फिल्म समीक्षा : बोल बच्चन
एक्शन की गुदगुदी, कामेडी का रोमांच
पॉपुलर सिनेमा प्रचलित मुहावरों का अर्थ और रूप बदल सकते हैं। कल से बोल
वचन की जगह हम बोल बच्चन झूठ और शेखी के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। वचन
बिगड़ कर बचन बना और रोहित शेट्टी और उनकी टीम ने इसे अपनी सुविधा के लिए
बच्चन कर दिया। वे साक्षात अमिताभ बच्चन को फिल्म की एंट्री और इंट्रो में
ले आए। माहौल तैयार हुआ और अतार्किक एक्शन की गुदगुदी और कामेडी का रोमांच
आरंभ हो गया। रोहित शेट्टी की फिल्म बोल बच्चन उनकी पुरानी हास्य प्रधान
फिल्मों की कड़ी में हैं। इस बार उन्होंने गोलमाल का नमक डालकर इसे और अधिक
हंसीदार बना दिया है।
बेरोजगार अब्बास अपनी बहन सानिया के साथ पिता के दोस्त शास्त्री के साथ
उनके गांव रणकपुर चला जाता है। पितातुल्य शास्त्री ने आश्वस्त किया है कि
पृथ्वीराज रघुवंशी उसे जरूर काम पर रख लेंगे। गांव में पृथ्वीराज रघुवंशी
को पहलवानी के साथ-साथ अंग्रेजी बोलने का शौक है। उन्हें झूठ से सख्त नफरत
है। घटनाएं कुछ ऐसी घटती हैं कि अब्बास का नाम अभिषेक बच्चन बता दिया जाता
है। इस नाम के लिए एक झूठी कहानी गढ़ी जाती है और फिर उसके मुताबिक नए
किरदार जुड़ते चले जाते हैं। गांव की अफलातून नौटंकी कंपनी में शास्त्री का
बेटा रवि नया प्रयोग कर रहा है। वह गोलमाल फिल्म का नाटय रूपांतर पेश कर
रहा है। फिल्म के एक दृश्य में टीवी पर आ रही गोलमाल भी दिखाई जाती है। एक
ही व्यक्ति को दो नामों और पहचान से पेश करने में ही गोलमाल की तरह बोल
बच्चन का हास्य निहित है।
रोहित शेट्टी की फिल्मों में नाटकीयता, लाउड डॉयलॉगबाजी और हाइपर कैरेक्टर
रहते हैं। कामेडी के साथ एक्शन की संगत भी चलती रहती है। इस फिल्म में
जयसिंह निच्जर के निर्देशन में आए एक्शन दृश्यों का फिल्म के सीक्वेंस से
सीधा ताल्लुक नहीं बैठता, फिर भी हवा में उड़ती कारों और कलाबाजी खाते
गुंडा-बदमाशों को देखकर सिहरन नहीं थिरकन होती हैं। सब कुछ हैरतअंगेज होता
है, इसलिए आ रही हंसी भी अनायास होती है। रोहित शेट्टी के एक्शन डिजाइन में
सब कुछ गिरता-पड़ता है, लेकिन खून-खराबा नहीं दिखाई देता। पर्दे पर खून
नजर नहीं आता। हंसी-मजाक के संवाद और दृश्य कई बार द्विअर्थी होते हैं,
लेकिन वे फैमिली दर्शकों की मर्यादा में ही रहते हैं।
बहुत चालाकी से रोहित शेट्टी की फिल्मों के लेखक संदेश भी दे डालते
हैं। इसी फिल्म में एक डूबते बच्चे को बचाने के लिए मुसलमान किरदार द्वारा
मंदिर के दरवाजे पर सालों से लगा ताला तोड़ना मानवीय गुणों का बड़ा संदेश
बन जाता है। फिल्म में एक संवाद है खून से खून साफ नहीं होता ़ ़ ़ इसे
सुनते हुए गांधी के कथन अगर आंख के बदले आंख निकाली जाए तो सारी दुनिया
अंधी हो जाएगी की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है।
बोल बच्चन के कुछ प्रसंग लंबे होने की वजह से खींच गए हैं। लेखक और
निर्देशक ने यह सावधानी जरूर रखी है कि हंसी की लहरें थोड़ी-थोड़ी देर में
आती रहें। कभी-कभी हंसी की ऊंची लहर आती है तो दर्शक भी खिलखिलाहट से भीग
जाते हैं। चुटीली पंक्तियां और पृथ्वीराज रघुवंशी की अंग्रेजी हंसी के
फव्वारों की तरह काम करती हैं। ऐसे संवाद बोलते समय सभी कलाकारों की
टाइमिंग और तालमेल उल्लेखनीय है। खासकर गलत अंग्रेजी बोलते समय अजय देवगन
का कंफीडेंस देखने लायक है।
फिल्म की थीम के अनुरूप अजय देवगन के अभिनय और प्रदर्शन से संतुष्टि
मिलती है, लेकिन साथ ही दुख होता है कि एक उम्दा एक्टर कामेडी के ट्रैप में
कितना फंस गया है? हिंदी फिल्मों का यह अजीब दौर है। प्रतिभाएं मसखरी पर
उतरने को मजबूर हैं। अभिषेक बच्चन ने दोनों किरदारों को अलग भाव मुद्राएं
देने में सफल रहे हैं। अन्य कलाकारों में कृष्णा उल्लेखनीय है। असिन और
प्राची देसाई फिल्म में क्यों रखी गई हैं?
ड्यूडली का कैमरा फिल्म के स्वभाव के मुताबिक पर्दे पर चटख रंग बिखेरता है।
एक्शन दृश्यों और हवेली के विहंगम फ्रेम में उनकी काबिलियत झलकती है।
फिल्म का एक ही गीत चलाओ ना नैनन के बाण रे याद रह पाता है।
*** तीन स्टार
अवधि-154 मिनट
-अजय ब्रह्मात्मज
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