फिल्मकार अनुराग कश्यप की अविनाश से बातचीत
नया सिनेमा छोटे-छोटे गांव-मोहल्लों से आएगा
अनुराग कश्यप ऐसे फिल्मकार हैं, जो अपनी
फिल्मों और अपने विचारों के चलते हमेशा उग्र समर्थन और उग्र विरोध के बीच
खड़े मिलते हैं। हिंसा-अश्लीलता जैसे संदर्भों पर उन्होंने कई बार कहा है
कि इनके जिक्र को पोटली में बंद करके आप एक परिपक्व और उन्मुक्त और
विवेकपूर्ण दुनिया का निर्माण नहीं कर सकते। हंस के लिए यह बातचीत हमने
दिसंबर में ही करना तय किया था, पर शूटिंग की उनकी चरम व्यस्तताओं के बीच
ऐसा संभव नहीं हो पाया। जनवरी के पहले हफ्ते में सुबह सुबह यह बातचीत हमने
घंटे भर के एक सफर के दौरान की। इस बातचीत में सिर्फ सिनेमा नहीं है। बिना
किसी औपचारिक पृष्ठभूमि के हम राजनीति से अपनी बात शुरू करते हैं,
सिनेमा, साहित्य और बाजार के संबंधों को समझने की कोशिश करते हैं। इसे आप
साक्षात्कार न मान कर, राह चलते एक गप-शप की तरह लेंगे, तो ये बातचीत
सिनेमा के पार्श्व को समझने में हमारी मददगार हो सकती है: अविनाश
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पिछली सदी के नौवें दशक के बाद देश में जो नया राजनीतिक माहौल बना, उसमें विश्वसनीय राजनीतिक ताकतें लोगों को गोलबंद नहीं कर पायीं। ऐसे में नयी सदी के दूसरे दशक में जो जनसंघर्ष की रोशनी दिख रही है, उसमें क्या हम भारत के भविष्य को साफ-साफ देख सकते हैं?
इस नये दृश्य को उसकी हूबहू शक्ल में नहीं देखना चाहिए। हमें ये नहीं
मालूम कि कौन किसके हाथ का खिलौना है। प्रधानमंत्री की अपनी कोई औकात नहीं
है। वह सारे फैसले किसी और के कहने पर लेते हैं। एक भव्य
राजनीतिक-पारिवारिक पृष्ठभूमि की महिला के आगे सारे नेता रेंगते नजर आते
हैं। अब शक्ति के इस केंद्रीकरण को कौन कंट्रोल कर रहा है, ये किसी को नहीं
मालूम। किसी बड़े औद्योगिक घराने के हाथों में यह शक्ति खेल रही है या
किसी और के हाथ में – ये नहीं मालूम। अब एक हिसाब देखिए… वॉलमार्ट के लिए
दरवाजे खुले हैं तो यह अच्छा है या बुरा – इसकी तस्वीर साफ नहीं है। बुरी
चीज यह हो रही थी रिलायंस हर जगह घुस रहा था। इस हिसाब से वॉलमार्ट के
आगमन को बेहतर कहा जा सकता है। अगर रिलायंस की हर जगह घुसपैठ पर पहले ही
रोक लग गयी होती, तो ज्यादा बेहतर था। हो क्या रहा है कि हमारे देश में
बहुत कुछ बिना किसी योजना के हो रहा है। सरकार की सोच है कि अर्थव्यवस्था
मजबूत करनी है, ग्लोबलाइजेशन लाना है, हालात बेहतर करने हैं, मल्टीनेशनल
को बुलाना है – बुलाएं। बहुत अच्छी बात है। ग्लोबलाइजेशन और शॉपिंग मॉल
आएगा, तो उससे कल्चर भी बदलेगा न? पर नेता लोग इसके लिए तैयार नहीं हैं।
वहां पर तो आपकी नैतिकता वही की वही है। आपको दरअसल आर्थिक विकास चाहिए।
राजनीतिक इच्छाशक्ति कहां, किन चीजों में दिखता है… कि तमाम विरोध के
बावजूद एफडीआई पास हुआ। यही राजनीतिक इच्छाशक्ति बाकी चीजों में क्यों
नहीं दिखती? सिर्फ इकोनॉमिक डील में क्यों दिखती है? ऐसे में मेरे दिमाग
