दिखने लगी है मेरी मेहनत - रणदीप हुडा
-अजय ब्रह्मात्मज
रणदीप हुडा व्यस्त हैं। बहुत काम कर रहे हैं। तीन
फिल्में पूरी कीं। तीनों बिल्कुल अलग-अलग और तीनों में काफी मेहनत करनी पड़ी। एक
साल में 35 किलाग्राम वजन घटाना और बढ़ाना पड़ा। घुड़सवारी को शौक स्थगित रखना
पड़ा। घोड़ों के साथ वे भी थोड़े अस्वस्थ चल रहे हैं।
-वजन घटाना और बढ़ाना दोनों ही मुश्किल प्रक्रिया है।
उधर आमिर ने वजन बढ़ाया और फिर घटाया। आप ने वजन घटाया और फिर बढ़ाया।
0 मैं तो फिर भी जवान हूं। आमिर की उम्र ज्यादा है।
उनके लिए अधिक मुश्किल रही होगी। उम्र बढ़ने के साथ दिक्क्ते बढ़ती हैं। ‘सरबजीत’ के लिए वजन कम किया और ‘दो लफ्जों की कहानी’ के लिए 95 किलो वजन करना
पड़ा। सिफग् चर्बी नहीं घटानी होती। मांसपेशियों को भी घटाना होता है। उससे तनाव
होता रहता है।
- इन दोनों फिल्मों के बीच में ‘लाल रंग’ आया? क्या फिल्म है?
0 जी,यह अच्छा ही रहा।
हिंदुस्तान में ज्यादातर फिल्में हवा में होती हैं। उनके शहर या ठिकानों के नाम
नहीं होते। मेरी रुचि ऐसी कहानियों में रहती है,जिनका ठिकाना हो। पता हो कि किस
देश के किस इलाके की कहानी कही जा रही है। यह हरियाणा की एक सच्ची घटना पर आधारित
है। मुझे अफजाल के साथ काम करना था। इस फिल्म में पहली बार मुझे जाट किरदार
निभाने का मौका मिला। ‘हाईवे’ में मैं हरियाणवी नहीं था। वह एनसीआर का गूजर था। इस फिल्म
में फ्रेंच मथाई डुप्लेसी ने संगीत दिया है। उनके संगीत से फिल्म की खूबसूरती
बढ़ गई है। यह दुनिया के सबसे घिनौने अपराध पर है। खून बेच कर पैसे कमाने की कहानी
है। इसके साथ ही यह दोस्ती और मोहब्बत की भी कहानी है। छल है,अपराध है,प्रपंच है
और पछतावा है।
-ऐसी फिल्में करते समय अपनी माटी की खुश्बू और रंग
को पर्दे पर लाने का एहसास कैसा होता है?
0 मैंने हर तरह के किरदार निभाए हैं और उनकी भाषाएं
बोली हैं। अपनी भाषा बोलते हुए पहली बार थोड़ा अजीब सा लगा। फिल्म के लिए बोलते
समय यह खयाल रखना था कि भाष ज्यादा गाढ़ी न हो जाए। दूसरी भाषाओं के दर्शकों की
समझ में आए...खास कर हिंदी दर्शकों को। मैंने अपने किरदारों पर हमेशा मेहनत की। अब
लोगों को मेरी मेहनत दिखने लगी है। वे ध्यान देने लगे हैं। ‘लाल रंग’ में मुझे अपनी माटी के रंग
दिखाने का मौका मिला है।
-मेनस्ट्रीम सिनेमा में रहने के साथ आप छोटी फिल्में
भी समान शिद्दत के साथ करते हैं। आप की यह खूबी नोटिस हो रही है। आप इंटरेस्टिंग
एक्टर के तौर पर उभरे हैं।
0 शुरू में तो जो मौके मिले,मैं करता गया। फिर मेनस्ट्रीम
की भी फिल्में कीं। मैंने आठ साल पहले ‘रंगरसिया’ की थी। उसकी वजह से मुझे कई मेनस्ट्रीम फिल्में छोड़नी
पड़ी। थोड़ा दुखी भी हुआ कि मैं पिछड़ रहा हूं। अब लगता है कि अच्छा ही हुआ। मेरी
कॉलिंग और पहचान अलग है। उसे दर्शक पहचान रहे हैं। मुझे दर्शक मिल रहे हैं। मैंने
कभी किसी रणनीति के तहत फिल्में नहीं कीं। अपनी सीमाओं में काम करता रहा और अब
वही पसंद आ रहा है। इंटरेस्टिंग लग रहा है। मेरी अकेली कोशिश है कि में देख हुआ न
दिखूं। हर किरदार में अलग दिखूं। ‘लाल रंग’ का मेरा किरदार सबसे ज्यादा खिलंदड़ है। मेरा नाम शंकर मलिक
है।
-दादी समेत सभी रिश्तेदारों को आप सेट पर ले आए थे।
उनका अनुभव कैसा रहा?
0 पहली बार मौका मिला था। सभी को बुलाया। रोहतक और पास
के गांव से बाकी रिश्तेदार भी आए। मुझे सबसे ज्यादा खुशी दादी ने दी। सेट पर सभी
को काम करते देख उन्होंने पूछा कि इतने सारे लोग यहां क्या कर रहे हें? बाद में इतनी मगन हो गई कि उन्हें अपनी सेहत खराब होने का
भी खयाल नहीं रहा। चंगी हो गईं। वापस जाने का नाम नहीं ले रही थीं। अभी गांव गया
था तो मैंने उसे ट्रेलर और गाने दिखाए। वह बहुत खुश हुईं। उनका खुश होना मेरे लिए
किसी भी क्रिटिक की तारीफ से बढ़ कर है।
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