दरअसल : राष्ट्रीय पुरस्कार : प्रक्रिया और प्रासंगिकता
-अजय ब्रह्मात्मज
पिछले हफ्ते 3 मई को राष्ट्रपति के हाथों सभी
विजेताओं को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिए गए। अब यह तारीख राष्ट्रपति की
आधिकारिक डायरी में दर्ज कर दी गई है। पहले राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान करने की
कोई तारख निश्चित नहीं थी। राष्ट्रपति की सुविधा से तारीख तय करने में विलंब हो
जात था। छह-छह महीने की देरी हो जाती थी। पुरस्कार पाने का उत्साह भी कम हो जाता
था। क्या आप जाने हैं कि राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान करने की तारीख 3 मई ही क्यों
निश्चित की गई है? दरअसल, 3 मई को ही भारत की पहली फिल्म
रिलीज हुई थी। इसके निर्देशक दादासाहेब फालके थे। उनकी स्मृति में ही फिल्मों का
सबसे बड़ा सम्मान दादासाहेब फालके पुरस्कार दिया जाता है।
2015 की फिल्मों के लिए दिए गए 63 वें राष्ट्रीय
फिल्म पुरस्कारों में इस बार हिंदी फिल्मों और उनसे जुड़े कलाकारों और
तकनहशियनों की संख्या ज्यादा है। यह स्वाभाविक है। पुरस्कार के निर्णायक मंडल
की रुचि और स्वभाव से फर्क पड़ता है। हम ने देखा है कि निर्णायक मंडल के अध्यक्ष
की भाषा से पलड़ा झ़ुकता है। हानांकि इसे कोई स्वीकार नहीं करेगा,लेकिन ऐसा होता
है। पिछले सालों में कई विवाद भी हुए हैं। इस बार विवाद नहीं हैं,लेकिन कसमसाहट
है। कई श्रेणियों में कम प्रतिभाशाली और प्रभावपूर्ण प्रतिभाओं को पुरस्कार मिले
हैं। कुछ श्रेणियों में तो क्वालिटी का भी खयाल नहीं रखा गया है। पिछले उदाहरण
हैं कि अगर किसी भाषा में कोई अच्छी फिल्म नहीं आई तो पुरस्कार ही नहीं दिए गए।
सचमुच पुरस्कारों में कोटा और अनिवार्यता नहीं रहनी चाहिए।
पुरस्कार की प्रक्रिया को समझ लें तो कई उलझनें समाप्त
हो जाएंगी। पुरस्कारों के लिए देश को चार हिस्सों में बांटा गया है।
पूर्व,पश्चिम,उत्तर और दक्षिण... इन क्षेत्रों के पांच क्ष्ेत्रीय निर्णायक मंडल
होते हैं। चूंकि दक्षिण में तमिल,तेलुगू और मलयालम मिलाकर फिल्मों की संख्या
बहुत ज्यादा हो जाती हैख्इसलिए दक्षिण में दो निर्णायक मंडल होते हैं। पुरस्कारें
के लिए प्रविष्टियों के निमंत्रण के बाद फिल्मकारों को फीचर और गैरुीचर श्रेणी
में फिल्में भेजनी होती हैं। श्रेष्ट पुस्तक और समीक्षक के लिए भी प्रविष्टियां
भेजनी पड़ती हैं। हमारे फिल्म पत्रकार,समीक्षक और लेखक इस भ्रम में नहीं रहें कि
उनके अच्छे लेखन के लिए सरकार उन्हें सम्मानित कर देगी। कुछ मामलों में ऐसा हो
सकता है,जब किसी ने अपनी फिल्म नहीं भेजी हो,जबकि वह फिल्म चर्चा में हो। 2011
में मणि रत्नम की ‘रावण’
मंगायी गई थी। यह अलग बात है कि इसके बावजूद उसे किसी भी श्रेणी में पुरस्कार के
योग्य नहीं समझा गया था।
सभी क्षेत्रों में मिली प्रविष्टियों को क्षेत्रीय
निर्णायक मंडल देखता है। वह कुल प्रविष्टियों में से
30 प्रतिशत का चयन कर केंद्रीय निर्णायक मंडल के पास भेजता है। केंद्रीय निर्णायक
मंडल में पांचों क्षेत्रीय अध्यक्ष शामिल रहते हैं। उनके अलावा पांच और सदस्य
चुने जाते हैं। इन सबके ऊपर अध्यक्ष होता है। िकेंद्रीय निर्धायक मंडल के 11 सदस्यों
की टीम ही पुरस्कार ता करती है। अध्यक्ष एक ही पुरस्कार के लिए दो याग्य व्यक्तियों
और फिल्मों के आ जाने पर अपना कीमती मत देता है। निर्णायक मंडल के सदस्य अपनी
पसंद के कारण भी बताते हें। मतैक्य और मतभेद दोनों ही स्थितियों में गहन विमर्श
होता है। इन बहसों के तर्का और टिप्पणियों को बाहर नहीं आने दिया जामा। निर्णायक
मंडल के निर्णयों को चुनौती नहीं दी जाती। कभी-कभार कोई असंतुष्ट प्रतिभा अपने
उद्गार प्रकट कर देती है।
इन दिनों पुरस्कारों की बाढ़ आई हुई है। मीडिया संस्थानों
और व्यावसायिक संस्था ओं द्वारा पुरस्कार समारोह इवेंट के तौर पर आयाजित किए
जाते हैं। पुरस्कार समारोह में आए दर्शकों और बाद में प्रसारण के समय टीवी देख
रहे दर्शकों के लिए पुरस्कारों से अधिक महत्व परफारमेंस को हो जाता है।
नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने एक बातचीत में कहा था कि हम मंच पर पुरस्कार प्राप्त कर
रहे होते हैं और दर्शक तालियां तक नहीं बजाते। फिर भी राष्ट्रीय पुरस्कारों के
महत्व से अंकार नहीं किया जा सकता। राष्ट्रीय पुरस्कार के प्रशस्ति पत्र घर और
दफ्तर में फ्रेम करवा कर टांगते हैं कलाकार और तकनीशियन।
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