फिल्म समीक्षा : स्टूडेंट ऑफ द ईयर
-अजय ब्रह्मात्मज
देहरादून में एक स्कूल है-सेंट टेरेसा। उस स्कूल में टाटा(अमीर) और बाटा(मध्यवर्गीय) के बच्चे पढ़ते हैं। उनके बीच फर्क रहता है। दोनों समूहों के बच्चे आपस में मेलजोल नहीं रखते। इस स्कूल के डीन हैं योगेन्द्र वशिष्ठ(ऋषि कपूर)। वे अपने ऑफिस के दराज में रखी मैगजीन पर छपी जॉन अब्राहम की तस्वीर पर समलैंगिक भाव से हाथ फिराते हैं और कोच को देख कर उनक मन में ‘कोच कोच होने लगता है’। करण जौहर की फिल्मों में समलैंगिक किरदारों का चित्रण आम बात हो गई है। कोशिश रहती है कि ऐसे किरदारों को सामाजिक प्रतिष्ठा और पहचान भी मिले। बहरहाल, कहानी बच्चों की है। ये बच्चे भी समलैंगिक मजाक करते हैं। इस स्कूल के लंबे-चौड़े भव्य प्रांगण और आलीशान इमारत को देखकर देश के अनगिनत बच्चों को खुद पर झेंप और शर्म हो सकती है। अब क्या करें? करण जौहर को ऐसी भव्यता पसंद है तो है। उनकी इस फिल्म के लोकेशन और कॉस्ट्युम की महंगी भव्यता आतंकित करती है। कहने को तो फिल्म में टाटा और बाटा के फर्क की बात की जाती है, लेकिन मनीष मल्होत्रा ने टाटा-बाटा के प्रतिनिधि किरदारों को कॉस्ट्युम देने में भेद नहीं रखा है। रोहन और अभिमन्यु के वार्डरोब में एक से कपड़े हैं। फिल्म की नायिका सनाया तो मानो दुनिया के सभी मशहूर ब्रांड की मॉडल है। इस स्कूल में एक पढ़ाई भर नहीं होती,बाकी खेल-कूद,नाच-गाना,लब-शव चलता रहता है। आप गलती से भी भारतभूमि में ऐसे लोकेशन और कैरेक्टर की खोज न करने लगें। स्वागत करें कि करण जौहर विदेश से देश तो आए। भविष्य में वे छोटे शहरों और देहातों में भी पहुंचेगे।
इस फिल्म की खूबी और कमी पर बात करने से बेहतर है कि हम तीन नए चेहरों की चर्चा करें। करण जौहर ने पहली बार अपनी फिल्म के मुख्य किरदारों में नए चेहरों को मौका देने का साहस दिखाया है। भविष्य में कैरेक्टर और कंटेंट भी देश्ी हो सकते हैं। उनके तीनों चुनाव बेहतर हैं। परफारमेंस के लिहाज से सिद्धार्थ मल्होत्रा बीस ठहरते हैं। फिल्म के लेखक और कहानी का सपोर्ट अभिमन्यु को मिला है, लेकिन उस किरदार में वरुण धवन मेहनत करते दिखते हैं। मुठभेड़, दोस्ती और मौजमस्ती के दृश्यों में सिद्धार्थ और वरुण अच्छे लगते हैं। मनीष मल्होत्रा और सिराज सिद्दिकी ने उन्हें आकर्षक कॉस्ट्युम दिए हैं। फिल्म तो इन दोनों के लिए ही बनाई गई लगती है। इस फिल्म से फैशन का नया ट्रेंड चल सकता है। पहली फिल्म और रोल के हिसाब से आलिया भट्ट निराश नहीं करतीं, लेकिन उनका परफारमेंस साधारण है। आती-जाती और इठलाती हुई वह सुंदर एवं आकर्षक लगती हैं। गानों में भी उन्होंने सही स्टेप्स लिए हैं, लेकिन भावपूर्ण और नाटकीय दृश्यों में उनका कच्चापन जाहिर हो जाता है। फिल्म के सहयोगी कलाकारों का चुनाव उल्लेखनीय है। उन सभी की मदद से फिल्म रोचक बनती है। ऋषि कपूर और रोनित रॉय अपने किरदारों में फिट हैं।
इस फिल्म के तीनों किरदारों की एंट्री को करण जौहर ने विशेष तरीके से शूट किया है। पुरानी हिंदी फिल्मों के मुखड़े लेकर नए भाव जोड़े गए हैं और उनकी पर्सनैलिटी जाहिर की गई है। फिल्म के गानों में मौलिकता नहीं है। अन्विता दत्त गुप्तन ने पुराने गीतों के मुखड़े लेकर नए शब्दों से अंतरे बनाए हैं। संगीत में भी यही प्रयोग किया गया है। करण जौहर की इस फिल्म में उनकी पुरानी सपनीली मौलिकता भी लुप्त हो गई है। देश के धुरंधर युवा फिल्मकार की कल्पनाशीलता पर कोफ्त होने से भी क्या होगा? इस फिल्म की पैकेजिंग दर्शकों को थिएटर में ला सकती है।
एक ही अच्छी बात हुई है कि ‘स्टूडेंट ऑफ द ईयर’ ने कुछ नई और युवा प्रतिभाओं को बड़े पर्दे पर अपना हुनर दिखाने का मौका दिया है। सचमुच हमें हिंदी फिल्मों में नए चेहरों की तलाश है। भले ही वे फिल्मी परिवारों से क्यों न हों?