में शक ये आता है कि इस वॉलमार्ट के पीछे कौन है? ये वॉलमार्ट वाले ही हैं
या कोई इंडिया में ही इसका फ्रैंचाइज लेके आया है, जो बाद में इमर्ज हो
जाएगा किसी देशी कंपनी के साथ। अभी मुझे या किसी को नहीं मालूम। जब होगा,
तब पता चलेगा कि राजनीति हो क्या रही है? सवाल ये नहीं है कि वॉलमार्ट
कैसे आया, क्यों आया… सवाल तो ये है कि सरकार ने वॉलमार्ट को वहां कैसे
घुसने दिया, जो एरिया रिलायंस टेकओवर करने जा रहा था। इसके पीछे एक अलग
राजनीति है। या तो कांग्रेस ने घुसने दिया क्योंकि इसके पीछे कोई और
पावरफुल इंटीटी आ गयी थी। या फिर रिलायंस ही लेके आया वॉलमार्ट को, ताकि
शुरू में कंपीटिशन दिखे, बाद में मर्ज हो जाए। अगर इस नजरिये से देखिएगा तो
लगेगा कि रिलायंस का इंडिया टेकओवर का प्लान है।
ऐसा लगता है… और यह भी लगता है कि सरकार बेबस है। क्योंकि बड़ी कंपनियों के खिलाफ कोई एक्शन लेने में सरकार सक्षम नहीं दिखती।
बिल्कुल सक्षम नहीं है। आप देखिए न, प्राइस को इवॉल्यूएट कैसे किया
जाता है? कंपीटिशन भी एक ट्रैजिक ड्रामे की तरह है। ये जो किसान है, उसके
पास च्वाइस क्या है? या तो वो अपनी चीज रिलायंस को बेचे या वॉलमार्ट को
बेचे। उसकी असली इच्छा क्या है – वो सामने आने से पहले ही उसके सामने दो
विकल्प प्लांट कर दिये गये। और बाद में दोनों विकल्प मर्ज कर गये, तो
फिर ये आपकी जेब कंट्रोल करेंगे। आप कहीं नौकरी कर लो, या कोई भी सैलरी कमा
लो…
इस हालात को लोग कम या ज्यादा समझ रहे हैं। आप देखिए कि एक साल में कितनी बार लोग कई मसलों पर सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर आये हैं। सामाजिक संगठनों से लेकर मीडिया तक रिएक्ट कर रहा है। सिनेमा के लोगों का दिमाग क्यों बंद है?
सिनेमा का मतलब ही जब हमारे यहां बचपन से ही इंटरटेनमेंट है, तब कहां से
होगा। हम भारत को समझने दिखाने के लिए लिटरेचर की ओर देख सकते थे, लेकिन
लिटरेचर का भी अस्तित्व कहां दिखता है? कहां है हमारा लिटरेचर? जितने लोग
आपके ब्लॉग मोहल्ला लाइव पर आते हैं, उतने ही लोग पूरे हिंदुस्तान में
लिटरेचर पढ़ते हैं।
आप हिंदी को छोड़ दीजिए, बाकी इंडिया के लिटरेचर को देखिए। बांग्ला, कन्नड़, तमिल, तेलुगु, मैथिली वगैरा…
देखिए, हर भाषा का अपना अहंकार है। साहित्य और उसके पढ़ने वालों का जो
अहंकार है, वो ऐसा है कि वो दूसरी भाषा स्वीकार नहीं करते। हिंदी साहित्य
वालों की क्या भूमिका है? वो स्वीकार ही नहीं करते किसी दूसरी भाषा को।
वही बांग्ला का हाल है, वही हर रूटेड लिटरेचर का हाल है।
हां, आवाजाही तो नहीं है।
अगर तमिल साहित्य वाले, मलयालम साहित्य वाले, हिंदी साहित्य वाले
एकजुट हो जाएं तो बहुत कुछ हो सकता है। वही नहीं होता। अगर तमिल साहित्य
हिंदी में अनूदित हो, हिंदी तमिल में अनूदित हो, तो तस्वीर दूसरी होगी।
तमिल वाले हिंदी को ट्रांसलेट करेंगे नहीं क्योंकि वो अपने आपको श्रेष्ठ
समझते हैं।
मेरा सवाल ये है कि साहित्य का पाठक सीमित होते हुए भी उसमें देश आ रहा है, संघर्ष आ रहा है, सिनेमा में ऐसा क्यों नहीं हो रहा?
