समाज के सड़ांध का आईना है – ugly : मृत्युंजय प्रभाकर
‘ugly’ क्या है? यह सवाल पूछने से बेहतर है
कि यह पूछा जाए कि क्या ‘ugly’ नहीं है? जिस समाज
में हम रहते हैं उस समाज में हमारे आस-पास नजर दौडाएं तो ऐसा क्या है जो अपने ‘ugly’ रूप में हमारे सामने नहीं है? बात चाहे मानवीय संबंधो
कि हो, सामाजिक संबंधों कि या आर्थिक संबंधों की, ऐसा कुछ भी नहीं है जो अपने विभीत्स
रूप को पार नहीं कर गया हो. समाज और मनुष्य को बनाने और जोड़े रखने वाले सारे तंतु बुरी
तरह सड चुके हैं और यही हमारे समय और दौर कि सबसे बड़ी हकीक़त है. ‘प्यार’, ‘दोस्ती’, ‘माँ’, ‘बाप’, ‘संतान’ जैसे भरी-भरकम शब्द
अब खोखले सिद्ध हो गए हैं. जाहिर है समाज बदल रहा है, उसके मूल्य बदल रहे हैं इसलिए
शब्दों के मायने भी बदल रहे हैं. शब्द पहले जिन मूल्यों के कारण भारी रूप धरे हुए थे
वे मूल्य ही जब सिकुड़ गए हों तो उन शब्दों कि क्या बिसात बची है. अनुराग कश्यप निर्देशित
फिल्म ‘ugly’ समाज के इसी सड़ांध को अपने सबसे विकृत
रूप में सामने लाने का काम करती है.
अकादमिक दुनिया
से लेकर बहुत सारी विचारधारात्मक बहसों के दौरान यह बात बार-बार सुनी और दोहराई भी
है कि साहित्य और कला को समाज का आईना होना चाहिए. प्रेमचंद द्वारा प्रगतिशील लेखक
संघ कि पहली कांफ्रेंस में कहे गए वाक्य को तो पता नहीं कितनी बार दुहराता रहा हूँ
कि ‘साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है’. दुनिया भर में इसे लेकर न जाने कितनी बहसें और वाद पनपी हैं. कितने विचारकों
ने कितने-कितने तरीके से इसके पक्ष में तर्क और उद्धरण जुटाए हैं. उन सबकी चर्चा अगर
यहाँ कि जाए तो संभव है कि फिल्म पर बात शुरू होने से पहले ही १०० पन्ने जिबह हो जाएँ.
फिल्म पर बात करने से पहले यह चर्चा सिर्फ इसलिए कि पूरे आलेख में यह बात बीच-बीच में
बार-बार दोहराई जाती रहेगी क्यूंकि मैं स्पष्ट तौर पर मानता हूँ कि यह फिल्म हमारे
वर्तमान समाज का आइना है.
सिनेमा जब दुनिया
में आया तब यह उम्मीद कि किरण जगी कि फोटोग्राफी कि तरह यह भी यथार्थ के चित्रण का
जरिया बनेगा क्यूंकि शब्दों और चित्रों में हम भले ही यथार्थ को परोसने कि लाख कोशिश
करें अंततः वह रहता बनाया हुआ यथार्थ ही है. जैसे हम पेंटिंग को लाख यथार्थवादी बनाने
कि कोशिश करें वह अंततः एक कलाकार द्वारा यथार्थ के पुनर्रचित्रण की कोशिश ही है. वही
हाल साहित्य का है जहाँ हम शब्दों के माध्यम से यथार्थ को वर्णित करने की कोशिश करते
हैं. लेकिन फोटो कैमरे के ईजाद के बाद पेंटिंग से यथार्थ को दर्शाने कि मांग धीरे-धीरे
ख़तम हो गई क्यूंकि वह काम कैमरा एक पेंटर से कई गुणा ज्यादा गुणवत्ता से कर सकता था.
इसीलिए शुरू-शुरू में सिनेमा से यह उम्मीद थी कि चलती पिक्चर कि दुनिया में वह वही
काम करेगा जो कैमरा ने स्टिल पिक्चर से किया है मतलब चीज़ों को हुबहू यथार्थवादी शैली
में प्रस्तुत करना. सिनेमा का इजाद करने वाले लुमिएर बंधुओं के शुरूआती छोटी फिल्मों
को देखें तो वो जिस तरह से अपने आस-पास की चीज़ों को डॉक्यूमेंट करती है उससे भी यही
उम्मीद जगती है लेकिन बाद के दौर में यही कैमरा कल्पना कि उड़ान भरता हुआ ‘लार्जर डैन लाइफ’ इमेजेज क्रिएट करने का साधन बन गया.
