इरशाद कामिल से सचिन श्रीवास्‍तव की बातचीत


एक इनसान के बनने में जिस ईंट-गारे का इस्तेमाल होता है, वह यकीनन सारी उम्र अपना असर दिखाता है। यह बात नई सदी के हिंदी फिल्मों के गीतों को दार्शनिक ऊंचाई, रूमानी सुकून और विद्राही तेवर बख्शने वाले कलमकार इरशाद कामिल को जानने के बाद फिर साबित होती है। पंजाबी खुशी और इश्क की मस्ती में पले-बढ़े इरशाद के भरपूर इनसान बनने में आठवें दशक की नफरत, अवतार सिंह पाश के विद्रोह, शिवकुमार बटालवी के दर्द का गारा है, तो बचपन की दोस्ती की शरारतों और आवारा-मिजाजी की ईंटें भी हैं। जाहिर है यह सब कुछ उनके लेखन में अनायास ही दिखाई देता भी है। इरशाद को महज गीतकार कहना, एक ऐसी नाइंसाफी है, जिसे करने का गुनाह नाकाबिले मुआफी है। गीत उनके लेखन की महज एक विधा है, जो लोकप्रिय हो गई है, लेकिन असल में वे एक कलाकार हैं, जो खुद को बयां करने के हर औजार को, हर विधा को आजमाना चाहता है। दिलचस्प यह कि वे कई रचनात्मक विधाओं में पारंगत भी हैं। इरशाद कामिल से सचिन श्रीवास्तव ने मुलाकात के दौरान अनौपचारिक बातचीत की। इसके प्रमुख अंश... 



"चमेली" से लेकर "रॉकस्टार" और "हाईवे" तक आपके गाने कानफोडू शोर के बीच अलग से पहचाने जा सकते हैं। आपके गानों का तीखा स्वर भी सुखद लगता है। तो यह तोड़ने का स्वर, विद्रोह का स्वर कैसे आया आपके भीतर? 
इरशाद : बचपन से मैं कुछ विद्रोही स्वभाव का था। हालांकि उस वक्त विद्रोह का मतलब पता नहीं था, लेकिन बनी-बनाई चीजें तोड़ने, पारंपरिक खांचों से बाहर निकलने की छटपटाहट भी खूब थी। पढ़ाई से लेकर शुरुआती नौकरियों तक सिलसिला चलता रहा। जाहिर है मैं जिस माहौल में रहा हूं वहां का भी असर रहा।
तो आपका बचपन का माहौल कैसा था? वो दोस्त, वो शरारतें याद हैं? 
इरशाद : हां, यकीनन। मेरे बचपन एक कस्बाई मोहल्ले में बीता। मेरे परिवार की माली हालत ठीक थी, लेकिन आसपास रिक्शेवाले, मजदूर और कई ऐसे परिवार थे, जिंदगी की ठोकरों को बेदर्दी से झेलती-सहते हैं। उन परिवारों के बच्चे ही मेरे दोस्त थे। यह बड़े शहरों का कल्चर है कि मोहल्ले या इलाके में तकरीबन एक ही तरह के लोग रहते हैं। हमारे पुराने कस्बों में यह फर्क नहीं होता था। तो मुझे एक भरा-पूरा माहौल मिला। छुटपन में हम दोस्तों की टोली रात में किसी रिक्शेवाले के घर के सामने से उसका रिक्शा उठा लेते थे, और रात भर सड़कों पर दौड़ाते थे। एक थकता तो दूसरा चलता। फिर खेल भी सिर्फ क्रिकेट ही नहीं था, कई तरह के ग्रामीण, देशज खेल थे। इस दौरान अपनी खुशी साझा करना, लोगों पर यकीन करना, दोस्तों पर हक जताना यह सब सीखा। यह सीखें आज भी काम आती हैं।
आप जब दुनिया को जानने-समझने, उसे देखने की अपनी नजर विकसित कर रहे थे, वह दौर पंजाब में खौफ का दौर था। नफरत तारी थी उस माहौल पर, उसका क्या असर पड़ा? 
इरशाद : बहुत ज्यादा! जो पढ़-लिख रहा था, जिस तरह के लोगों के बीच था, वे इनसानियत पर यकीन करने वाले लोग थे, लेकिन फिजां में वो नरमी नहीं थी। असल में जो राजनीतिक माहौल होता है, वह हमारे सामाजिक ताने-बाने और आर्थिक रिश्तों पर भी असर डालता है। तो तब बाजार शाम में ही बंद हो जाते थे, लोग घरों में दुबक जाते थे, यह सब बहुत करीब से देख रहा था। उस दौर की तकलीफें भी देखीं और फिर यह भी गहराई से देखा कि जिंदगी हर मुश्किल वक्त में खिलखिला लेती है, हंस लेती है। 
इस राजनीतिक माहौल का असर क्या पड़ा? 