सिनेमा भी बदलेगा, लेकिन दो पीढ़ियों के बाद। आज का जो नया सिनेमा है,
उसकी ऑडिएंस कौन है? सब तीस के अंदर वाली है। अधिकतर ऑडिएंस इस नये सिनेमा
को टोरेंट के जरिये देखती है। ये ऑडिएंस वही है, जिसमें क्रिएटिव कॉमंस
वाला बिलीव है। पहले भी राइटर लिखते थे, फिल्में बनती थीं, लोग देखते थे,
लेकिन इकॉनोमिक्स और बिजनेस का मॉडल नहीं था इतना बड़ा। आज वो ज्यादा
टेकओवर कर गया। आज फिल्में बना कौन रहा है? पहले जैसा नहीं है कि
इंडीविजुअल प्रोड्यूसर बना रहा है। आज स्टूडियो फंड कर रहा है। स्टूडियो
क्या होता है? स्टूडियो वो होता है, जिसके पास पब्लिक का पैसा है। मनी
रेज क्या हुआ है। मनी कहां से रेज किया हुआ है, प्राइवेट फंडर से रेज किया
हुआ है। प्राइवेट फंडर क्यों फंड करता है किसी चीज को, उसके पास तो अथाह
पैसा है। हमलोग क्यों इनवेस्ट करते हैं, ग्रोथ फंड में डालते हैं अपना
पैसा। क्योंकि हमारा पैसा सेव रहे और बढ़ता रहे। ताकि भविष्य में काम
आये… एक मीडिल क्लास आदमी का फंडा ये है। जो बड़ा आदमी है, वो भी सेम फंडे
पे चलता है। वो अपना अथाह पैसा उठा के डाल देता है कि चलो एक कंपनी बनाओ।
उसे दुगना करो। उस पैसे से स्टूडियो बनता है। स्टूडियो का डायरेक्टिव
क्या है, स्टूडियो कौन चलाता है? सात लोग हैं, उनको इतनी सैलरी मिल रही
है, जितनी जिंदगी में उन्होंने देखी नहीं है। उनको इतनी सैलरी तभी मिलती
रहेगी, जब स्टूडियो का बिजनेस बढ़ेगा। तो बिजनेस बढ़ाने के लिए वो वैसा ही
सिनेमा बनाएंगे, जो पैसा कमा कर देगा, बिजनेस बढ़ाएगा। ताकि उनकी नौकरी
बनी रहे। चीजें तभी चेंज होंगी, जब ऑडिएंस देखना शुरू करेगी। अभी थोड़ा सा
चेंज क्यों आया है? कहानी चली, विकी डोनर चली, वासेपुर चली… इसलिए। लेकिन
स्टूडियो बहुत चेंज नहीं होता है इस वजह से? सिर्फ सुजॉय घोष, अभिजीत
सरकार, अनुराग कश्यप को कुछ भी बनाने की आजादी मिल जाती है।
यानी नया आदमी नये कंटेंट के साथ स्टूडियो में इंट्री नहीं कर सकता!
नये कंटेंट वाला नया आदमी कौन है? जिसने चिटगांव अप्राइजिंग जैसी फिल्म
बनायी। कितने शो मिले चिटगांव को? हमलोग ने पूरी कोशिश कर ली, लेकिन एक शो
से ज्यादा कहीं नहीं मिला। थिएटर वाला शो देने को तैयार नहीं है। वो शो
भी इसलिए चल रहा है, क्योंकि वो फंडेड है। पहले जैसा नहीं है कि थिएटर
वाले को पसंद आ गयी फिल्म, तो वो चला रहा है। ओडियन वाले को परिंदा पसंद आ
गयी, तो सीमित दर्शकों के बाद भी उसने फिल्म नहीं उतारी। एक हफ्ते और
चलने दी और एक हफ्ते में फिल्म अपना दर्शक ले आयी। तब एक मालिक था। आज
थिएटर का एक मालिक नहीं है। कोई एक नुकसान दिखाएगा, कई और लोग नुकसान
दिखाएंगे। अच्छे सिनेमा के लिए पीवीआर रेयर चालू हुआ, लेकिन उसका टिकट
कितने का है? तीन सौ रुपये का। क्यों तीन सौ रुपये का है? उनका लॉजिक है
कि इस फिल्म के लिए दस लाख का एडवरटाइजिंग डाल रहे हैं, तो इसकी रिकवरी भी
चाहिए, इसलिए तीन सौ का टिकट है… क्योंकि लोग तो देखने नहीं आ रहे!
दिक्कत यहां है।
खैर, जो नाम अभी आपने बताये और जिनको स्टूडियो ने भी छूट दे रखी है कि आप कुछ भी बनाएं… वो लोग क्यों नहीं सिनेमा की वर्तमान जड़ता को तोड़ते हैं?
