उदासियों के वो पांच दिन- विक्की कोशल
-अमित कर्ण
विक्की कौशल
नवोदित कलाकार हैं। उन्होंने अब तक दो फिल्में ‘मसान’ व ‘जुबान’ की हैं। दोनों
दुनिया के प्रतिष्ठित फिल्म फेस्टिवल की शान रही है। ‘मसान’ के बाद अब उनकी ‘रमन
राघव 2.0’ भी कान फिल्म फेस्टिवल में चयनित हुई है।
- कभी ऐसा ख्याल आता है कि क्यों ने फ्रांस में बस जाऊं।
नहीं ऐसे विचार
मन में कभी नहीं आते हैं। वहां गया या बसा भी तो कुछ दिनों बाद ही मुझे घर की दाल
चाहिए होगी, जो वहां तो मिलने से रही। हां, वहां की आबोहवा मुझे पसंद है। उसमें
रचनात्मकता घुली हुई है। लगता है वहां के लोग पैदाइशी रचनात्मक होते हैं। कान
में पिछली बार ‘मसान’ के लिए जब नाम की घोषणा हुई तो लगा कि कदम जमीं पर नहीं हैं।
दोनों के बीच कुछ पनीली सी चीज है, जिस पर तैरता हुआ मैं मंच तक जा रहा हूं। वह पल
व माहौल सपना सा लगने लगा था। सिनेमा को बतौर क्राफ्ट वहां बड़ी गंभीरता से लिया
जाता है। वहां सिने प्रेमियों को एक मुकम्मल व प्रतिस्पर्धी सिने माहौल दिया जाता
है।
-वहां फिल्मों
की प्रीमियर के बाद क्या कुछ होता है। विश्वसिनेमा के विविधभाषी फिल्मकार कैसे
संवाद स्थापित करते हैं।
प्रीमियर बाद
की पार्टियों में खाने की मेज देश या सिनेमा विशेष के आधार पर आरक्षित नहीं किया
जाता। उस मेज पर कोई भी आ-जा, बैठ सकता है। मेरी कोशिश उन दिग्गज सिने प्रतिभाओं
से तकनीक से ज्यादा मानवीय खूबी-खामी का निरीक्षण और आत्मसात करने की होती है।
मिसाल के तौर पर पिछली बार मुझे उस जलसे में ‘यूथ’ के माइकल केन व हार्वे कीटल
मिले। दोनों विश्वस्तरीय कलाकार हैं। उस फिल्म की स्क्रीनिंग वहां स्थित दुनिया
के सबसे बड़े ल्यूमिए थिएटर में हुई थी। मैं ठहरा माइकल केन का बहुत बड़ा फैन।
उनके वीडियो देख-देखकर अदाकारी के गुर सीखे हैं। उनसे मिल सादगी का पाठ पढ़ने को
मिला। बातचीत में उन्होंने बताया कि उनकी पत्नी भी भारतीय ही है। एक तो वे पूरी
विनम्रता से मिले। उनके संग तस्वीर का आग्रह किया तो कैमरा उन्होंने अपनी पत्नी
के हाथों में थमाया। हमसे पूछा कि आप किस पोज में तस्वीर लेना पसंद करेंगे। मैं
दंग रह गया कि इतना बड़ा स्टार और इतनी सरलता। ठीक ‘पाकर भी क्या पा लोगे’ सा
मिजाज।
-और किस्सागोई
के स्तर पर क्या कुछ सीखने को मिला।
यही कि दर्शक
फिल्मों से अचंभित होने को तैयार बैठे हैं। आप वैसी कहानियां तो लेकर आएं। इसके
चलते स्टार के साथ-साथ नवोदित कलाकारों की मांग में भी खासा इजाफा हुआ है। कहानी
किंग व किंग मेकर बनने की राह पर है। ‘यूथ’ दो बुजुर्ग दोस्तों की कहानी है, जो
ताउम्र रोजी-रोटी की भाग-दौड़ पूरी कर चुके हैं। आगे वे क्या-क्या गुल खिलाते हैं,
कहानी उस बारे में थी। मतलब यह कि वहां के फिल्मकार दर्शकों को इंप्रेस करने के
चक्कर में नहीं रहते। वे खुद को एक्प्रेस करते हैं। अधिसंख्य दर्शकों की पसंद का
ख्याल रखा ही जाए, वैसा वे नहीं करते। कला के जरिए उन्हें क्या जाहिर करना है, वे
बस उसकी फिक्र करते हैं। तभी वहां चौंकाने वाला सिनेमा बनता है।
-ऐसा तभी हो
पाता है, जब वहां के दर्शक ज्यादा सिने जागरूक हैं।
ऐसा नहीं है।
हमारे दर्शक भी काफी समझदार हैं। फर्क कल्चर से आता है। यहां ‘मसान’ का अलग रूप