हालाँकि सिनेमा के आरंभ से ही ये दोनों धाराएँ साथ-साथ चलती आ रही हैं. अनुराग कश्यप
की फिल्म ‘ugly’ उस पहली धारा में आती है जहाँ सिनेमा
यथार्थवादी तरीके से अपने आस-पास की चीज़ों को डॉक्यूमेंट करने का काम करती है.
ugly ही क्यूँ उनकी अन्य फिल्मों कि भी बात करें तो वो इसी धारा में आती हैं.
यहाँ तक तो बात
ठीक है कि अनुराग कश्यप कि फ़िल्में समाज कि नग्न सच्चाइयों को डॉक्यूमेंट करने का काम
करती हैं लेकिन समाज की कोई एक धारा तो है नहीं. समाज में अच्छाईयां भी हैं और बुराइयाँ
भी हैं. अच्छे लोग भी हैं, बुरे लोग भी हैं. अब सवाल यह उठता है कि आखिर अनुराग कश्यप
कि फ़िल्में समाज की किन सच्चाइयों को डॉक्यूमेंट करने का काम करती हैं. अनुराग कश्यप
की फ़िल्मों की बात कि जाए तो वे सीधे-सीधे समाज के बुरे लोगों, बुरी प्रवृतियों और
बुराइयों को उजागर करने का काम करती हैं. इस बात पर बहस हो सकती है कि फिल्मकार आखिर
समाज में हो रही अच्छी चीज़ों को डॉक्यूमेंट कर उन्हें बढ़ावा देने कि बजाय बुरी चीज़ों
को ही हमेशा क्यूँ प्रोमोट करता रहता है लेकिन इस बात से इनकार
भी नहीं किया जा सकता कि इन बुरी प्रवृतियों पर चोट करके फ़िल्मकार अन्तः उनसे मनुष्य
की मुक्ति की जरूरत की बात को ही रखांकित कर रहा है भले ही वह कोई स्टैंड नहीं ले रहा
हो. जहाँ तक रहा सवाल अनुराग कि फिल्मों में अपराध को glorify करने का तो भला इस समाज
से अधिक वे अपराधियों को कहाँ glorify करती हैं. जो समाज अपराधियों और अपराधी प्रवृतियों
को glorify करने का काम करता हो उसका यथार्थवादी चित्रण भी तो वही दिखाएगा.
जैसा कि हम सभी
जानते हैं अनुराग कश्यप को अपराध कथाओं से विशेष लगाव है. ‘ugly’ भी एक अपराध कथा ही है जो चाइल्ड ट्रैफिकिंग जैसे
संवेदनशील मुद्दे को केंद्र में रखकर बनायीं गई है जिसमें ‘कलि’ नाम कि एक बच्ची गायब कर दी जाती है. हालाँकि फिल्म
जिस तरह से खुलती और आगे बढती है उससे लगता है कि यह फिल्म भी अपहरण और अपराध के गठजोड़
के तिलिश्म को ही सामने लाएगी लेकिन एक लड़की के अपहरण या गायब किए जाने के बहाने सफेदपोश
समाज कि जो परतें यह फिल्म उघारती है वो वास्तव में भीतर तक हिला देने वाला है. यह
फिल्म घोषित अपराध और अपराधियों की नहीं बल्कि उन सफेदपोशों कि कलई खोलती है जो हमारे-आपके
चेहरे वाले हैं. हमारे बीच उठते-बैठते हैं और कभी-कभी तो उसके अंश हमारे भीतर ही दिख
जाते हैं.
फिल्म पर बात
करते हुए उसकी कहानी का बयान लाजिमी हो जाता है ताकि हम एक रेफ़रेंस में बात कर सकें.
कहानी कुछ यूँ है कि बॉलीवुड का एक स्ट्रगलर और तलाकशुदा अभिनेता अपनी बच्ची को हफ्ते
के निर्धारित दिन घुमाने के लिए निकलता है और उसे अपने दोस्त के फ्लैट के नीचे छोड़
ऊपर जाता है. इस बीच उसकी बच्ची गायब कर दी जाती है. वह अपने दोस्त के साथ पुलिस रिपोर्ट
करता है लेकिन पुलिस उलटे उन्हें ही कसूरवार मानती है. पुलिस के ट्रैप से बचने के लिए
उसका दोस्त कहानी को अपहरण का एंगल देता है और पूरी फिल्म उसी एंगल में उलझकर रह जाती
है. कहानी का जब पटाक्षेप होता है तब पता चलता है कि पूरी जांच ही गलत दिशा में की
जा रही थी और अगर सही दिशा में जाँच जारी रहती तो बच्ची को बचाया जा सकता था. इस पुरे
जांच को गलत दिशा में मोड़ने में सबसे ज्यादा हाथ उस बच्ची ‘कलि’ के परिजनों का ही होता है जो अलग-अलग तरीके से इस
घटना का लाभ लेना चाहते हैं.
