गंदा काम नहीं है एडल्ट फिल्म बनाना-अनुराग कश्यप
-अजय ब्रह्मात्मज
लगभग एक साल पहले वेनिस और टोरंटो फिल्म फेस्टिवल में दिखायी जा चुकी अनुराग कश्यप की फिल्म ‘दैट गर्ल इन यलो बूट्स’ 2 सितंबर को एक साथ भारत और अमेरिका में रिलीज हो रही है।
- आपकी फिल्म तो बहुत पहले तैयार हो गई थी। फिर रिलीज में इतनी देरी क्यों हुई?
0 मैं ‘दैट गर्ल इन यलो बूट्स’ को इंटरनेशनल स्तर पर रिलीज करना चाह रहा था। हमें वितरक खोजने में समय लगा। अब मेरी फिल्म 30 प्रिंट के साथ अमेरिका में रिलीज हो रही है। इस लिहाज से यह मेरी सबसे बड़ी फिल्म है। दक्षिण यूरोप, फिनलैंड, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कोरिया आदि देशों में भी यह रिलीज होगी। मेरा ध्यान अमेरिका और भारत पर था कि दोनों देशों में मेरी फिल्म एक साथ रिलीज हो।
- किस तरह की फिल्म है यह?
0 अलग किस्म की थ्रिलर फिल्म है। इंग्लैंड से एक लडक़ी अपने पिता की तलाश में भारत आयी हुई है। वह किसी रेलीजियस कल्ट में था। यहां आने के बाद वह अंडरवल्र्ड, मसाज पार्लर की दुनिया में बिचरती है। उसे लगता है कि उसके पिता वहां मिलेंगें। हमारे समाज में ये चीजें बेहद एक्टिव हैं, लेकिन हमलोग हमेशा इंकार करते हैं। पिता से मिलने के चार दिन पहले से कहानी शुरू होती है। आखिरी चार दिन में वह किन-किन स्थितियों से गुजरती है ़ ़ ़ यही फिल्म है।
- इस फिल्म को देख चुके आपके कई दोस्तों का सवाल है कि अनुराग ने यह फिल्म बनाई ही क्यों?
0 मैं उन्हें कोई दोष नहीं दूंगा। हमारे सिनेमा के संस्कार ही कुछ ऐसे हैं कि ऐसी फिल्में देखते ही माथा ठनक जाता है। एडल्ट फिल्मों के बारे में हमलोग सहज नहीं हैं। हमें एडल्ट फिल्म का मतलब सेक्स और वायलेंस ही समझ में आता है। मानो वह कोई बुरी बात हो। मेरे ख्याल में एडल्ट का मतलब यह होना चाहिए कि आप कुछ भी सोच, बोल और बता सकें। सभी चीजों को रैशनल तरीके से देख सकें। अपने देश में एडल्ट होने के बाद ही वोट देने और शादी करने के अधिकार मिलते हैं,लेकिन एडल्ट फिल्म बनाना गंदा काम माना जाता है। एडल्ट का मतलब पोर्नोग्राफी हो गया है। माना जाता है कि इसे बनाने और देखने वाले लोग गंदे होते हैं। यह हमारे समाज की नैतिक समस्या है। समाज चाहता है कि हम बच्चे ही बने रहें और सारी फिल्में बच्चों के हिसाब से बनाई जाएं। नैतिक किस्म के लोग इस फिल्म के दूसरे दृश्य से ही उखड़ जाएंगे।
- अपने यहां हर तरह की फिल्म का ढांचा बना हुआ है। आपकी फिल्में हमेशा उस ढांचे को तोड़ती है। ऐसा क्यों?
0 मैं रूटीन काम नहीं करना चाहता। मेरी कोशिश रहती है कि मैं खुद जो पढ़ता-लिखता और सोचता हूं या दुनिया भर की फिल्मों में जो देखता हूं,वैसा कुछ अपने दर्शकों के लिए तैयार करूं। मैं फंतासी की दुनिया में अपने किरदारों को नहीं रखना चाहता। मेरे किरदार हिंदी फिल्मों के बने-बनाए ढांचे में फिट भी नहीं होते। सिस्टम बदलने के लिए तो गालियां सुननी ही पड़ेगी।
- एक सवाल यह भी है कि ‘देव डी’ के बाद अनुराग ने इतनी छोटी फिल्म क्यों की? वह चाहता तो बड़े स्टारों के साथ बड़ी फिल्म बना सकता था।
0 मैं किसी फार्मूले में नहीं फंसना चाहता। मुझे छोटी फिल्म ही बनानी थी। मैं बताना चाहता हूं कि मैं अलग-अलग फिल्में बनाने आया हूं। ‘दैट गर्ल इन यलो बूट््स’ की पूरी लागत साढ़े तीन करोड़ रुपए है। इसमें पब्लिसिटी भी शामिल है। मैं लोगों की अपेक्षाएं तोडऩा चाहता हूं। आप भले ही मुझे मूर्ख कहिए, लेकिन मुझे अकेला छोड़ दीजिए। मुझे अपने ढंग की फिल्में बनाने दीजिए।
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