इरशाद : कॉलेज के जमाने में एआईएसएफ में रहा। लेफ्ट पार्टी के सांस्कृतिक संगठनों से भी जुड़ा रहा, लेकिन असल में मैं राजनीतिक व्यक्ति नहीं हूं। इसलिए यह दौर लंबा नहीं चला। हां, असर यह हुआ कि बेचैनियां बढ़ने लगीं और जो राजनीतिक सवाल थे, सांस्कृतिक सवाल थे, उनके जवाब अपने ढंग से तलाशने लगा था। 
तो ऐसे माहौल में आपकी शायरी को इश्क की नरमी और आशिकाना तबियत कैसे मिली?
इरशाद : इसकी वजह दिलचस्प है। पढ़ाई के दौरान ही मैं शायरी करने लगा था। दोस्तों की दाद भी मिलने लगी थी। यह वह दौर था जब हर तीसरे घंटे में एक इश्क होता था। जाहिर है दोस्तों को भी होता था। तो मेरे दोस्त मुझसे अपने लिए प्रेम-पत्र लिखवाते थे। अब इसमें थोड़ा वजन डालने के लिए शेर भी लिख देते थे। 
लेकिन यह उधार की शायरी का इश्क दोस्तों पर भारी पड़ता होगा? सभी प्रेम-पत्रों की भाषा तो घुमा-फिराकर एक ही होती होगी?
इरशाद : नहीं? इसे हुनर कहिए या मेहनत, लेकिन हर खत को दूसरे से जुदा जुबान में लिखता था। इसके लिए सोच के दायरे भी खोलता था। एक मायने में वे खत रियाज थे, आने वाली उम्र के लिए, जिसमें अलग-अलग ढंग से अपनी बात को कहने की आदत हो रही थी।
यह महज शब्दों में हेरफेर का मामला नहीं है। आपके गीतों में दर्शन का भी विशाल फलक दिखता है, साथ ही सूफियाना रंगत से लेकर युवाओं की बातचीत तक को आप गीतों में इस्तेमाल कर रहे हैं, यह महज प्रतिभा का मामला नहीं लगता, इसके पीछे की मेहनत क्या है? 
इरशाद : बिल्कुल सही कह रहे हैं। प्रतिभा एक हद तक तो लेखन में साथ चलती है, लेकिन गहराई में उतरने के लिए तो डूबना ही होगा, सांस रोककर पानी के भीतर उतरना होगा। हाल ही में लोकप्रिय हुए "गुंडे" के गानों में "तूने मारी एन्ट्रियां" है, तो वहीं "मन कुन्तुम मौला" भी है और रूमानियत से भरा "जिया" भी है। इसके कुछ बोल ऐसे हैं "नैना फिरोजी नहर/ ख्वाबों का पानी में घर/ ऐसे हूं मैं तेरे बिन/ सहरा की जैसे सहर/ इश्क का तू हरफ/ जिसके चारों तरफ/ मेरी बाहों के घेरे का बने हाशिया... जिया मैं ना जिया"। तो यह मिसरे भीतर से ही निकलते हैं। 
यह दौर विचारों की रिसाइकिलिंग का है। ऐसे में नये विचार को गीतों में लाने की जिद आप क्यों कर रहे हैं? 
इरशाद (हंसते हुए) : यह जिद से ज्यादा स्वाभाव का मामला है। सही है कि आजकल ओरिजनल लिरिक्स नहीं लिखे जा रहे हैं। ज्यादातर गीतों में विचार रिसाईकल हो रहे हैं। अपने समय में हस्तक्षेप करने की जिद तो है, और में इसे पूरी ईमानदारी से करना चाहता हूं। अगर आप कोई चीज बदल सकते हैं, कुछ बेहतर लिख सकते हैं, और वह न करें, तो यह बेईमानी होगी। बस, जितना कर सकता हूं कर रहा हूं। 
आपने कुछ वक्त तक पत्रकारिता भी की है, उससे मन कब ऊबा? 
इरशाद : मैंने हिंदी की समकालीन कविता पर शोध किया है, और उसके बाद पत्रकारिता का कोर्स भी किया। उसी दौरान इत्तेफाकन ट्रिब्यून में नौकरी लग गई। एक दोस्त को वॉक-इन इंटरव्यू दिलाने गया था, मैंने भी दिया और सलेक्ट हो गया। फिर एक दिन जिस तरह ज्वाइन किया था, उसी तरह पत्रकारिता को छोड़ भी दिया। करीब ढ़ाई साल का वक्त मैंने पत्रकारिता में गुजारा। 
इस वक्फे में पत्रकारिता को कैसे देखा?