यह फिल्म और
इसके किरदार आपस में इस कदर उलझे और गड्मगड हैं कि एकबारगी तो यकीन ही नहीं होता कि
ऐसा भी हो सकता है. लेकिन जैसे-जैसे इसकी परतें खुलती हैं वैसे-वैसे उनके रिश्ते के
ताने-बाने और उसकी भयावहता पर से पर्दा उठता है. यहाँ हर किरदार इतना टूटा हुआ और डेस्पेरेट
है कि वो एक-दूसरे से उम्मीद पालता और लाभ लेता हुआ एक-दूसरे कि ज़िन्दगी में ही जहर
घोल रहा होता है. किसी के लिए यह मेल ईगो का प्रश्न है तो किसी के लिए सर्वाइवल का.
हमारे आस-पास आज के दौर में जिस तरह का माहौल बन गया है उसमें यह सब होता हुआ साफ़-साफ़
दिखता भी है जब हम अपने ही दोस्तों और संबंधों की दुहाई देने वालों को अपने ही पीठ
में छुरा भोंकते हुए देखने को विवश हैं.
यह फिल्म उस
जगह पर चोट करती है जहाँ दूसरी फ़िल्में पहुँचने से बचती हैं. हम जो अच्छे और बुरे को
ब्लैक एंड व्हाइट के बीच बांटकर देखने के आदि हो गए हैं उनके लिए आज भी दुनिया दो ध्रुवों
में बंटी है. एक तरफ अच्छे लोग हैं तो दूसरी तरफ बुरे लोग हैं. दोनों के बीच में लड़ाई
है और अच्छाई को तमाम कुरबानिओं के बीच जीतना ही है. लेकिन अनुराग कश्यप ने ब्लैक एंड
व्हाइट के इस खेल को ही बिगाड़ कर रख दिया है. ठेठ शब्दों में कहें तो इतना मथ दिया
है कि वो ग्रे हो गया है वो भी ब्लैक शेड वाला. अनुराग इस फिल्म में व्यापक समाज के अपराधी हो जाने की बात सामने
लाते हैं. जहाँ फिल्म का हर किरदार हमें अपराधी नजर आता है. वह भी इस हद तक वीभत्स
और क्रूर की उससे हम कुछ अच्छे की उम्मीद ही त्याग देते हैं. और अंत में जो सामने आता
है वो वह सड़ांध है जो उसने अपनी गलीज़ हरकतों से खुद फैलाई है और खुद ही उसका भुक्तभोगी
है. फिल्म जहाँ समाप्त होती है वहां ‘कलि’ एक मेटाफर में बदल
जाती है. वह उस सड़े हुए समाज की सड़ांध में तब्दील हो जाती है जिसका जिम्मेदार वह खुद
है.
यह फिल्म एक
ऐसे समाज को सामने लाता है जो नायक और नायकत्व विहीन है. जो failed है और अपने आप को
prove करने को लेकर डेस्पेरेट है. ऐसा failed और डेस्पेरेट समाज ही ऐसे बौने नायक पैदा
कर सकता है जो नायक कि प्रतिछाया बनने की जोरदार कोशिश करते हुए fail हो जाते हैं क्यूंकि
उनमें नायकत्व के मूल्य ही नहीं हैं. यहाँ हर रिश्ता, हर संबंध, हर मर्यादा तार-तार
हो जाने को विवश है क्यूंकि हमने इन सबके बदले में प्लास्टिक और कागज के टुकड़े को अधिक
महत्व दे दिया है या कहें हमें उसे विशेष महत्व देने पर मजबूर कर दिया गया है. इस तरह
यह फिल्म अपने छोटे आवरण से निकलते हुए पूरे मानव सभ्यता और इसके पूंजीवादी विकास पर
एक बड़ा सवाल छोड़ जाती है जिसने इंसानी रिश्ते, नातों और संबंधों तक को भीतर से पूरी
तरह खोखला कर दिया है. ‘पैसा’ आज भस्मासुर की तरह
अपने ही निर्माता को लील जाने को तत्पर है और हम आज भी उससे दूर नहीं बल्कि अपने लोभ
और तृष्णा में उसकी तरफ भाग रहे हैं.