दिखाया गया, वहां अलग। दरअसल वहां के लोग अपनी भावनाओं को जल्दी जाहिर नहीं करते।
उस पर उनका नियंत्रण होता है। हमारे यहां तो लोग ताक में रहते हैं कि कहां मौका
मिले कि भावनाओं में बह जाएं। वह खुशी हो, रुलाई हो या गुस्सा । सब में अतिरेक
है। वे लोग बड़े सोबर हैं। तभी हमारी फिल्मों के मेलोड्रामे उन्हें अजीब लगते हैं।
वे सिनेमा में परम सत्य ढूंढते हैं। हम मनोरंजन। यह फर्क है।
-‘रमन राघव 2.0’ को अनसर्टेन रिगार्ड की जगह डायरेक्टर्स फोर्टनाइट में क्यों भेजा गया है।
कान में यह कैटेगरी
आठ-दस साल पहले शुरू हुई है। यह प्रतिस्पर्धी श्रेणी नहीं है, पर इसमें आई
फिल्मों पर दुनिया भर के वितरकों की नजर रहती है। ऑस्कर अवार्ड में भी विदेशी
भाषाओं की फिल्मों के लिए भी ऐसी श्रेणी शुरू की गई है। इस श्रेणी में मिलने वाली
फिल्मों को विदेशी खरीदार बहुत मिल जाते हैं।
-फिल्म में
राघव के रूप में किस किस्म के इंस्पेक्टर का रोल प्ले कर रहे हैं। टाइटिल में
‘2.0’ का क्या तात्पर्य
यह है।
रमन के बारे
में तो सब जानते ही हैं कि वह सायको किलर था। 1960 से लेकर 1969 तक उस इंसान ने 41
मर्डर किए थे। फुटपॉथ पर सोए लोगों को बेवजह मार चला जाता था। उसकी कहानी पर
अनुराग कश्यप ने एक अलग स्टैंड लिया है। मैं राघव बना हूं। रमन के साथ दिमागी
नूराकुश्ती में ऊंट किस करवट लेता है, ‘रमन राघव 2.0’ उस बारे में है। राघव भी सरल-सपाट नहीं है। अतीत
में उसकी निजी जिंदगी में खासी दिक्कतें रही हैं। उनके अंदर क्षोभ और निराशा का
लावा सुलग रहा है, पर वह अपनी भड़ास किसी पर डायरेक्टली नहीं निकाल सकता। ऐसे में
वह सनकी सा बन चुका है। कहीं सुकून भी मिलता है तो उसे बेचैनी होने लगती है। अपनी
प्रेमिका से प्यार भरी कम, तंज भरी बातें ज्यादा करता है, मगर उससे बहुत प्यार
करता है। उसकी प्रेमिका भी इस बात से वाकिफ है। वह जानती है कि राघव अपना असली
चेहरा, अपनी भड़ास उसके पास ही जाहिर कर सकता है। ऐसे में राघव की भड़ास को भी वह
प्यार से लेती है।
-उसे आत्मसात
कैसे किया ।
उसका सफर ऑडिशन
से शुरू हो गया। चूंकि असल जिंदगी में मैं राघव जैसों से मिला नहीं और मेरे पास
उसके ज्यादा रेफ्रेंस नहीं थे। मैंने बैग पैक किया और मड आयलैंड स्थित अपने दूसरे
घर अकेले चला गया। लोखंडवाला स्थित घर पर अपने परिजनों को बोल दिया कि मैं अगले
पांच दिन किसी के संपर्क में नहीं रहने वाला। लिहाजा चिंता न करें। मैंने पांच दिन
खुद को न्यूनतम सुविधाओं के साथ कैद कर लिया। न फोन था। न टीवी। लोगों के संपर्क
में भी नहीं रहा। चारों तरफ निराशा व तन्हाई का माहौल क्रिएट कर लिया। संवाद के
लिए अनुराग कश्यप सर से मिले दो पन्नों की स्क्रिप्ट थी। उस पर ही लगातार
चिंतन-मनन करता रहा। दो दिनों में ही भावनात्मक तौर पर मुझ में तब्दीली आने लगी।
चौथे दिन तक राघव की मानसिकता से काफी हद तक मैं अवगत हो गया। पांचवें दिन आते-आते
तो लगा कि दिमाग ही ब्लास्ट कर जाएगा। उस दिन मेरा ऑडिशन था। मैं मड आयलैंड से
सीधे वहीं पहुंचा। फिर बीते पांच दिनों से मेरे भीतर उपजे मनोभावों ने ऑडिशन में
जादू किया। मैं इस रोल के लिए चुन लिया गया।
-अमित
कर्ण
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