया गया हो। उस कसूर को औरत के नजरिए से सजा दी
गई हो। जैसा ‘कभी अलविदा ना कहना’ में था। इस फिल्म की निर्देशक जैस्मिन मोजेज
डिसूजा यहां वह कर पाने में सफल रही हैं। इस फिल्म का संदेश बड़ा सरल है। वह यह कि
क्षणिक सुख को अंतिम सत्य न माना जाए।
कहानी शादीशुदा युवक उर्विल, अजनबी सेलिना के
भावनाओं में बहकर जिस्मानी संबंध बना लेने से शुरू होती है। सेलिना उस संबंध को के
चलते अपनी शादीशुदा जिंदगी प्रभावित नहीं होने देती, जहां वह अंबर कपूर के नाम से
जानी जाती है। वह उर्विल के संग बिताए पलों के प्रति अनासक्त भाव रखती है। उर्विल
ऐसा नहीं कर पाता। वह उन पलों को अपनी दुनिया बना लेता है। वह उस पर सिमरन के साथ अपनी
पांच साल पुरानी शादीशुदा जिंदगी व खुद का करियर तक दांव पर लगा देता है। वह अपने
जिगरी दोस्त डेविड तक की नसीहतों को नहीं मानता। उर्विल को इस रवैये की कीमत क्या
अदा करनी पड़ती है, ‘वन नाइट स्टैंड’ उस बारे में है।
निर्देशक जैस्मिन मोजेज डिसूजा की इस मामले
में तारीफ करनी होगी कि उन्होंने फिल्म में उठाए मुद्दे के संग न्याय किया है। फिल्म
में जो सवाल उठाए गए हैं, उनके यथोचित जवाब आखिरी में मिले हैं। फिल्म की कमजोर
कड़ी भवानी अय्यर की किस्सागोई का तरीका, पटकथा व मुख्य कलाकारों का औसत
प्रदर्शन है। हां, निरंजन अयंगर के संवाद अच्छे हैं। उसमें पैनापन रामेश्वर एस
भगत की एडिटिंग से आ गया है।
उर्मिल बने तनुज विरवानी व डेविड की भूमिका
में निनाद कामथ की अदाकारी सधी हुई है। सेलिना बनी सनी लियोनी शो पीस लगी हैं, मगर
वे ऐसी भूमिकाएं कर खुद को चुनौती दे रही हैं। सिमरन के रोल में नायरा बनर्जी असर
छोड़ पाने में बेअसर रही हैं। बाकी कलाकारों ने महज औपचारिकताओं का निर्वहन किया
है। राकेश सिंह की सिनेमैटोग्राफी अच्छी है। फुकेट व पुणे की खूबसूरती पर्दे पर
उभर कर आई है। जीत गांगुली, मीत ब्रद्रर्स, टोनी कक्कड़ व विवेक कार का संगीत
कर्णप्रिय है।
अवधि - 90 मिनट
स्टार- **1/2 ढाई स्टार
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