इरशाद : खबरें देखने का हरएक का अपना तरीका होता है, लेकिन अफसोस कि हमारे दौर में बिकने वाली खबरों को तरजीह दी जाती है। तो जो एक दो कॉलम की खबर होती है, उसके पीछे कितनी बड़ी कहानी होती है, वह सामने नहीं आ पाती। और हर कहानी के पीछे कई खबरें छुपी होती हैं। इस तरह की उलटबांसियां देखकर पत्रकारिता से ऊब होने लगी थी, और मैं आगे बढ़ गया। 
यह कब तय किया कि फिल्मी दुनिया में आना है? 
इरशाद : हमारे वक्त में बच्चे तय नहीं करते थे कि उन्हें क्या करना है? बस एक परीक्षा होती थी, उसे पास करना, फिर दूसरी परीक्षा की तैयारी। कॉलेज हो गया, तो यूनिवर्सिटी, फिर जो नौकरी मिल जाए। आजकल के बच्चे ऐसे नहीं हैं, उनका कॅरियर प्लान तैयार होता है। तो मेरे साथ भी कुछ तय नहीं था, लेकिन हां, मौटा खाका था कि लिखने-पढ़ने के पेशे में ही रहना है। साहित्य से लगाव का यह असर था। 
आपने समकालीन कविता पर पीएचडी की है। हिंदुस्तान के अलावा विदेशी साहित्य से भी गहरा लगाव है। वो कौन-से रचनाकार हैं, जिनका असर पड़ा?
इरशाद : देखिए प्रभाव तो हर इनसान का पड़ता है, रचनाकार का, कवि-शायर का कुछ ज्यादा पड़ता है। मैं मानता हूं कि कोई रचनाकार अपने जीवन में महज एक लाइन भी ऐसी लिख देता है जो दूसरे को पसंद आए तो वह महान है, उसने अपना काम किया। मैंने रघुवीर सहाय से लेकर लीलाधर जगूड़ी और कुमार अंबुज से लेकर अरुण कमल तक लगभग सभी समकालीन कवियों को पढ़ा और उनका असर भी रहा, लेकिन असल में तो मेरी प्रेरणा मेरे भीतर है। मुझे लगता है कि किसी एक के प्रभाव को नहीं आंका जा सकता। सबका प्रभाव है, और किसी का भी नहीं। 
आप स्वाभाव से विद्रोही हैं। दुनिया को प्रेम करते हैं। यह विद्रोह और प्रेम साथ-साथ चलता है क्या? 
इरशाद : बिल्कुल! प्रेम के बिना आंदोलन नहीं होता, और आंदोलन के बिना प्रेम नहीं होता। मेरा मानना है कि प्रेम और संघर्ष एक साथ चलता है। प्रेम है, तो मुश्किलें होंगी ही। और विद्रोह अगर मूल में है, तो वह हर चीज में आएगा। लिखने-पढ़ने से लेकर प्रेम तक, क्योंकि वह आपका जीने का अंदाज है। 
आप कई विधाओं में खुद को कह रहे हैं। अपनी रचनात्मकता की अभिव्यक्ति के लिए विधा कैसे तय करते हैं? 
इरशाद : कोई विचार है, कोई दर्शन है, या कोई व्याख्या है, तो वह अपनी विधा खुद चुन लेती है। अब तक जो कहना चाहता हूं उसके लिए अलग-अलग फार्म तलाशता रहा हूं। आगे का कह नहीं सकता, जैसा विचार आएगा, वह अपने लिए विधा ढूंढ लेगा। 
फिल्मों के गीत लिखते हुए कोई असमंजस रहता है क्या? क्योंकि आप जो लिखते हैं, उसका असर पड़ता है, तो अपनी जवाबदेही कितनी मानते हैं?
इरशाद : जो कुछ लिखा है, उसके लिए जवाबदेह तो मैं ही हूं। हालांकि कई बार मैं व्यावसायिक दबाव में वैसा भी लिखता हूं जो मेरे विचार से ठीक नहीं है। लेकिन वह पात्र की मांग होती है। उस कैरेक्टर की फिलॉसफी है। कोशिश यह रहती है कि कैरेक्टर के साथ भी न्याय हो और लेखन की जो जवाबदेही है उसके साथ भी नाइंसाफी न हो। 

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