देखिए, इनकी भी नौकरी है। ये लोग जब तक प्रॉफिट दिखाएंगे, उनकी नौकरी
रहेगी। जहां साल के आखिर में लॉस आया, वो आदमी निकल जाएगा, नया आदमी आएगा।
यानी आपका मानना है कि जो हिंदुस्तानी सिनेमा है, वो गुलाम सिनेमा है।
मैं बता रहा हूं कि दुनिया का सिनेमा गुलाम सिनेमा है, सिर्फ हिंदुस्तान का सिनेमा गुलाम सिनेमा नहीं है।
नहीं, ईरान में तो माजिद मजीदी जैसे फिल्मकार नयी लकीर खींच रहे हैं…
ईरान का सिनेमा भी गुलाम सिनेमा है। ईरान में वही सिनेमा बन रहा है, जो
स्टेट फंडेड है। जफर पनाही फिल्म नहीं बना सकते। माजिद मजीदी की जो भी
फिल्में हैं, उसे स्टेट ने पहले अप्रूव किया है। वहां आपकी स्क्रिप्ट को
पहले स्टेट सेंसर करता है, तभी आप आगे बढ़ सकते हैं। बाकी फिल्ममेकर
अरेस्ट होते हैं। शॉर्ट फिल्में भी आप बिना स्टेट की इजाजत के नहीं बना
सकते। जितना अच्छा सिनेमा हम बात करते हैं, वह कहां से फंडेड होता है? आज
यूरोप में क्राइसिस क्यों है? आज यूरोप फिल्में बनाने के लिए इंडिया की
तरफ देखता है। जो पहले वहां बन रहा था, उसे स्टेट फंड करता था। सरकार के
कल्चर फंड से फंड आता था। वहां का अच्छा सिनेमा इसलिए मर रहा है,
क्योंकि वहां पे सब गिद्ध बैठ गये हैं। पैसा कौन कमाता है? फिल्म बनाने
वाला पैसा नहीं कमाता, स्टेट जो पैसे देता है वो पैसा नहीं कमाता – फिर
कमाता कौन है? बीच का आदमी, मिडिल मैन कमाता है यूरोप में। जो आदमी आपकी
बनायी हुई पिक्चर मार्केट में बेचता है, वही कमाता है, वही कमीशन लेता है
और फिर आपकी रिकवरी कराता है। अपना प्रॉफिट लेने के बाद आपकी रिकवरी कराता
है। इसमें सिनेमा मर रहा है। वहां के फिल्मकार भारत आके पैसे खोज रहा है।
बड़े बड़े निर्देशकों के पास फिल्म बनाने के लिए पैसे नहीं हैं। फातिहा
अकीन ने फिल्में नहीं बनायी कई सालों से। प्रोड्यूसर ही नहीं मिल रहा है।
मुझे फोन करके बोलता है कि पैसे अरेंज करो, मैं फिल्म बनाना चाहता हूं।
आप ठीक कह रहे हैं। हमारे यहां भी दिबाकर बनर्जी ने शंघाई बनायी, उसमें एनएफडीसी भी एक प्रॉड्यूसर है। यानी क्या यह अंतिम सत्य है कि स्टेट की मदद के बिना हम जेनुइन सिनेमा नहीं बना सकते?
शंघाई के लिए एनएफडीसी से बहुत ज्यादा फंड पीवीआर ने दिया था। लेकिन
उसके बाद पीवीआर ने पिक्चर प्रोड्यूस करना बंद कर दिया। पीवीआर ने इसलिए
फंड किया क्योंकि उसे लगा कि दिबाकर बनर्जी की फिल्म है, पब्लिक देखने के
लिए आएगी। पब्लिक नहीं आयी। पीवीआर ने शंघाई के बाद फिल्म बनाना बंद कर
दिया।
कंटेंट की दिक्कत है लोगों के आने या नहीं आने में, या किसी और चीज की दिक्कत है? शंघाई को ही लीजिए, सिनेमा वह जैसा भी हो, लेकिन उसने एक इश्यू को उठाने की कोशिश की।
वही तो मैं कह रहा हूं। शंघाई जैसा सिनेमा तब बनेगा, जब ऑडिएंस उसको
देखने आएगी। आडिएंस आके शंघाई देखके क्या बोलती है? बोरिंग है,
इंटरटेनमेंट नहीं है। प्रकाश झा और मधुर भंडारकर को वो सर पर चढ़ाते हैं कि
