फिल्म समीक्षा : आरक्षण
प्रकाश झा की आरक्षण कई कारणों से उल्लेखनीय फिल्म है। हिप हिप हुर्रे से लेकर राजनीति तक की यात्रा में प्रकाश झा की सोच और शैली में आए विक्षेप के अध्ययन में आरक्षण का महत्वपूर्ण पड़ाव होगा। यहां से प्रकाश झा का एक नई दिशा की ओर मुड़ेंगे। आरक्षण भारतीय समाज केएक ज्वलंत मुद्दे पर बनी मुख्यधारा की फिल्म है। इसने सामाजिक मुद्दों से उदासीन समाज और दर्शकों को झकझोर दिया। वे आरक्षण शब्द और उसके निहितार्थ से परिचित हुए हैं। अगर मीडिया में आरक्षण फिल्म के बहाने ठोस बहस आरंभ होती तो सोच-विचार को नए आयाम मिलते, लेकिन हम फिजूल विवादों में उलझ कर रह गए।
बहरहाल, आरक्षण प्रकाश झा की पहली अहिंसात्मक फिल्म है। प्रभाकर आनंद का व्यक्तित्व गांधी से प्रभावित है। हालांकि फिल्म में कहीं भी गांधी का संदर्भ नहीं आया है और न उनकी तस्वीर दिखाई गई है, लेकिन प्रभाकर आनंद का संघर्ष गांधीवाद के करीब है। अपने सिद्धांतों पर अटल प्रभाकर आनंद स्वावलंबी योद्धा के रूप में उभरते हैं। क्या इसी वजह से हमें वैष्णव जन की हल्की धुन भी सुनाई पड़ती है? यह अतिरेक न लगे तो उनकी पत्नी की भूमिका में आई तन्वी आजमी में कस्तूरबा की झलक है। एक दृश्य में बाप-बेटी की भिड़ंत में पूर्वी (दीपिका पादुकोण) का गुस्सा हरिलाल की तरह लगता है। क्लाइमेक्स में जब प्रशासन अपनी शक्ति के साथ सामने मौजूद है तब भी वे अपने समूह के आत्मबल की बात करते हैं। आरक्षण में प्रकाश झा को लाठी, बंदूक और गोली चलाने की जरूरत नहीं पड़ी है। सारी लड़ाई बोली और विचार की है।
आरक्षण की पृष्ठभूमि पर शिक्षा के व्यवसायीकरण को छूती यह फिल्म भारतीय समाज में स्वीकृत हो रहे वैकल्पिक शिक्षण व्यवस्था के नाम पर जारी कोचिंग क्लासेज यानी मुनाफे के व्यवसाय को उजागर करती है। साथ ही यह बताती है कि इस दौर में शिक्षा के इस दानव के चंगुल से निकलने का रास्ता भी है, किंतु उसके लिए व्यक्तिगत और सरकारी पहल करनी होगी। मिथिलेश सिंह (मनोज बाजपेयी) जैसे अध्यापकों के लिए शाइनिंग इंडिया के इस काल में शिक्षा लाभदायक व्यवसाय है। मध्यांतर तक आरक्षण के सैद्धांतिक पहलुओं को घटनाओं और प्रसंगों केमाध्यम से कहानी का हिस्सा बनाने के बाद मुख्य भिड़ंत शिक्षा के व्यवसायीकरण और समुदायीकरण के बीच होती है। इस भिड़ंत में एक तरफ प्रभाकर आनंद और दूसरी तरफ मिथिलेश सिंह खड़े हैं। प्रभाकर आनंद के रूप में अमिताभ बच्चन ने उसी विजय की भूमिका को निभाया है जो प्रतिकूल स्थितियों के खिलाफ अकेले जूझता है। यहां विजय ने हथियार के बजाए विचार उठाया है और एक समूह को लामबंद किया है। हिंदी फिल्मों में ऐसी अहिंसात्मक भिड़ंत नहीं दिखी है। इस भिड़ंत में प्रभाकर आनंद विजयी होते हैं लेकिन मिथिलेश सिंह का विक्षिप्त हो जाने का औचित्य समझ में नहीं आता।
अमिताभ बच्चन और मनोज बाजपेयी का अभिनय प्रभावशाली है। साफ दिखता है कि सैफ अली खान और दीपिका पादुकोण को हिंदी बोलने में दिक्कत हो रही है। उच्चारण की अड़चन से उनके अभिनय का प्रभाव कम हुआ है। प्रतीक कमजोर अभिनेता हैं। उन्हें अभी बहुत कुछ सीखना है। उन्होंने एक बड़ा अवसर खो दिया। आरक्षण की ताकत यशपाल शर्मा, मुकेश तिवारी, सौरभ शुक्ला, चेतन पंडित, विनय आप्टे और छोटी भूमिकाओं में आए अनेक कलाकार हैं। प्रकाश झा ने दर्जनों स्थानीय प्रतिभाओं को कलाकार बना दिया है। जन अभिनय का उनका यह अभियान प्रशंसनीय है।
फिल्म अगर बांध नहीं रही हो तो लंबी लगती है। थोड़ी देर के लिए यह फिल्म अटकती-भटकती जान पड़ती है और हम घड़ी देखने लगते हैं। डिटेलिंग और कंटीन्यूटी की भी समस्याएं हैं। बैंक में गारंटी पत्र पर हस्ताक्षर करने गए प्रभाकर आनंद के दृश्य में बोर्ड पर डॉ ़ हरिवंश राय बच्चन की लिखी कविता से भी बचा जा सकता था। इन फिल्म पब्लिसिटी के तौर पर लाए गए उत्पादों को फिल्म के दृश्यों और संवादों का हिस्सा बनाते समय यह सावधानी तो रहनी चाहिए कि वे अलग से सुनाई और दिखाई न पड़े।
चार स्टार
Comments
“आजकल सच्चाई का सबसे बड़ा दुश्मन असत्य नहीं स्वयं सच्चाई ही है, क्योंकि वह ऐंठती नहीं, सजजनता को साथ लेकर चलती है। आजकल के जमाने में वह है आउट आफ डेट। जी ! उसलिए सत्य जरा युयुत्सु बने, वीर बने तभी वह धक सकता है, चल सकता है, बिक सकता है।"
बहुत सुंदर सच की सच्चाई
बहुत सुंदर सच की सच्चाई