फिल्म में अभिनेताओं
ने जिस तरह के अभिनय का मुजाहिरा किया है और खास तौर पर जिस तरह कि कास्टिंग कि गई
है वह कमाल है. सारे अभिनेताओं ने अपने किरदारों के साथ न्याय किया है. कुछ अभिनेताओं
ने तो न्याय से भी बहुत आगे जाकर अपने किरदार को जीवंत किया है. मैं दो अभिनेताओं का
ज़िक्र यहाँ खास तौर पर करना चाहूँगा. पुलिस अफसर शौमिक बोस कि भूमिका में रोनित रॉय
ने जिस तरह डूबकर काम किया है और उस किरदार के डिफरेंट शेड्स को उभारा है वह दर्शाता
है कि वे एक मुकम्मल अभिनेता हैं और उन्हें आज भी पूरी तरह फिल्म इंडस्ट्री ने एक्स्प्लोर
नहीं किया है. दूसरी हैं शालिनी की भूमिका में तेजस्विनी कोल्हापुरी. एक मिडिल क्लास
लड़की से एक दमित स्त्री के चरित्र कि यात्रा को वो जिस तरह से दिखाती हैं वो वाकई लाजवाब
है. अन्य अभिनेताओं में चैतन्य की भूमिका में विनीत सिंह और इंस्पेक्टर जाधव कि भूमिका
में गिरीश कुलकर्णी ने शमा बांधा है. राहुल कपूर की भूमिका में राहुल भट्ट भी जंचे
हैं. राखी की भूमिका में सुरवीन चावला ने भी भरपूर काम किया है. अन्य भूमिकाओं में भी अभिनताओं ने जान
डाली है. यह अभिनेताओं कि मेहनत का ही फल है कि कि बिना किसी स्टार कास्ट के भी फिल्म
दर्शकों को अपने साथ बंधे रखने में कामयाब रहती है. फिल्म में कुल दो ही गाने इस्तेमाल
किए गए हैं और दोनों ही प्रसंगाकुल और लाजवाब हैं. ‘तू मुझे निचोड़’ ले गाना तो फिल्म के बीच में बार-बार आता है और पुरे कथ्य पर एक व्यंग्य वाण
चला जाता है.
इस फिल्म के
शानदार निर्देशन के लिए अनुराग कश्यप की जितनी तारीफ कि जाए वो कम होगी. अनुराग ने
एक बार फिर यह साबित किया है कि वे बॉलीवुड के डार्क हॉर्स हैं. वह जब चाहे जैसे चाहें
बॉलीवुड को अपने टर्म पर डिक्टेट कर सकते हैं. सिनेमा ऐसे ही उनके कैमरे से घूमता है
जैसे कबीर अपनी भाषा और बानी को उमेठते रहे थे. भारतीय सिनेमा को कहानी कहने के सामान्यीकरण
से कैमरा कि आँख से कहानी बुनने की जो प्रक्रिया उन्होंने अपनी शुरूआती फिल्मों से
कि थी अब वो परवान चढ़ चुका है. २१वीं सदी में भारतीय सिनेमा को नया स्वरुप देने और
गढ़ने में निश्चय ही उनकी भूमिका बहुत बड़ी है और ‘ugly’ इस बात की पुष्टि करती है कि यह अनायास नहीं है.
अनुराग कश्यप
कि फिल्म ‘ugly’ के सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि की बात करें
तो यह फिल्म क्लींजिंग इफ़ेक्ट का काम करती है. जब आप इस फिल्म से गुजर रहे होते हैं
तब आपको अपने उन चूतियापों की याद आनी शुरू हो चुकी होती है जो आपने अपने दोस्तों और
सगे-सम्बन्धियों के साथ दोस्ती और सम्बन्ध के नाम पर किए हैं. फिल्म जैसे-जैसे आगे
बढती है वैसे-वैसे आपको न सिर्फ समाज का बल्कि आपकी अपनी स्याह सच्चाई का भी पता चलता
है. समाज के साथ यह आपको भी अनावृत करता हुआ चलता है. यही कारण है कि फिल्म देखते वक़्त
दर्शकों का एक तबका इन स्थितियों से गुजरने के कारण जहाँ सदमे में होता है वहीँ अपने
आप को इस ट्रैप में आने से बचाने के लिए शातिर लोग फिल्म पर उल्टा-पुल्टा कमेंट देने
लगते हैं. दर्शक के दोनों वर्गों का रिएक्शन भले ही अलग-अलग हो पर दोनों पर फिल्म का
प्रभाव एक है. फर्क सिर्फ इतना है कि एक उसमें डूबना चाहता है जबकि दूसरा उससे भागना
चाहता है क्यूंकि वह खुद से आँखें मिलाने से डरता है लेकिन तय मानिए अगले कुछ दिनों
में जब भी वह खुद को आईने के में देखेगा उसे अपना वही अनावृत रूप याद आएगा. एक फिल्म
इससे भला और ज्यादा प्रभाव क्या डालेगी कि वो सिनेमा हाल के बाहर तक आपका पीछा करती
चलती है और आपके समाज के सड़ांध और उसे फ़ैलाने में आपकी भूमिका से आपको अवेयर कर जाती
है.
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