ये ग्रेट फिल्ममेकर हैं, ये रीयल सब्जेक्ट पे फिल्म बनाते हैं। तो
ऑडिएंस के दिमाग में रीयल की परिभाषा ही स्पष्ट नहीं है। मसाला के अंदर
आलू होना बहुत जरूरी है। वरना उसे आप खा ही नहीं सकते। इसके लिए जरूरी है
संतुलन बनाना। मैं प्रयोग कर रहा हूं, लेकिन मुख्यधारा से एकदम अलग होके
नहीं कर सकता। साठ फीसदी प्योरिटी और चालीस फीसदी मेनस्ट्रीम मार्केट को
ध्यान में रख कर काम करता हूं। इसी की वजह से वो फिल्म फंड कर पा रहा
हूं, जो सौ फीसदी प्योर हैं। लेकिन सौ फीसदी प्योर फिल्में रीलीज नहीं
हो पा रही हैं। बड़ी दिक्कत हो रही है। दस फिल्म बना के हमलोग बैठे हुए
हैं।
पर आपने तो चिटगांव रीलीज की… शाहिद भी रीलीज करेंगे आप।
रीलीज की, लेकिन क्या हुआ रीलीज करके। सारे पैसे घुस गये। शाहिद रीलीज
हो जाएगी, क्योंकि वो एक करोड़ की फिल्म है। लेकिन प्रोमोशन का बजट लगा
कर आखिर में शाहिद के साथ भी ऐसा हो जाएगा कि सोचना पड़ेगा कि बेकार था
बनाना। लेकिन करेंगे रीलीज। अब ऐसी फिल्में बनेंगी। ज्यादा बड़े पैमाने
पर हो, तो वह अच्छा ही होगा। लेकिन अकेला आदमी ऐसा नहीं कर सकता। हमने एक
कंपनी बनायी, फैंटम। फैंटम का एजेंडा था कि हम नये प्योर लोगों के साथ
फिल्में बनाएंगे। लेकिन हम ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। वही फिल्में बन पा
रही हैं, जिसमें कोई न कोई जाना-पहचाना चेहरा है। अभी हम एक फिल्म बाला जी
के साथ मिल कर बनाएंगे, एक फिल्म करन जौहर के साथ मिल कर बनाएंगे।
एकेएफपीएल बंद करने वाले थे हम। उसको होल्ड करके एक दूसरी कंपनी के साथ
फैंटम का एसोसिएशन बना रहे हैं। क्योंकि हो क्या रहा था कि हर फिल्म में
मेरा ही नाम जा रहा था। इससे जिस आदमी ने फिल्म बनायी, उसका नाम मारा जा
रहा था।
आपका नाम बिकता है, इसलिए तो नयी फिल्मों तक ऑडिएंस लाने के लिए उस नाम की मदद मिलती है?
लेकिन इसमें प्रोजेक्ट की विश्वसनीयता मारी जाती है। दस लोग जब
इंडीविजुअल खड़े होंगे, तभी तो बदलेगा सिनेमा। सबका क्रेडिट मुझे मिलेगा,
तब नहीं खड़ा होगा ये सिनेमा।
पर कंटेंट को क्रेडिबलिटी मिल रही है न… आप इनडीविजुअल की क्रेडिबलिटी को लेकर क्यों आग्रही हैं?
बहुत जरूरी है इंडीविजुअल का खड़ा होना।
वो तो धीरे-धीरे खड़े हो जाएंगे। किसी एक का चार प्रोजेक्ट आएगा, वह खड़ा हो जाएगा। भले ही उसके साथ आपका टैग लगा हो।
हमलोग वही अभी कोशिश कर रहे हैं। इस साल के आखिर तक आपको कई नये लोग मिलेंगे, जो अपने काम से जगह बनाएंगे।
समीर शर्मा ने लव शव चिकन खुराना बनायी, कल वो दूसरी-तीसरी फिल्म बनाएगा। तब जाकर उसकी आइडेंटिटी बनेगी। आप चाहेंगे कि एक प्रोजेक्ट से कोई खड़ा जाए, तब तो बहुत मुश्किल है न सर…
एक प्रोजेक्ट का सवाल नहीं है सर, मैं चाहता हूं कि उसकी अपनी आइडेंटिटी बने।
लाइफ ऑफ पाई जैसी फिल्में बाहर इतनी दिलेरी और प्रामाणिकता के साथ बनायी जाती हैं और इंडिया में लोग उसको हुमच कर देखने जाते हैं, फिर यहां के फिल्मकार उतने रचनात्मक क्यों नहीं हो पाते?