देहरादून में एक स्कूल है-सेंट टेरेसा। उस स्कूल में टाटा(अमीर) और बाटा(मध्यवर्गीय) के बच्चे पढ़ते हैं। उनके बीच फर्क रहता है। दोनों समूहों के बच्चे आपस में मेलजोल नहीं रखते। इस स्कूल के डीन हैं योगेन्द्र वशिष्ठ(ऋषि कपूर)। वे अपने ऑफिस के दराज में रखी मैगजीन पर छपी जॉन अब्राहम की तस्वीर पर समलैंगिक भाव से हाथ फिराते हैं और कोच को देख कर उनक मन में ‘कोच कोच होने लगता है’। करण जौहर की फिल्मों में समलैंगिक किरदारों का चित्रण आम बात हो गई है। कोशिश रहती है कि ऐसे किरदारों को सामाजिक प्रतिष्ठा और पहचान भी मिले। बहरहाल, कहानी बच्चों की है। ये बच्चे भी समलैंगिक मजाक करते हैं। इस स्कूल के लंबे-चौड़े भव्य प्रांगण और आलीशान इमारत को देखकर देश के अनगिनत बच्चों को खुद पर झेंप और शर्म हो सकती है। अब क्या करें? करण जौहर को ऐसी भव्यता पसंद है तो है। उनकी इस फिल्म के लोकेशन और कॉस्ट्युम की महंगी भव्यता आतंकित करती है। कहने को तो फिल्म में टाटा और बाटा के फर्क की बात की जाती है, लेकिन मनीष मल्होत्रा ने टाटा-बाटा के प्रतिनिधि किरदारों को कॉस्ट्युम देने में भेद नहीं रखा है। रोहन और अभिमन्यु के वार्डरोब में एक से कपड़े हैं। फिल्म की नायिका सनाया तो मानो दुनिया के सभी मशहूर ब्रांड की मॉडल है। इस स्कूल में एक पढ़ाई भर नहीं होती,बाकी खेल-कूद,नाच-गाना,लब-शव चलता रहता है। आप गलती से भी भारतभूमि में ऐसे लोकेशन और कैरेक्टर की खोज न करने लगें। स्वागत करें कि करण जौहर विदेश से देश तो आए। भविष्य में वे छोटे शहरों और देहातों में भी पहुंचेगे।
इस फिल्म की खूबी और कमी पर बात करने से बेहतर है कि हम तीन नए चेहरों की चर्चा करें। करण जौहर ने पहली बार अपनी फिल्म के मुख्य किरदारों में नए चेहरों को मौका देने का साहस दिखाया है। भविष्य में कैरेक्टर और कंटेंट भी देश्ी हो सकते हैं। उनके तीनों चुनाव बेहतर हैं। परफारमेंस के लिहाज से सिद्धार्थ मल्होत्रा बीस ठहरते हैं। फिल्म के लेखक और कहानी का सपोर्ट अभिमन्यु को मिला है, लेकिन उस किरदार में वरुण धवन मेहनत करते दिखते हैं। मुठभेड़, दोस्ती और मौजमस्ती के दृश्यों में सिद्धार्थ और वरुण अच्छे लगते हैं। मनीष मल्होत्रा और सिराज सिद्दिकी ने उन्हें आकर्षक कॉस्ट्युम दिए हैं। फिल्म तो इन दोनों के लिए ही बनाई गई लगती है। इस फिल्म से फैशन का नया ट्रेंड चल सकता है। पहली फिल्म और रोल के हिसाब से आलिया भट्ट निराश नहीं करतीं, लेकिन उनका परफारमेंस साधारण है। आती-जाती और इठलाती हुई वह सुंदर एवं आकर्षक लगती हैं। गानों में भी उन्होंने सही स्टेप्स लिए हैं, लेकिन भावपूर्ण और नाटकीय दृश्यों में उनका कच्चापन जाहिर हो जाता है। फिल्म के सहयोगी कलाकारों का चुनाव उल्लेखनीय है। उन सभी की मदद से फिल्म रोचक बनती है। ऋषि कपूर और रोनित रॉय अपने किरदारों में फिट हैं।
इस फिल्म के तीनों किरदारों की एंट्री को करण जौहर ने विशेष तरीके से शूट किया है। पुरानी हिंदी फिल्मों के मुखड़े लेकर नए भाव जोड़े गए हैं और उनकी पर्सनैलिटी जाहिर की गई है। फिल्म के गानों में मौलिकता नहीं है। अन्विता दत्त गुप्तन ने पुराने गीतों के मुखड़े लेकर नए शब्दों से अंतरे बनाए हैं। संगीत में भी यही प्रयोग किया गया है। करण जौहर की इस फिल्म में उनकी पुरानी सपनीली मौलिकता भी लुप्त हो गई है। देश के धुरंधर युवा फिल्मकार की कल्पनाशीलता पर कोफ्त होने से भी क्या होगा? इस फिल्म की पैकेजिंग दर्शकों को थिएटर में ला सकती है।
एक ही अच्छी बात हुई है कि ‘स्टूडेंट ऑफ द ईयर’ ने कुछ नई और युवा प्रतिभाओं को बड़े पर्दे पर अपना हुनर दिखाने का मौका दिया है। सचमुच हमें हिंदी फिल्मों में नए चेहरों की तलाश है। भले ही वे फिल्मी परिवारों से क्यों न हों?
निर्देशक-करण जौहर, कलाकार- सिद्धार्थ मल्होत्रा, आलिया भट्ट, वरुण धवन, सगीत-विशाल-शेखर, गीत- अन्विता दत्त गुप्तन,संवाद-निरंजन आयंगार
**१/२ ढाई स्टार
अवधि-146 मिनट
**१/२ ढाई स्टार
अवधि-146 मिनट
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