दुनिया में अच्छे लोग हैं - नागेश कुकुनूर
-स्मिता श्रीवास्तव
नागेश कुकनूर की अगली फिल्म ‘धनक’ है। ‘धनक’ का अर्थ इंद्रधनुष है। फिल्म को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी सराहाना मिली
है। बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में बच्चों की श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का अवार्ड भी
मिला। पेश है नागेश से की गई बातचीत के प्रमुख अंश :
-‘राकफोर्ड’ के बाद आपने बच्चों साथ फिल्म न बनाने की कसम खाई थी। फिर ‘धनक’ कैसे बनाई?
मैंने यह बात इसलिए कही थी क्योंकि सेट
पर बच्चों को डील करना बेहद कठिन काम होता है। रॉकफोर्ड में ढेर सारे बच्चे थे।
उन्हें मैनेज करना बहुत मुश्किल रहा। मेरे खुद के बच्चे अभी नहीं है। लिहाजा मैं
उनकी आदतों का आदी नहीं हूं। बच्चों साथ काम करने के दौरान बहुत बातों का ख्याल
रखना पड़ता है। उनका मन बहुत कोमल होता है। आपकी कही बातें उनके मन मस्तिष्क में
बैठ जाती हैं। आपकी किस बात पर वे क्या सोचते हैं? उसे उन्होंने किस
प्रकार लिया? यह समझना बहुत मुश्किल है। एक्टर साथ यह समस्याएं नहीं आतीं। वे आपसे सहमत
या असहमत हो सकते हैं। लिहाजा बच्चों साथ सोच-विचार कर काम करना होता है। हालांकि
मैं सेट पर बच्चों को पुचकारने में यकीन नहीं रखता। मैं उनसे एक्टर सरीखा व्यवहार
करता हूं। धनक में कृष सात वर्ष का और हेतल 11 वर्षीय बच्ची है। मैंने उन्हें
शुरुआत में शूटिंग में आने वाली दिक्कतें बता दी थीं। मसलन हम राजस्थान में शूटिंग
करेंगे। वहां भीषण गर्मी और धू के थपेड़े झेलने होंगे। अगल 35 दिन हमें प्रतिदिन सात-आठ घंटे शूटिंग करनी होगी। वगैरह-वगैरह। उन्होंने इसे
सहजता से लिया। शूटिंग के दौरान कभी कोई नखरे नहीं किए।
-धनक बनाने का ख्याल कैसे आया?
भारतीय में ढेरों अच्छाइयां हैं। मैं
फिल्म के माध्यम से कहना चाहता हूं कि दुनिया में अभी भी अच्छाई कायम है। मेरे
बचपन की देश की यादें बहुत सुहावनी हैं। हम स्कूल से पैदल घर आते थे। हम अजनबियों
पर भी भरोसा कर लेते थे। अपहरण जैसी कोई आशंका नहीं होती थी। मैं उसी दुनिया को
दिखाना चाहता हूं। अच्छाई-बुराई तो हर कल्चर में होती है। मैं अच्छाई को सेलिब्रेट
करना चाहता हूं। यह फिल्म राजस्थान के दो भाई-बहनों परी और छोटू की कहानी है। भाई
दृष्टिहीन है। बहन उसके नौवें जन्मदिन से पहले रौशनी वापस लाने के लिए प्रयासरत
है। उन्हें उम्मीद है कि उनके सपने को शाह रुख खान साकार करेंगे। उन्हें पता चलता
है कि शाह रुख राजस्थान के सुदूर इलाके में शूटिंग कर रहे हैं। दोनों उनसे मिलने
निकल पड़ते हैं। रास्ते में वह अलग-अलग लोगों से मिलते हैं।
-शीर्षक धनक रखने की खास वजह?
कहानी आठ साल के बच्चे की कहानी है। अगर
उसकी आंखों की रौशनी लौट आए तो क्या देखना चाहेंगे? फिल्म का शीर्षक उसी
परिप्रेक्ष्य में रखा गया है। दरअसल, इंद्रधनुष देखने को हर कोई ललायित
रहता है। वह आसमान में बेहद सुंदर दिखता है। उसके प्रति आकर्षण की वजह नहीं पता।
आंखों की रौशनी वापस आने पर हर कोई खूबसूरत चीज देखना चाहेगा। यही वजह है कि मैंने
शीर्षक धनक रखा। यह हैप्पी फिल्म है।
-आपकी फिल्मों में राजस्थान का किरदार रहता है। कोई खास वजह?