लाइफ ऑफ पाई इंडिया में ब्लॉक बस्टर हो जाती है। उस फिल्म में सेंस
ऑफ प्राइड भी तो है। पूरी फिल्म में इंडिया का बैकड्रॉप है… यहां के
अभिनेता हैं, अभिनेत्री हैं। तब्बू है, इरफान खान है। इरफान खान इंडियन
एक्सेंट में अंग्रेजी बोल रहा है। हॉलीवुड का डायरेक्टर है, जो ताइवान का
एथनीक रीजनल फिल्ममेकर है। अमेरिका में बस गया। वही बना सकता है ऐसी
फिल्म। मैं तो खुश हो गया फिल्म देख कर। लाइफ ऑफ पाई जैसी फिल्में बननी
चाहिए। लेकिन ये बहुत बड़े बजट की फिल्म है। एक सौ बीस मिलियन डॉलर। करीब
छह सौ करोड़। हमारा बॉक्स ऑफिस दो सौ करोड़ देने में हांफ जाता है।
छह सौ करोड़ लगा कर आंग ली ने एक नॉवेल पर काम किया, लेकिन हमारे यहां सिनेमा का जो अर्थशास्त्र है, उसी की वजह से लोग साहित्य की ओर नहीं जाते। अभी थोड़ी देर पहले हम यही बात कर रहे थे!
सर, यहां पे लोगों को हिंदी नहीं आती है। हिंदी फिल्में इसलिए ये बनाते
हैं, क्योंकि इनके बाप-दादा हिंदी में फिल्में बनाते थे। हिंदी में
पढ़ना नहीं आता। हिंदी की स्क्रिप्ट रोमन में लिखी जाती है। बहुत अलग
दिक्कत है। जब तक हमारे हिंदी साहित्य वालों की सिनेमा की समझ नहीं
बढ़ेगी और जब तक उनका इगो बीच से नहीं जाएगा, हिंदी सिनेमा लिटरेचर की तरफ
नहीं जाएगा।
किस किस्म का ईगो?
मतलब उन्हें सिनेमा की समझ नहीं है। वो किताब उठा कर किसको देते हैं?
अपने ही झुंड में बैठे किसी चापलूस को देते हैं बनाने के लिए। मैंने बहुत
लोगों से बहस की। इतने बढ़िया राइटर हैं उदय प्रकाश, लेकिन उनका आग्रह रहता
है कि वो पटकथा भी खुद ही लिखेंगे… तो ऐसे तो फिल्म नहीं बनती है।
ज्यादातर साहित्यकार एफटीआईआई पुणे से लौटे ऐसे फिल्मकारों के साथ प्रेस
क्लब या आईआईसी में मीटिंग करेंगे जो सिनेमा की ए बी सी डी नहीं जानते।
दिल्ली में बैठ कर वो सरकारी पैसे से डॉक्युमेंट्री बनाता है और
इंटरनेशनल स्तर पर सेटिंग गेटिंग में लगा रहता है। तो सिनेमा बनाने का
अधिकार जब आप ऐसे लोगों को देंगे, तो क्या फिल्म बनेगी, आप सोचिए।
डाक्युमेंट्री बनके दूरदर्शन पर आ जाएगी। लोग वाहवाही में लग जाएंगे। वो
चाहते ही नहीं कि साहित्य एक बड़े स्तर पर सिनेमा के साथ जुड़े। वो अपनी
ही कोठरी में बैठकर चाय पीते हुए दुनिया का सत्य जान लेने का दावा करते
रहेंगे तो कैसे उनके सत्य को दुनिया भी अपना मुहर लगाएगी। काशी का अस्सी
में क्या है? चाय की दुकान पर बैठ कर लोग दुनिया भर की राजनीति बतियाते
हैं। वहीं बड़ी से बड़ी क्रांतियों को अंजाम दे देते हैं। वही यहां भी है।
एक जगह पर बैठे बैठे साहित्यकार लोग दुनिया के किसी भी सृजन को खारिज करने
का सुख लेते रहते हैं। हिंदी साहित्य का परिदृश्य भी काशी का अस्सी ही
है। ऐसे में नये आदमी पर बहुत दबाव होता है, जो साहित्य में आता है।
एफटीआईआई में जो निर्देशन के कोर्स में होता है, वह कभी डायरेक्टर नहीं
बन पाता! क्यों? सेम रीजन है। आप इतनी बात कर लेते हो – फेलिनी और
तारकोवस्की और जाने क्या क्या कि उसके प्रभाव से बाहर ही नहीं आ पाते।
जैसे ही उस घेरे से बाहर आकर कोई मेनस्ट्रीम फिल्म साइन करता है, उसी का
एक साथी उसे फोन करता है और कहता है कि बिक गये तुम? वो सतर्क हो जाता है।
वो छोड़ देता है और फिर दूसरे को भी नहीं करने देता है। वे क्रैब मेंटैलिटी
के हो जाते हैं। केकड़े की तरह एक दूसरे की टांग खींचने में लग जाते हैं।
कोई डायरेक्शन स्टूडेंट डायरेक्टर नहीं बन पाता। जितने डायरेक्टर बने
हैं, सब एडीटिंग स्टूडेंट हैं, सिनेमेटोग्राफी स्टूडेंट हैं। लिटरेचर का
भी वही हाल है। इतना इंटेलेक्चुअलाइजेशन हो जाता है इतने यंग एज में कि
बाहर जाकर जब जिंदगी के थपेड़े पड़ते हैं तब वे कहीं के नहीं रहते। जब
उन्हें लगता है कि बाहर जाकर कुछ करना चाहिए, तो वही कैंटीन वाले दस लोग
सामने आकर खड़े हो जाते हैं। क्योंकि उनकी दुनिया तो अभी भी उन्हीं दस
लोगों के इर्द गिर्द बनी हुई है। हमलोग जब सेमिनार में जाते हैं, वहां
जितने भी हिंदी और रीजनल वाले होते हैं, वो दरअसल उसकी बात ही नहीं करते,
जो हमारे सिनेमा में हो रहा है, वो उसकी बात करते हैं, जिसका हमारे सिनेमा
में कोई अस्तित्व नहीं है और बाकी दुनिया में है। माध्यम तो समझो पहले,
फिर बाकी सब समझ में आएगा। मेरे पास लोग आते हैं और पूछते हैं कि आपने ये
सब कैसे किया, तो मैं कहता हूं कि क्योंकि मैंने पृथ्वी में बैठना छोड़
दिया। मैंने बरिस्ता में बैठना छोड़ दिया। जब जब मैंने ऐसी एक जगह छोड़ी
है, एक नयी चीज हुई है लाइफ में। कोई नयी चीज करने के बाद अगर मैं जाता हूं
पीछे, तो लोग कहते हैं अरे यार अब तुम थिएटर में नहीं आते। तुम तो बड़े हो
गये हो। तो मैं सुनता ही नहीं हूं। अपने आपको दीवार बना देता हूं। कट ऑफ
हो जाता हूं।
ऐसा नहीं लगता कि हिंदी का जो पॉपुलर साहित्य है, जिसको घासलेटी साहित्य कहते हैं, हिंदी सिनेमा दरअसल वही है?
हमारा जो पल्प फिक्शन है, वह बहुत ज्यादा आयातित (बॉरोड) है। एक उमर
में आपको पल्प फिक्शन पढ़ना अच्छा लगता है। आपकी ग्रोथ नहीं हुई तो वो
चीज हमेशा आपको अच्छी लगेगी। आप दिमागी तौर पर विकसित हो गये, तो वही चीज
बहुत सामान्य लगने लगेगी।
ऐसा हिंदी सिनेमा के साथ क्यों नहीं होता? यहां के दर्शक क्यों नहीं विकसित होते?
साइकलॉजिकल कंडीशनिंग ये है हमारे यहां कि सिनेमा मतलब सब भूल जाओ।
क्रिटिक्स क्या लिख रहे हैं, इसका बहुत मतलब है हमारे यहां। छपे हुए
शब्द पर बहुत विश्वास किया जाता है। अखबार में जो छप गया, मतलब वो सही
है। अपना दिमाग नहीं इस्तेमाल करते। सवाल नहीं कर पाते?