डोर के अलावा मेरी फिल्म ‘ये हौसला’ भी राजस्थान पृष्ठिभूमि में थी। अफसोस कि ‘ये हौसला’ रिलीज नहीं हो पाई। मैं मजाक में अक्सर कहता हूं कि शायद पिछले जन्म में मैं
राजस्थानी था। वहां की खूबसूरती और संस्कृति मुझे भाती है। वहां पर कहानी का कैनवस
बढ़ जाता है। ‘धनक’ की कहानी सिंपल है। राजस्थान में यह कहानी निखर कर आई है। वहां
ढेरों खूबसूरत जगह हैं। उन्हें कैप्चर करना बाकी है। फिल्म को जोधपुर से जैसलमेर
के बीच 46 लोकेशन पर शूट किया गया है। शूटिंग 33 दिन में पूरी हुई।
-फिल्म का विचार निर्भया कांड के बाद आया था?
बिल्कुल नहीं। उस समय मैंने लक्ष्मी
बनाई थी। तब भी यही सवाल उठा था। लक्ष्मी बाल वेश्यावृत्ति और तस्करी आधारित थी।
वह निर्भया कांड से पहले ही बन गई थी। मैं उन्हीं मुद्दों पर फिल्म बनाता हूं
जिनपर यकीन करता हूं। दूसरा मेरे घर में केबिल नहीं है। लिहाजा बाहरी दुनिया की
जानकारी नहीं रहती। आसपास के लोगों से जानकारी मिल जाती है। कभी-कभी इंटरनेट पर खबरें
जरूर खंगाल लेता हूं। मैं एनजीओ से जुड़ा हूं। लक्ष्मी की कहानी वहीं से निकली।
वर्तमान में हम अपने नौकर,
दूधवाले से लेकर सरकार तक किसी पर भरोसा नहीं करते। लिहाजा
उस नजरिए से अलग कुछ बनाना था।
-आपकी फिल्मों में फिजिकली चैलेंज्ड किरदार रहने की खास वजह?
मेरी कहानियां यूनिक नहीं होती। उसमें
मोमेंट यूनिक होते हैं। इकबाल एक छोटे से गांव के लडक़े की कहानी थी। वह देश के लिए
क्रिकेट खेलना चाहता था। उसमें एक बधिर का एंगल जोडऩे से वह संवेदनशील विषय हो
गया। मेरे मकसद सिर्फ यह बताना है कि दुनिया में कुछ ऐसे लोग भी हैं। उनके प्रति
संवेदनशील रहे। मैं फिल्म में विकलांगता को मुद्दा कभी नहीं बनाता। ‘इकबाल’ आठवीं
क्लास में एक चैप्टर भी बन गया है। इसके अलावा मैं कई एनजीओ से जुड़ा हूं। वे
बताते है कि लोग उससे बेहद प्रभावित होते हैं।
-हमारे यहां बच्चों की फिल्में हाशिए पर रहती हैं...
डिज्नी को बच्चों की दुनिया बखूबी पता
है। उनकी फिल्मों से बच्चे ही नहीं उनके पैरेंट्स भी जुड़ते हैं। यही वजह है कि ‘जंगल बुक’ को बच्चों साथ वयस्क भी पसंद कर रहे।
हमारे यहां बच्चों की फिल्मों का बिजनेस सिफर होता है। ये फिल्में गंभीरता
साथ नहीं बनाई जातीं। वयस्क ज्यादतर फिल्मों को बकवास ही बताते हैं। ‘धनक’ को
बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में चिल्ड्रेन सेक्शन में चुना गया। मैं चौंका था। यह फिल्म
दो बच्चों की कहानी है, लेकिन चिल्ड्रेन फिल्म नहीं है।
-छोटी बजट की फिल्मों
के लिए बड़े स्टारों का समर्थन कितना अहम है?
वर्तमान में फिल्म की मार्केटिंग और
पब्लिसिटी बहुत महंगी हो गई है। शाह रुख खान ने मेरी फिल्म का सपोर्ट किया।
करोड़ों लोगों का ध्यान उस ओर आकर्षित हुआ। उनके ट्विट से छोटी फिल्म लाइमलाइट में
आ जाती है। लिहाजा उनके सपोर्ट को हल्के में नहीं ले सकते। उनके जैसे सुपरस्टार की
बैकिंग बहुत जरूरी है।
-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराही गई फिल्में बॉक्स आफिस पर नहीं चलती। क्या वजह
मानते हैं?
दरअसल इंटरनेशनल और इंडियन आडियंस की
पसंद बेहद अलग हैं। ‘लक्ष्मी’ को अंतरराष्ट्रीय पर बहुत पसंद किया गया। भारत में उसे कोई तवज्जो नहीं मिली।
लक्ष्मी से मैं अपनी फिल्म के दो कट बनाने लगा हूं। एक इंटरनेशनल दूसरा इंडियंस
आडियंस के लिए। इंडियन वजर्न में गाने भी होते हैं। हालांकि यह बैकग्राउंड में
होते हैं। इंटरनेशनल वर्जन में एक दो गाने रखता हूं। हालांकि उसकी मिक्सिंग अलग
तरह से करता हैं। मगर हां,
मैं फिल्म को अलग से शूट नहीं करता।
Comments
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