आप ये कहना चाह रहे हैं कि हिंदी में समीक्षक उस तरह से नहीं आ पाये कि वो ऑडिएंस को स्तरीय सिनेमा के लिए प्रेरित कर सकें।
बहुत कम हैं सर। दो तरह के समीक्षक हैं। एक हैं जो पूरा ट्रेड वाले हैं।
बॉक्स ऑफिस हिट उनके लिए सबसे अच्छा सिनेमा है। एक हैं, जो साठ-सत्तर के
दशक की फिल्मों तक आकर रुक गये हैं। वे फिल्म आर्काइव के समीक्षक हैं।
और आपको यह जानकर भी हैरानी होगी कि अपने यहां फिल्म आर्काइव बरसों से
अपडेट नहीं हुआ है। 79 के बाद से उसमें फिल्म ही नहीं है। तो वही फिल्म
देख के कुछ लोग बड़े हुए। उसके बाद का सिनेमा उन्होंने देखा ही नहीं। उसके
बाद के सिनेमा में बड़ा परिवर्तन आया है।
पेशेवर समीक्षा से अलग अब दर्शक भी अपने तरीके से फिल्मों तक पहुंच रहे हैं। पान सिंह तोमर का उदाहरण लीजिए। उसको स्टूडियो प्रोमोट नहीं करता है। लेकिन सोशल मीडिया के जरिये लोगों तक सूचना पहुंचती है और अचानक से वो फिल्म हिट हो जाती है।
सर, पानसिंह तोमर के लिए वो सारी मुहिम मैंने शुरू की थी। पागलों की
तरह। लेकिन वो मैं अपनी फिल्म के लिए नहीं कर सकता हूं। पानसिंह तोमर के
वक्त लोगों ने मेरा विश्वास इसलिए किया कि मैं किसी और की फिल्म के लिए
कर रहा था।
लेकिन गैंग्स ऑफ वासेपुर के प्रोमोशन में तो सोशल मीडिया का काफी इस्तेमाल हुआ।
देखिए, वक्त ऐसा है कि लोग तुरत सूंघ लेते हैं क्या चीज जेनुइनली हो
रही है, क्या चीज नहीं हो रही है। वो तभी होगा, जब हमलोग उदार बनेंगे। मैं
दुनिया भर की फिल्म उठा कर प्रोमोट करता हूं। आपने कभी देखा कि कोई मेरी
फिल्म को लेकर ऐसा कर रहा हो। वे सतर्क हो जाते हैं कि अगर इसको प्रोमोट
करेंगे तो लोग कहेंगे कि हम गाली-गलौज वाला सिनेमा हम प्रोमोट कर रहे हैं।
उनको अपनी इमेज की चिंता इतनी ज्यादा है। मैं ये सब चीजें इसलिए कह रहा
हूं, क्योंकि मैंने ये सब किया है। मैंने बिना किसी सपोर्ट सिस्टम के
किया है। आज जो सपोर्ट सिस्टम बना है, वो नॉन फिल्म वालों का बना है।
फिल्म वालों का नहीं है। 2006 से चालू किया मैंने ये सब करना। इसके बाद
मैं हताश के बोल रहा हूं ये सब। इससे कुछ नहीं होता। एक ही आदमी बार-बार ये
सब करे, तो लोग कहेंगे – धंधा बना लिया है क्या?
हिंदी के फिल्मकार हिंदी पत्रिकाओं को पढ़ते हैं?
नहीं। हिंदी कोई नहीं पढ़ता यहां पर। डॉ द्विवेदी या तिग्मांशु धूलिया
के अलावा हिंदी कोई नहीं पढ़ता। दिबाकर बनर्जी हिंदी के लिए कुछ करना चाहते
हैं। हिंदी और रीजनल लैंग्वेज के लिए एक स्क्रिप्टिंग सॉफ्टवेयर बनाने
में लगे हुए हैं। उनका और हम सबका मानना है कि नया सिनेमा छोटे-छोटे
गांव-मोहल्लों से आएगा। इसके लिए उनकी भाषा में स्क्रिप्ट लिखना आसान
करना होगा।
इसी दशक में ऐसा हुआ कि जो माध्यम निर्देशक का है और जो अभिनेताओं की वजह से जाना जाता है, वह अब निर्देशकों की वजह से भी जाना जाने लगा है। जैसे आप ही हैं या दिबाकर बनर्जी, विशाल भारद्वाज, तिग्मांशु धूलिया, इम्तियाज अली… लोग इन नामों की वजह से भी फिल्म देखने जाते हैं।
हां, लेकिन ये पूरे देश के सिर्फ दस फीसदी दर्शकों को खींच पाने में
सक्षम हैं। ये अभी भी बाजार को प्रभावित करने वाले निर्देशक नहीं हैं। मेरा
फिल्म बना पाने का एक बहुत बड़ा कारण है। मेरी जितनी भी फिल्में हैं, वह
किसी भी नयी कंपनी की पहली फिल्म है। बाजार में मैच्योर होने से पहले
उन्होंने मेरी फिल्म को हरी झंडी दिखायी। स्पॉटब्वॉय की पहली फिल्म
थी, आमिर और देव डी। वाय कॉम की नयी टीम की पहली फिल्म थी, शैतान और
गैंग्स ऑफ वासेपुर। मिड डे की अकेली फिल्म थी ब्लैक फ्राइडे। मेरी
फिल्म बनाने के बाद या तो कंपनियां बंद हो गयीं या उन्हें लगा कि यार
बड़े स्टार के साथ फिल्म बनाना ज्यादा सही है।
साधिकार मोहल्ला लाइव से
साधिकार मोहल्ला लाइव से
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